ज़रा सोचिए
मेरी नन्ही-सी परी
– प्रगति गुप्ता
सरकारी अस्पतालों की दिनचर्या के बारे में जितना सोचें, उतना ही लगता है कि हम बहुत कम सोच पाये हैं। इधर से उधर दौड़ते मरीज़ों के रिश्तेदार व परिचित, अस्पताल में बदहवास से ही नज़र आते हैं। किसी को दवाई लेने की जल्दी तो कोई डॉक्टर के आने की राह तक रहा होता है। कब डॉक्टर देखे और इलाज़ शुरू हो! तो दूसरी तरफ मरीज़ का इलाज पूरा हो जाने के बाद उसको छुट्टी दिलाने के लिए औपचारिकताएँ पूरी करवाने में जुटे मरीज के रिश्तेदार। इस भाग-दौड़ का सोचें तो जाने कितना कुछ स्वयं में बहुत कुछ कहता हुआ-सा लगता है।
उस दिन मुझे अपनी एक मित्र अलका की माताजी को देखने, अपने ही शहर के सरकारी अस्पताल में जाना था। वहाँ पर हुआ एक अनुभव न सिर्फ मुझे बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर गया बल्कि मेरी आँखों से नमी बनकर भी उतर आया। कई दिन लग गये मुझे उस दर्द भरे अनुभव के प्रभाव से निकलने में।
पोस्ट ऑपरेटिव वार्ड में आंटी को ऑपरेशन के बाद शिफ्ट किया गया था। पचास की उम्र में अत्याधिक रक्तस्त्राव होने से उनके बच्चेदानी का ऑपेरशन किया गया था। अस्पताल के प्रवेश द्वार से चलकर कई गलियारों को क्रॉस करके पोस्ट ऑपरेटिव वार्ड तक पहुँचने में, मेरा हर गलियारे में बैठे हुए मरीजों के रिश्तेदारों से सामना हुआ। लगभग सभी रिश्तेदार अपने-अपने बीमार रिश्तेदारों की परेशानियों से त्रस्त दिखाई दे रहे थे। उन सभी मरीजों का अवलोकन करते हुए मैं आंटी के पास पहुँची। उनकी तबीयत की जानकारी ली तो पता चला कि आंटी की तबीयत अब काफ़ी ठीक हो चुकी थी और वो पहले से काफ़ी बेहतर महसूस कर रही थी। उनके साथ थोड़ा समय गुज़ारने के बाद जैसे ही मैंने आसपास ऑपेरशन किये हुए मरीजों पर नज़र डालना शुरू किया तो पास ही के बेड पर क़रीब-क़रीब नौ-दस साल की बहुत ही प्यारी-सी बच्ची के हाथ और पाँव को बंधा देख, मेरे अंदर ही अंदर न जाने कितने प्रश्नों ने उमड़कर, मुझे बहुत कुछ जानने-पूछने को मज़बूर कर दिया।
“क्या हुआ होगा इस बच्ची को? क्यों इसको डोरियों से बाँध कर रखा है।” …बार-बार उमड़ता यही प्रश्न मुझे बैचेन कर रहा था। मैंने तब उस बच्ची के पास बैठी औरत से पूछ ही लिया-
“क्या हुआ है इस नन्ही-सी जान को? क्या लगती हैं आप, इस बच्ची की? अगर बुरा न मानें तो मुझे जवाब ज़रूर दीजिये।”
“अम्मा हूँ इसकी मैं। इसका नाम परी है बाज़ी। आज से नौ बरस पहले जन्मी थी मेरे घर। सुंदर इतनी कि परियों जैसी। इसके अब्बा और मैंने तभी सोच लिया था, इसका नाम परी रखेंगे। सोचा था ख़ूब पढ़ाएंगे इसको, बड़ा इंसान बनाएंगे पर सोचे से कुछ हुआ है क्या बाज़ी?
