ख़ास-मुलाक़ात
मेरे लेखन का मूल ही लोक मंगल की कामना है- सोनरूपा विशाल
आज हम मुलाक़ात करेंगे एक सशक्त रचनाकार से, जिसकी कविताई में जितनी सामर्थ्य है, गायिकी में उतना ही सुरीलापन। रूपवान, गुणवान, तेजवान इस महिला ने देश-विदेश के मंचों पर हिन्दी का, हिन्द का ख़ूब मान बढ़ाया है। बदायूँ (उ.प्र.) की लोकप्रिय कवयित्री सोनरूपा विशाल जी के कृतित्व और व्यक्तित्व पर उनसे विस्तृत संवाद किया है के. पी. अनमोल जी ने, जो यहाँ आप सबके लिए यहाँ प्रस्तुत है।
के. पी. अनमोल- आपका जन्म हिन्दी के ख्यातनाम कवि डॉ. उर्मिलेश के घर हुआ। ज़ाहिर-सी बात है साहित्यिक माहौल में पली-बढ़ी हैं आप। उस माहौल का आपके बालमन पर कैसा अंकन हुआ? कब लगा कि आप भी लेखन कर सकती हैं?
सोनरूपा जी- अनमोल जी, सही कहा आपने; एक ख्यातिलब्ध कवि डॉ उर्मिलेश की पुत्री के रूप में जन्म लेने के कारण साहित्यिक माहौल से स्वतः ही राब्ता हो गया। पिता जी की रचना प्रक्रिया, चिंतन-मनन, अध्ययन को देखती। कभी-कभी वो अख़बार पढ़ते ही ज्वलंत मुद्दों पर कविता लिखते और माँ को सुनाते।
फिर जैसे-जैसे हम बड़े होते गये हमें भी इस लायक मान लिया गया। घर में बड़े-बड़े साहित्यकारों का आना-जाना लगा रहता। उनकी आपस में बातचीत भी क्या अद्भुत होती थी कि ध्यान बरबस ही चला जाता था। पिताजी को हमारी क्लास भले ही न मालूम हो लेकिन हमारे उच्चारण और लिखावट पर उनका ध्यान ज़्यादा रहता था। बचपन में उनकी कविताएँ पढ़-पढ़ कर ख़ूब पुरस्कार जीते मैंने। तब तक कविता से बस इतना ही वास्ता था।
आज से सात आठ वर्ष पहले मुझे अंदेशा तक नहीं था कि मैं कविता लिख भी सकती हूँ वो इसीलिए कि मैं स्कूल टाइम से ही संगीत से जुड़ी रही। आवाज़ अच्छी थी, सुरों की भी ख़ूब समझ थी तो कई लोगों ने कहा कि तुम तो संगीत में ही अपनी पढ़ाई करना। धीरे-धीरे जैसे मैं भी यही मानने लगी। संगीत सीखने लगी, अच्छा भी बहुत लगता गाना। लेकिन विवाह के बाद कुछ सालों तक ये सिलसिला रुक गया। और इसी बीच मुझे मेरे जीवन का अब तक का सबसे बड़ा आघात लगा, मेरे पिता जी का असमय निधन। कल तक स्वस्थ दिख रहे पिता का अचानक बिछड़ना मेरे लिए असहनीय हो गया।
धीरे-धीरे फिर से जीवन सामान्य तो हुआ लेकिन कहीं न कहीं मैं पापा को पाने का माध्यम उनकी कविताओं में तलाशने लगी। उधर संगीत फिर से सीखना शुरू कर दिया था, उसमें भी मैं कम्पोज़िशन पर ध्यान कम रखती शब्दों पर ज़्यादा और इसी तरह मेरा लेखन प्रारम्भ हुआ। शायद बीज पहले से था, जमना अब शुरू हुआ। बच्चे भी बड़े हो रहे थे, थोड़ा ख़ुद के लिए समय मिलना भी शुरू हो गया था।
के. पी. अनमोल- पिताजी के बड़े नाम का कितना दबाव रहा आपकी साहित्यिक शुरुआत पर?
