धरोहर
मेरी खामोशी सबसे ज्यादा बोलती हैं ~ ‘पद्म भूषण’ निर्मल वर्मा !!
(03अप्रैल 1929 ~ 25अक्टूबर 2005)
“यूरोप में पूरब की आवाज़ की तरह रहे और उन्होंने हिंदी साहित्य में आधुनिकता का एक नया आयाम जोड़ा।” “वे अपने साथ पहाड़ों का बहुत ही खूबसूरत अनुभव लेकर आए थे, उनकी कहानियों ने पचास और साठ के दशक में हिंदी साहित्य जगत में धूम मचा दी थी।”- कमलेश्वर
‘परिंदे’ से साहित्य जगत में अपनी जगह बनाने वाले निर्मल वर्मा कोई नया नाम नही है। निर्मल वर्मा की कहानियां ही उनकी पहचान थी। अपनी गंभीर, भावपूर्ण और अवसाद से भरी कहानियों के लिए प्रसिद्ध रहे निर्मल वर्मा का जन्म शिमला में 3 अप्रैल 1929 में हुआ था। अपनी पूर्णत निजी लेखन शैली और आधुनिकता बोध के कारण निर्मल वर्मा को हिन्दी कहानी के सबसे प्रतिष्ठित नामों में गिना जाता है। उनकी लेखन शैली सबसे अलग और पूरी तरह निजी थी। अपनी गंभीर, भावपूर्ण और अवसाद से भरी कहानियों के लिए जाने-जाने वाले निर्मल वर्मा को आधुनिक हिंदी कहानी के सबसे प्रतिष्ठित नामों में गिना जाता रहा है। निर्मल वर्मा को भारत में साहित्य का शीर्ष सम्मान ज्ञानपीठ 1999 में दिया गया।
अज्ञेय के बाद शायद ही कोई ऐसा रचनाकार हिन्दी साहित्य को मिला हो, जो मन की इतनी गहराई तक जाकर लिखता हो, जितना निर्मल वर्मा। निर्मल के लिए साहित्य बहिर्जगत से ज़्यादा, कहीं अन्तर्जगत की वस्तु है। अपने मन में जाना अपने अनुभवों और स्मृतियों की दुनिया में जाना है। यह लौटना निर्मल वर्मा में बार-बार दिखाई पड़ता है।
निर्मल में गहरा बौद्धिक और आध्यात्मिक चिन्तन दिखाई पड़ता है। इस चिन्तन में जहाँ इतिहास है, वहीं निजी अनुभव भी। उनका चिन्तन भारतीय परम्परा-संस्कृति-दर्शन और पश्चिमी राग के द्वन्द्व को नयी दृष्टि देता है। इसका कारण शायद उनका निजी जीवन ही है।
हिन्दी भाषा में आधुनिक सार्वभौमिक चेतना को शब्द देने वाले प्रख्यात साहित्यकार निर्मल वर्मा की सौ से अधिक कहानियां कई संग्रहों में प्रकाशित हुई है, जिनमें ‘परिेंदे’, ‘कौवे’ और काला पानी’, बीच बहस में’, ‘धागे’, डेढ़ इंच उपर’, ‘लंदन की रात’, ‘जलती झाड़ी’ आदि प्रमुख हैं। ‘तीन एकांत’ उनका प्रसिद्ध नाटक है। ‘शब्द और स्मृति, कला का जोखिम, ढलान से उतरते हुए’ आदि उनकी साहित्य पर आलोचना की पुस्तकें है। ‘धुंध से उठती धुंध’ और ‘चीड़ों पर चांदनी’ उनके यात्रा वृतांत है, उन्होंने लेखन की इस विद्या को नये आयाम दिये।
उनके जीवन का अधिकांश समय विदेश में ही बीता है और उन्होंने पर्याप्त मात्रा में विदेशी साहित्य का अध्ययन और हिन्दी में अनुवाद किया है। उनकी कहानियों में इसका प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। वे स्वयं स्वीकारते हैं कि, वर्षों विदेश में रहने के कारण उनकी कहानियों में एक वीराने किस्म का प्रवासीपन छा गया है। इन सबके बावजूद वो प्रवासी अपनी आत्मा को भारतीयता से मुक्त नहीं कर पाता।
निर्मल लिखते हैं- “दुनिया की शायद ही कोई संस्कृति उसके स्वप्न की कल्पना कर पायी हो, जो अनन्त काल से भारतवासियों के जीवन-दर्शन की जमापूँजी रही है।” निर्मल ने स्वयं की एक अन्तर्दृष्टि विकसित की है, जिसके बारे में उनका मानना है कि, यह उन्हें पश्चिम में रहने के कारण मिली है।