“इसके अब्बा और मैं, मजूरी करने को इधर-उधर फिरते हैं ताकि दोनों को पढ़ा सकें। छोटा भाई है न इसका, पहली कलास में पढ़ता है।”
“बाज़ी! इसके पैदा होने के दो-तीन बरस तक, हमको पता ही नहीं चला कि हमारी परी दिमाग से बहुत कमज़ोर है। हर कोई इसको बहला-फुसला कर अपने पास ले जाता और जब हम पूछते, यह कुछ भी बताने या कहने में सब भूल जाती थी। कभी-कभी असामान्य-सी हरकतें भी करती थी। सात-आठ साल की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते इसकी असामान्य-सी हरकतें बढ़ने लगीं तो हम दोनों का जी घबराने लगा था। तब हम इसे लेकर डॉक्टर के पास भागे। डॉक्टर भी क्या करते? जन्मजात बच्चो में आई हुई कमी कोई सुधार सका है क्या?….बाज़ी! हम लोगों के यहाँ चूल्हा भी, दोनों के काम पर जाने से ही जलता है, तो आप ही बताओ, परी की चौकीदारी कौन करता! लड़कीजात कोई भी इसकी मासूमियत से खेल सकता था न! कितनी ही बार घर, काम से लौटकर जब मैं अपनी परी को खोजती तो परी कभी किसी के यहाँ तो कभी किसी दूसरे के घर पर मिलती। हमारी बस्ती के सभी लोगों को, इसकी मानसिक स्थिति का पता चल गया था।….और बाज़ी! सच बताऊँ मुझे अक्सर ही कुछ अनजान से निशान इसके शरीर पर दिखते थे। बहुत डर लगने लगा था मुझे इसकी देखभाल को लेकर। कई-कई रातें मेरी जागते हुए कट जाती कि कल अगर मैं काम पर गई और मेरी परी के साथ कोई हादसा हो गया तो परी के साथ-साथ मेरी ज़िन्दगी को भी गरहन लग जायेगा बाज़ी।
“आप ही बताओ क्या मैंने ज़ुल्म किया है अपनी परी के साथ? इसकी बच्चेदानी डॉक्टर से सलाह कर निकलवा दी मैंने। किस-किस से बचाती मैं अपनी नन्ही परी को। मैं बहुत बेबस माँ हूँ बाज़ी, जिसने अपनी बेटी की मासूमियत को बचाने के लिये, भगवान से माफी माँग कर ही ऐसा काम किया है। आप बताओ न बाज़ी! गलत किया मैंने क्या? मैं सब सज़ा भुगतने को राजी हूँ पर नहीं भोगने दूँगी इसे, किसी ऐसे दरद को, जिसके लिए वो जानती भी नहीं…समझती भी नहीं।”
ऐसा बोलते-बोलते सुबकने लगी थी वो और मैं निःशब्द, कभी परी को तो कभी उसकी माँ को नम आँखों से निहार रही थी। बातों को सुनते-सुनते कब मेरा हाथ परी के बालों को सहलाने लगा, मुझे पता ही नहीं चला। परी का सिर अपने हाथों से जाने कब तक सहलाती रही, मुझे इसका भान ही नहीं रहा। जैसे ही सुध आई, परी की माँ के कंधे पर हाथ रख, उसके निर्णय पर अपनी सहमति जता, वहाँ से निःशब्द उठकर एक अनकहा-सा दर्द अपने में समेट, चुपचाप ही अस्पताल की सीढ़ियाँ उतरकर बाहर तो निकल आयी पर मेरा दिमाग़ भायँ-भायँ कर रहा था कि क्या हो गया है समाज को। लोगों की पाशविक प्रवृत्तियों को, जहाँ शरीर की भूख़ इंसान को पागल बना देती है और वो परी जैसी किसी मासूम को भी अपनी वासना का शिकार बना सकता है और जहाँ मासूम किसी मानसिक विकृति से ग्रस्त है इंसान की आत्मा उसको बिल्कुल नहीं कचोटती उसके किये के लिए! आदमी अपनी हवस के आगे इतना कायर हो जाता है कि एक माँ की ममता उसे अपने बच्चे की हिफ़ाज़त के लिए इतना बड़ा निर्णय लेने पर मजबूर कर देती है। न जाने कितने दिनों तक, नन्ही-सी परी और उसकी माँ मेरे हृदय को द्रवित करते रहे। आज भी जब यह ख़याल मेरे ज़ेह्न में आता है, मैं अपनी आँखों को नम होने से नहीं रोक पाती।
– प्रगति गुप्ता