सोनरूपा जी- पिताजी के बड़े नाम का दबाव ख़ूब महसूस करती हूँ। पिता जब ज़्यादा क़ाबिल हों तो ज़ाहिर है लोगों की अपेक्षाएँ रहती हैं कि बच्चे भी उन जैसे हों। लेकिन ऐसा होना नहीं चाहिए। पृथक परिवेश, अध्ययन, क्षमता, विचारधारा इत्यादि बहुत सारे तत्व किसी के कृतित्व/ व्यक्तित्व को निर्धारित करते हैं।
हालाँकि पारिवारिक संस्कार, पैतृक गुण भी अपना प्रभाव डालते हैं।
के. पी. अनमोल- आप हिन्दी के मंच का एक बड़ा नाम हैं। इधर पुस्तकों और पत्रिकाओं में भी बराबर सक्रिय हैं। दोनों क्षेत्रों को किस तरह देखती हैं?
सोनरूपा जी- मंच पर तो अभी तीन-चार वर्षों से ही सक्रिय हुई हूँ मैं। पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर छपती रही बल्कि काफ़ी पहले से। पहले रचनाएँ लौट-लौट कर आयीं फिर धीरे-धीरे स्वीकृतियाँ मिलने लगीं। छपे हुए शब्दों का अपना महत्व होता है। मुद्रित रचनाएँ सदा के लिए हो जाती हैं। आपको स्थापन देती हैं। मेरा शुरू से मानना है कि लेखन ऐसा हो, जो मंच और पत्र-पत्रिकाओं में समान रूप से समादृत हो यानी जो मंच पर पढ़ा जाए वो पाठ्यचर्या का भी हिस्सा बन सके।
के. पी. अनमोल- जी बिलकुल। आप गीतकार और ग़ज़लकार हैं, अब लेखक भी। कौनसा रूप मन के ज़्यादा क़रीब है?
सोनरूपा जी- मैं जिस समय जिस विधा में लिख रही होती हूँ, उस समय उसी को आत्मसात कर लेती हूँ। मुझे लगता है कि किसी विधा को आप स्वयं चुन नहीं सकते, आपके भाव स्वयं अपने मन मुताबिक़ विधा को चुन लेते हैं। जब गद्य में कुछ लिखती हूँ तो फिर मुझे ज़्यादा बौद्धिक कसरत करने की ज़रूरत नहीं पड़ती, सहज शब्द निकलते हैं। गीत में एक भाव का निर्वहन करना होता है। ग़ज़ल में हर शेर अलग भाव का हो सकता है। मैंने सबसे पहले ग़ज़ल कहनी ही शुरू की थी। ग़ज़ल बेहद अज़ीज़ है मुझे।
के. पी. अनमोल- आप एक बेह्तरीन ग़ज़लकार हैं। ग़ज़ल की ख़ासियत है कि यह सबके साथ अपनी तरह रम जाती है। आपके लिए ग़ज़ल क्या है?
सोनरूपा जी- मेरे लिए ग़ज़ल केवल एक साहित्यिक विधा नहीं बल्कि एक विशिष्ट संस्कृति और जीवन पद्धति है। एक रोशनी है, ख़ुशबू, तर्क है, साझापन है, दृष्टि है, एक मज़बूत तना है, जिससे लिपटकर एहसास की बेल हरियाती है। जिसमें जीवन का प्रत्येक पहलू समेटा जा सकता है बशर्ते उसे वैसे ही बरता जाए जैसा उसका स्वरूप है।
के. पी. अनमोल- डॉ. उर्मिलेश हिन्दी परिवेश के एक बेहतरीन ग़ज़लकार हैं। आपके बेहद क़रीब होने की वजह से ज़ाहिर है उनका ग़ज़लकार रूप भी आपका पसंदीदा रहा होगा। डॉ. उर्मिलेश के ग़ज़लकार से आपके ग़ज़लकार ने क्या सीखा, क्या अपनाया?