निर्मल वर्मा की कहानियाँ अभिव्यक्ति और शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ हैं। हिन्दी कहानी में आधुनिक बोध लाने वाले कहानीकारों में निर्मल वर्मा का अग्रणी स्थान है। निर्मल वर्मा वैसे कुछ गिने-चुने साहित्यकारों की श्रेणी में रखे जाते हैं जिन्होंने अपने प्रत्यक्ष अनुभवों के आधार पर भारतीय और पश्चिम की संस्कृतियों के अंतर्द्वन्द्व पर गहनता एवं व्यापकता से विचार किया है।
‘रात का रिपोर्टर’, ‘एक चिथड़ा सुख’, ‘लाल टीन की छत’ और ‘वे दिन’ उनके बहुचर्चित उपन्यास हैं। उनका अंतिम उपन्यास 1990 में प्रकाशित हुआ था–अंतिम अरण्य। उनकी एक सौ से अधिक कहानियाँ कई संग्रहों में प्रकाशित हुई हैं जिनमें ‘परिंदे’, ‘कौवे और काला पानी’, ‘बीच बहस में’, ‘जलती झाड़ी’ आदि प्रमुख हैं।
‘धुंध से उठती धुन’ और ‘चीड़ों पर चाँदनी’ उनके यात्रा वृतांत हैं जिन्होंने लेखन की इस विधा को नए मायने दिए हैं।
निर्मल वर्मा को कहीं न कहीं यह बात कचोटती जरूर है कि आखिर भारत के आमजन में इस तरह का सांस्कृतिक अनुराग क्यों नहीं है। भारतीय क्यों नहीं अपने महान लेखकों को मुक्त ह्दय से याद कर पाते है। यद्यपि निर्मल वर्मा इसके कारण से भलीभांति अवगत थे।
सिर्फ हिंदी ही नहीं अंग्रेजी में भी निर्मल की अच्छी पकड़ थी। निर्मल वर्मा ने दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफेंस कालेज से इतिहास में एम.ए. किया और उसके बाद पढ़ाने लग गए। संयोग से उन्हें अपने भाई जो एक विख्यात चित्रकार थे, के माध्यम से उन्हें ओरिएंटल इंस्टीट्यूट के प्रसिद्ध विद्वान डॉ. क्रासा के अधीन 1959 में में चेकोस्लोवाकिया के प्राचीन विद्या संस्थान प्राग के निमंत्रण पर चेक उपन्यासों और कहानियों का हिंदी अनुवाद करने का निमंत्रण मिला था, उस समय निर्मल वर्मा राज्यसभा में अनुवादक के पद से त्यागपत्र देकर एक विदेशी शब्दकोश पर काम कर रहे थे। निर्मल ने चेक लेखक कैरेल चापेक, जीरी फ्राईड, जोसेफ स्कोवर्स्की और मिलान कुंदेरा जैसे लेखकों की कृतियों का हिंदी अनुवाद किया।
‘उतरी रोशनियों की ओर’ नामक स्मृतिखंड में संकलित चार यात्रा वृतांत निर्मल वर्मा द्वारा अपने आइसलैंडी मित्रों के साथ आइसलैंड की यात्रा के दौरान लिखी गई विस्तृत डायरी पर आधारित है। डायरी लिखने का सुझाव और आग्रह उनके यूरोपीय मित्रों का था। ये यात्रा वृतांत उनके संवेदनशील सूक्ष्म पर्यवेक्षण के साक्षी हैं। इन यात्रा वृतांतों में ऐसे बहुत से प्रसंग आते हैं जब उनका मन अनायास ही भारत और यूरोप की संस्कृतियों की तुलना करने लगता है।
1970 में निर्मल वर्मा वपास भारत आ गए और स्वतंत्र लेखन करने लगे तथा टाइम्स ऑफ इंडिया तथा हिंदुस्तान टाइम्स के लिए यूरोप की कई सांस्कृतिक और राजनीतिक समस्याओं पर लेख और रिपोर्ट लिखी। यूरोप से लौटने के बाद निर्मल वर्मा ‘इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ एडवान्स्ड स्टडीज’, शिमला में फेलो के तौर पर चुने गए। ‘साहित्य में पौराणिक चेतना’ विषय पर रिसर्च किया।
निर्मल वर्मा का साहित्य इन्हीं आधुनिक जीवन मूल्यों का वाहक साहित्य है जिसमें मनुष्य की स्वतंत्रता का पक्ष साफ–साफ उभरकर आता है। निर्मल वर्मा आधुनिक काल के उन कुछ गिने–चुने रचनाकारों में से है जिनकी दृष्टि कभी कमजोर नहीं हुई और न ही उन्होंने अपनी आँखों पर, इस समाज और संस्कृति को देखने के लिए, कोई चश्मा लगाया। अपनी स्वतंत्र मेधा में भरोसा रखते हुए उन्हाने सत्ता के छल, संस्कृतियों के संकट और व्यक्ति की यातना को स्वर प्रदान किया है।
