उभरते-स्वर
मेरा ही अक्स
रिश्तों की परिपक्वता
और रिक्तता को समेटा मैंने
पाया एक नन्हीं परी
कभी रंग मेंहदी-सी
समेटती कभी सतरंगी चुनर
गुम होती कविताओं में
कभी बेतरतीब-सी ग़ज़ल
मंदिर की घंटी में
कभी घर की देहरी पर
खट्टी-सी इमली की
कभी चटकारी
बारिश की हल्की फुहार
मिट्टी की सौंधी-सी खुशबू
उसे फिक्र नहीं थी
किसी की भी
घुली थी इत्र की
हर छींट पर
मस्ती से सराबोर
कहाँ खो गई वो?
सोचती हूँ
क्या अब भी वो
गुनगुनाती होगी?
पर्दे के पीछे से ग़ज़ल
क्या अब भी बजती होगी?
जब-तब मंदिर की घंटी
मिले कभी तो
ज़रा कहना उसे
खनकने को बेताब
डिब्बे में बंद पड़ी पायल
बेजान-सी कोरी दीवार
तेरे अटपटे चित्रों से
सजने को है तैयार
कहाँ गुम हो गई हो तुम?
हौले-हौले
दबी-सी आवाज़ों में
लोगों को कहते सुना है
वो मेरा ही अक्स है
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एक तूफ़ान हूँ मैं
वह बाँध कर जोड़ती है
सृजन्ती है, अपने कोमल हाथों से
जानते हो क्यों..?
क्योंकि उसे ज्ञात है
टूट कर बिखरना क्या होता है
तभी तो उसका भव्यतम सृजन
मानव अस्तित्व का आधार है
वह चिर भविष्य है
वह कर्म नहीं कर्ता है
समर्थ है, दधीचि का वज्र है
वह अनुरक्ता है, दिग-दिगन्त है
इस पंच तत्व को सलाम
उसकी श्रेष्ठतम कृतियाँ
उसके नित नये
संघर्ष में निहित हैं
उसकी सफलता के बीज
उसकी पराकाष्ठा
अवरोधों में समायी है
उसकी सराहना
हृदय की असहनीय पीड़ा में से टूटेगी
वह डटी रहेगी
क्योंकि वह दावानल है
कलश की
इस प्रलयंकारी दुनिया ने
कभी स्थायी तूफ़ान नहीं देखा
वह नियति नटी का नर्तन
एक नारी है
एक अबला का शंखनाद
एक क्रांतिधात्रि का मौन शब्द
नव वसंत की मादकता
शरद की अल्हड़ता
वह स्वयं केंद्र परिधि
उसने कहा-
मैं वो हूँ जो…….!
हर भीषण अवरोध ने कहा-
“मैं नहीं हूँ”
उस एक उफनती
लहर को सलाम
– मल्लिका रुद्रा