सोनरूपा जी- पापा हर विधा में ज़बरदस्त पारंगत थे। ऐसा बहुत कम होता है। लेकिन उनको ये महारत हासिल थी। एक ग़ज़लकार के रूप में मैं डॉ. उर्मिलेश की ज़बरदस्त फैन हूँ। क्यों हूँ…तो उसका उत्तर बहुत विस्तृत होने की प्रबल संभावना है। इसीलिए मैं कुछ चुनिंदा तत्वों पर प्रकाश डालती हूँ।
उनके यहाँ मुझे शेर कहने का सलीका, दृष्टि का पैनापन, वांछित तेवर और ईमानदारी नज़र आती है। उनकी ग़ज़लों में उमंग है, उल्लास है, आस्था है, विश्वास है, आशा है, सचबयानी है, बेबाकी है, अछूते बिम्ब हैं, प्रतीकात्मकता है, प्रगतिशीलता है, समकालीनता है, रिश्ते हैं, राष्ट्रीयता है, कमज़ोरों की आवाज़ है, आक्रोश, व्यवस्था पर प्रश्न है, समाधान है, प्रेम है यानी जीवन के हर परिदृश्य पर भरीपूरी नज़र है।
मैंने पापा के कहन से बहुत प्रेरणा ली है। कुछ लोगों ने ग़ज़ल जैसी नाज़ुक विधा के हाथों में इंक़लाब के हथियार थमा दिए हैं।सामाजिक चित्रण के नाम पर सिर्फ़ नारेबाज़ी और सपाटबयानी, पापा की ग़ज़लों में ऐसा नहीं, उनकी ग़ज़लों में कथ्य का समंदर है, बबंडर नहीं, हर मिसरा बोलता हुआ है। अधिकतर शेर कोट किये जाते हैं क्योंकि उनका लोगों तक सीधा असर होता है। मिसरे पानी की तरह बहते हुए होते हैं। ग़ज़लों में ग़ज़ल का स्वरूप क्षत नहीं होता, मेरी शेरियत बनी रहती है। उनकी ग़ज़लों में ऐसे तमाम तत्व मुझे बेहद प्रभावित करते रहे हैं।
उनके जैसा लेखन मेरे वश का नहीं लगता लेकिन अभी तक जो लिखा है या भविष्य में जो ग़ज़ल कहूँगी, उनमें इन ख़ूबियाँ का असर रहेगा निश्चित ही।
के. पी. अनमोल- आपके ग़ज़ल लेखन में एक महिला रचनाकार का दृष्टिकोण साफ़ झलकता है। एक महिला ग़ज़लकार ग़ज़ल विधा को किस तरह और समृद्ध कर सकती है?
सोनरूपा जी- जी निश्चित तौर पर, जो हूँ वो नज़र आना भी चाहिए। मेरे भीतर की स्त्री मज़बूत भी है और खुली आँखें रखने वाली भी। लेकिन यहाँ बात सिर्फ़ मेरी नहीं, सबकी है तो स्त्री मन के हर भाव शेर की शक्ल में ढल जाते हैं।
हम स्त्रियों को प्रेममयी स्वभाव ईश्वरप्रदत्त है। मौजूदा वक़्त में जिनकी सबसे ज़्यादा कमी हुई तो वो है संवेदनशीलता, अच्छाई की। मैं चाहती हूँ स्त्रियाँ ये मोर्चा संभाल लें कि हम उन सरोकारों से जुड़ेंगे, जो दुनिया को सुंदर बनाने के लिए ज़रूरी हैं और ऐसा हो भी रहा है। मैं अचंभित हो जाती हूँ। क्या-क्या ग़ज़ब शेर कह रही हैं महिला ग़ज़लकार। नया ढंग, नए तेवर। ग़ज़ल के आसमान पर रोज़ नए सितारे टांक रही हैं ये।
हमारी ग़ज़लों में परिवार, संयोग, वियोग, प्रेम, रिश्तों से सम्बंधित भाव तो सहज ही उतरते हैं। मैंने देखा है कुछ लोग स्त्री लेखन को नज़रंदाज़ करने की विफल कोशिश करते हैं लेकिन अगर वे मूल में जाएं तो पाएंगे यही कोमल भावनाएँ जीवन का सर्वाधिक ज़रूरी तत्व हैं।
ये कहकर मैं स्त्री लेखन को फूल पत्ती लेखन कहकर मज़ाक उड़ाने वालों से भी मुख़ातिब हूँ, वहीं महिला ग़ज़लकारों से गुज़ारिश भी कर रही हूँ कि विषयों की व्यापकता से जुड़ें और उन महिला ग़ज़लकारों को साधुवाद भी दे रही हूँ, जिन्होंने अपनी समृद्ध क़लम से ग़ज़ल को समृद्ध किया है।
के. पी. अनमोल- आपने भारत के बाहर भी ख़ूब काव्यपाठ किया है। यहाँ के और बाहर के कवि सम्मेलनी परिवेश में क्या फ़र्क पाती हैं?