निर्मल वर्मा वर्षों से भारतीय समाज में अपने कृतित्व और अपने जीवन के माध्यम से, एक लेखक का, लेखक की तरह रहने का अवकाश तलाशते रहे।, साहित्यिक कृतित्व के स्थान को निर्मित करने और उसकी वैधता की सिद्धी में एकाग्रता से लीन रहे हैं। इसे संयोग नहीं मानना चाहिए कि शायद वे उन विरले लेखकों में हैं जो अपना परिचय सिर्फ यह कह कर दे सकते हैं कि वे ‘लेखक’ हैं।
समकालीन मनुष्य का भयावह अकेलापन निर्मल वर्मा के लेखन के केन्द्र में रहा है। मानवीय भावनाओं और रिश्तों का सवाल साहित्य का केंद्रीय मुद्दा है। निर्मल वर्मा भी अपनी कहानियों को इन्हीं के इर्द-गिर्द बुनते हैं। वे अपनी डायरी में लिखते हैं- “मैं हमेशा अकेलेपन पर शोक करता रहा हूँ।” इसी शोक के कारण उनके चारो ओर गहन हताशा और अवसाद का जाल बुना हुआ दिखाई देता है। तनावों का यह संसार उनकी स्वयं की निर्मिति है। वास्तव में निर्मल वर्मा का लेखन इसी तनाव की उपज है। आत्मबोध का तनाव, आत्मा की मुक्ति का तनाव और अकेलेपन का तनाव। यह तनाव एक साथ आत्मिक भी है, मानसिक भी और शारीरिक भी। यह तनाव किसी ख़ास सामाजिक परिस्थिति या केवल व्यक्तियों के बीच में किसी अलगाव या ग़लतफ़हमी के कारण नहीं होता, बल्कि निर्मल मानते हैं कि मनुष्य रूप में जीना ही एक सतत् तनाव में जीने की प्रक्रिया है। अकेलेपन का यह भाव न कोई पशु महसूस कर सकता है, न कोई एन्जिल या देवता, जिस तरह से मनुष्य अनुभव करता है। स्मृतियों से इतने गहरे जुड़ाव के पीछे भी एक कारण है, निर्मल वर्मा के मन में बसा अकेलापन। व्यक्ति जब अकेलेपन से पीड़ित होता है, तो अतीतजीवी हो जाता है।
वीरान हॉस्टल में अकेली बैठी ‘परिन्दे’ की लतिका हो, अस्पताल के कमरे में अपने अकेलेपन से मुक्ति की छटपटाहट लिए ‘बीच बहस में’ के पिता-पुत्र हों, ‘कव्वे और काला पानी’ के साधू बाबा हों या ‘अँधेरे में’ का बच्चा; सभी अपने-अपने तरीके से इसी भाव में जी रहे हैं। सबका अपना अलग-अलग अकेलापन है, और ये पात्र अकेलेपन से भागते नहीं, बल्कि इसका आनन्द लेते हैं।
निर्मल वर्मा की कहानियों में प्रेम भी इसी अकेलेपन की विडम्बना के साथ आता है। नन्दकिशोर आचार्य कहते हैं- “प्रेम करते हुए भी इस अकेलेपन से मुक्त न हो पाना और मुक्ति के लिए छटपटाहट तथा अपने प्रयास की दुखान्त परिणति के बोध की वेदना ही निर्मल की कहानियों का केन्द्रीय सरोकार है।” निर्मल वर्मा का चिन्तन इसी वेदना और आत्मबोध की यात्रा है।
उनके लेखन में मानवीय मन को खोजने का यह सिलसिला निरन्तर जारी रहता है। अपने उपन्यास ‘रात का रिपोर्टर’ में एक स्थान पर वे लिखते हैं- “……… मन के मानचित्र पर जो इतने विराट महाद्वीप अँधेरे में पड़े रहते हैं, क्या उन्हें खोजने वाला कोई कोलम्बस नहीं..?” वास्तव में निर्मल वर्मा ही वह कोलम्बस हैं, जो उदास और ख़ामोश रहकर अपने भीतर के अवसाद आनन्द को लगातार खोजते रहते हैं।
अपने निधन के समय निर्मल वर्मा भारत सरकार द्वारा औपचारिक रूप से ‘नोबेल पुरूस्कार’ के लिए नामित थे। भारत सरकार ने 2002 में साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण से उन्हें सम्मानित किया था। 1998 में ब्रिटेन के प्रकाशक रीडर्स इंटरनेशनल द्वारा उनकी कहानियों का संग्रह ‘द वर्ल्ड एल्सव्हेयर’ प्रकाशित हुआ था। निर्मल वर्मा की कहानी ‘माया दर्पण’ पर फिल्म बनी थी जिसे 1973 का सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फिल्म का पुरस्कार दिया गया था।
– नीरज कृष्ण