सोनरूपा जी- विदेशों में चूँकि कवि सम्मेलन कम आयोजित होते हैं तो लोगों को कविता सुनने का बड़ा चाव और उत्साह होता है। बहुत सलीक़े से सुनते हैं वहाँ। लोग भावना प्रधान कविताएँ और हास्य कविताएँ सुनना ज़्यादा पसन्द करते हैं। बहुत आदर सम्मान देते हैं। भारत से दूर हैं इसीलिए भारतीयता को ज़्यादा गहराई से अपने भीतर जीते हैं। ख़ैर अब तो दुनिया ग्लोबल हो गयी, दूरियाँ घट रही हैं।
भारत के कवि सम्मेलनों में ऑडिटोरियम के कवि सम्मेलन, खुले मैदान में होने वाले कवि सम्मेलन दोनों में अंतर है। वहाँ मिश्रित श्रोता होते हैं। अब मंच पर शुद्ध कविता को संघर्ष करना पड़ता है जमने के लिए। ये स्थिति आप जानते ही हैं।
के. पी. अनमोल- जी, यह स्थिति हर जगह है। आपकी रचनाएँ बौद्धिक न होकर भावनात्मक ज़्यादा हैं। बौद्धिक रचनाएँ दिमाग़ पर तो भावनात्मक रचनाएँ दिल पर दस्तक देती हैं। अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में कुछ बताइए।
सोनरूपा जी- जी, बिल्कुल सही कहा आपने। मैं कविता लिखते वक़्त कोई बौद्धिक यत्न नहीं करती। मैं समझती हूँ कि एक आँख, एक पैर, एक हाथ के साथ आप ज़िंदा रह सकते हैं लेकिन एक पल भी हृदय धड़कना बंद कर दे तो अगले ही पल में आप मिट्टी। हृदय संवेदनाओं का, सहृदयता का, प्रेम का प्रतीक होता है। मेरे लेखन का मूल ही लोक मंगल की कामना है। मैं अपने रोज़मर्रा के जीवन में बहुत व्यवस्थित रहना पसंद करती हूँ। घर सजा-सँवरा हुआ, शालीनता से बात करना, शब्दों का अपव्यव अच्छा नहीं लगता इत्यादि इसीलिए मैं अपनी रचनाओं के नैन-नक्श भी सहज शब्दों से सँवारती हूँ। अक्खड़ शब्द मेरे लेखन में आ ही नहीं पाते। भले ही परिवेश में मुझे विडम्बनाएँ नज़र आ रही हों लेकिन मैं उन्हें भी एक अलग ही ट्रीटमेंट देती हूँ जो चुभता नहीं लेकिन सच को व्यक्त करने में हिचकता भी नहीं।
रचना प्रक्रिया की कोई विशेष अवधि नहीं होती। जब लिखने की छटपटाहट होती है, लिख लेती हूँ। सामाजिक जीवन में भी सक्रिय रहती हूँ तो विभिन्न विषयों पर भी लिखना होता है।
के. पी. अनमोल- सामाजिक सक्रियता से याद आया ‘शब्दिता’। ‘शब्दिता’ महिला रचनाकारों की संस्था। आपकी इस संस्था के बारे में हम विस्तार से जानना चाहेंगे।
सोनरूपा जी- एक दिन मैं निदा फ़ाज़ली साहब द्वारा लिखित क़िताब ‘तमाशा मेरे आगे’ पढ़ रही थी। बड़ी रोचक लगी मुझे ये क़िताब। उन्होंने उसमें अपने कई समकालीन शायरों, लेखकों का ज़िक्र किया है। कई क़िस्से बताए हैं कि कैसे वो और कई बड़े ख्यातिप्राप्त साहित्यकार मुम्बई में किसी पान की गुमटी पर महफ़िल जमाते। ग्वालियर के एक क़िताब की दुकान का ज़िक्र भी किया उन्होंने। जहाँ रोज़ शाम बैठकी होती। ऐसे ही मैंने पापा को देखा था, जब वे बदायूँ होते तो वे और उनके कुछ कवि मित्र शाम को अक्सर जमघट लगाते। नई-नई रचनाएँ सुनाई जातीं, उन पर प्रतिक्रियाएँ आतीं, चर्चाएँ होतीं। वो वक़्त सुनहरा था। मैं गुज़रा वक़्त तो नहीं ला सकती लेकिन मन हुआ कि क्यों न एक ऐसे संस्था गठित की जाए जहाँ बैठकर हम दो-चार बातें करें, रचनापाठ करें, सुनें कुल मिलाकर कुछ ऐसा करें, जिससे ज़ेहन को अच्छी ख़ुराक मिले।
‘शब्दिता’ में लगभग 30 महिलाएँ हैं, जिनमें से सब लिखती नहीं हैं लेकिन अब धीरे-धीरे उन्होंने भी कुछ लिखने का प्रयास शुरू कर दिया है। अब हमने बाहर से भी एक रचनाकार को आमंत्रित करना शुरू कर दिया है। उनका काव्यपाठ सुनते हैं, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से जुड़ी हुई अपनी जिज्ञासाएँ भी शांत करते हैं। कुल मिलाकर गोष्ठियों की ख़त्म होती परम्परा का निर्वहन और बहुत समय से अपनी काव्यात्मक प्रतिभा को डायरी में दबाई हुई, कुछ स्थापित और कुछ अब प्रेरणा पाकर सृजन की ओर उन्मुख महिलाओं का समूह है ‘शब्दिता’। उपवन की तरह खिला-खिला माहौल रहता है हमारी इन बैठकों का।
के. पी. अनमोल- अपने परिवार के बारे में कुछ बताइए। घर सम्हालने के साथ लेखन और मंच के बीच तालमेल बहुत मुश्किल होता होगा। परिवार की क्या भूमिका रहती है इस सब में?
सोनरूपा जी- ईश्वर की अनुकम्पा है कि मुझे परिवार बहुत ही अच्छा मिला है। मेरे पति विशाल बहुत प्रोत्साहित करते हैं, सहयोग करते हैं। लेखन के लिए जब भी एकांत की ज़रूरत होती है, मुझे वो सहज ही उपलब्ध हो जाता है। बच्चे हॉस्टल में हैं तो कविसम्मेलन में जाने को लेकर बच्चों की ओर से निश्चिंत रहती हूँ। बच्चे घर पर हों तो मैं उनको समय ज़्यादा देना मेरी प्राथमिकता है। घर में सासु माँ हैं, जिनका दुलार और ख़याल मुझे भरपूर मिलता है। मुझे भी ख़ूब सक्रिय रहना पसंद है। लेखन, मंच, सामाजिक व्यस्तताएँ, पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ मुझे ऊर्जित रखती हैं। सबका साथ मुझे इसीलिए भी मिलता है कि मैं अपनी हर ज़िम्मेदारी पूरी ईमानदारी से निभाती हूँ।
के. पी. अनमोल- पिछले दिनों आपका एक यात्रा संस्मरण संग्रह ‘अमेरिका और 45 दिन’ आया है। इसकी योजना कैसे बनी? क्या सफ़र के दौरान इसका लेखन भी चलता रहा?
सोनरूपा जी- यात्रा संस्मरण लिखने की कोई योजना नहीं थी मेरी। जैसा कि आप जानते हैं कि आजकल सोशल साइट्स पर लोग अपने प्रोग्राम्स की फ़ोटो, जानकारी इत्यादि शेयर करते हैं लेकिन मैं अक्सर सिर्फ़ औपचारिकता नहीं करती। मैं एक-आध पैरा लिखती ज़रूर हूँ। चूँकि पहली बार अपने परिवार से इतनी दूर इतने दिनों के लिए गयी थी। मेरे परिचितों को, मेरे परिवार को बड़ा क्रेज़ था कि आख़िर कैसे होते हैं वहाँ कवि सम्मेलन, क्या परिवेश होता है। मैं भी उत्सुक थी, थोड़ी नर्वस सी भी। पहला कवि सम्मेलन डैलस में था जहाँ हम 3 दिन रुके। ज़ाहिर है ख़ूब आवभगत हुई, सैर की, यहाँ कवि सम्मेलन कैसे होता है मालूम हुआ। मैंने फेसबुक पर फोटोज़ डाले और एक संक्षिप्त रिपोर्ट बनाकर डाली, रिपोर्ट को संस्मरणात्मक शैली में लिखा।लोगों को ख़ूब पसन्द आया।
अच्छा, मेरे अंदर भी एक पूर्वाग्रह था कि पता नहीं कैसे, क्या होगा, कैसी यात्रा रहेगी। अपने पूर्वानुमान का भी आकलन अब मैं करने लगी थी। मैं रोज़ मोबाइल पर अपने अनुभव दर्ज करने लगी। जब कई दिनों के अनुभव इकट्ठे हो जाते तो मैं उन्हें फेसबुक पर पोस्ट कर देती। मम्मी इंतज़ार करने लगी थीं कि आज मैंने क्या लिखा, ऐसे ही कई लोग और इस सिलसिले से जुड़ने लगे। मुझे लेखन केवल जानकारी परक ही नहीं रखना था बल्कि सोद्देश्य भी रखना था।वहाँ जाकर भारतीयों के अंदर भारतीय संस्कृति, हिन्दी के लिए समर्पण देखा तो मुझे लगा कि ये भारत के लोगों को बताना ज़रूरी है। इसमें एक लंबी बातचीत विख्यात लेखिका श्रीमती सुधा ढींगरा के साथ भी मैंने की, उसमें उन्होंने अमेरिकन कल्चर से जुड़ी कई ऐसी बातों से मुझे अवगत कराया, जिनसे मैं अनभिज्ञ थी। हमने 45 दिन में 24 शहरों की यात्रा की। कई स्टेट्स घूमे। वृहद अनुभवों को लिखकर ही समेटा जा सकता था, जिन्हें मैं यात्रा के दौरान लिख-लिख कर समेट रही थी। जब घर आई तब तक ये साफ़ हो चुका था कि ये वृतांत किताब की शक्ल ले सकते हैं। घर लौटकर मैंने मोबाइल से सारे नोट्स इकट्ठा किये और 15 दिनों में मैंने पूरी पुस्तक तैयार कर ली।
के. पी. अनमोल- आपकी इस पुस्तक पर बरेली के प्रतिभाशाली समीक्षक डॉ. नितिन सेठी कहते हैं-
” ‘अमेरिका और 45 दिन’ अपनी साहित्यिक यात्राओं के सुन्दर–सजीले रास्तों में पाठक को भटकने नहीं देती बल्कि अमेरिका के लोगों का प्यार–सत्कार, इसकी प्राकृतिक सुन्दरता, इसकी भारत के प्रति रुचिता के साथ–साथ हिन्दी भाषा की सार्वभौमिक विश्वसमरसता की पावन भावना के भी दर्शन करवाती है।”
यह अपनी तरह का एक अनोखा और महत्वपूर्ण कार्य है, बधाई।
आपने हमें, हमारी पत्रिका अपना क़ीमती समय दिया; हम हृदय से आभारी हैं। अंत में महिला दिवस पर एक सशक्त महिला की तरफ से हमारे पाठकों को कोई सन्देश?
सोनरूपा जी- हम महिलाओं को ईश्वर ने जी भर कर प्रेम, संवेदना, धैर्य, करुणा, त्याग जैसी अनगिन भावनाएँ दी हैं लेकिन हौसला थोड़ा कम। शायद इसीलिए कि कहीं न कहीं भारतीय महिलाएँ पितृसत्तात्मक व्यवस्था के कारण उतनी नहीं निखर पातीं, जितनी उनके अंदर क़ाबिलियत होती है। हालाँकि अब वक़्त पहले से बहुत बदल गया है। हम सबके अंदर कोई न कोई ख़ूबी है। आप किसमें ख़ुश हैं, क्या करना चाहती हैं ख़ुद को खंगालें और निकालें ख़ुद को ख़ुद के भीतर से। ख़ुद से प्यार करें। ख़ुद पर एतबार करें। ताकि जब कभी अपने जीवन के पृष्ठ पलटें तो उस पर साफ़-साफ़ लिखा नज़र आये- ‘वेल डन डियर’।
– सोनरूपा विशाल