स्मृति
मृत्यु को जैसे कोई आकार मिल जाये
राजस्थान की प्रतिष्ठित कवयित्री सावित्री डागा जी का पिछले दिनों स्वर्गवास हो गया। हिन्दी विभागाध्यक्ष एवं आचार्य पद पर शोभायमान रहीं सावित्री डागा जी ने भरपूर लेखन किया और ख़ूब नाम कमाया। इनके अनेक कविता संग्रह प्रकाशित हुए, जिनमें राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत कृति ‘सन्दर्भों से कटे हुए’ भी शामिल है। इसके अलावा इन्होंने कई पुस्तकों का संपादन भी किया। इनकी संपादित पुस्तकों में ‘माटी की सुवास’ प्रमुख है। सावित्री जी महिलाओं की साहित्यिक संस्था ‘संभावना’ की संस्थापिका एवं अध्यक्ष रहीं। इनका जन्म 10 मार्च 1938 को बीकानेर में हुआ।
हस्ताक्षर परिवार इनकी कुछ कविताओं के माध्यम से इन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करता है।
अजनबी मैं
अजनबियों की भीड़-सी यह ज़िन्दगी
आदमी की तरह जीने का अहसास नहीं करने देती
आँखें, आँखों को देखती तो हैं
पर छूती नहीं
हाथ, हाथों को छूते तो हैं
पर सम्बल नहीं देते
न जाने कितनी बार एक दिन में, मैं
मुस्कान की लिपस्टिक अधरों पर लगाती हूँ
और वह बार-बार धुल जाती है
न जाने कितनी बार
इन बुझती आँखों में, मैं
ख़ुशी की चमक का काजल आँजती हूँ
पर वह बार-बार बह जाता है
इस तरह मैं
ज़िन्दगी के नाटक का स्वांग करते-करते
स्वयं के लिए भी अजनबी बन चुकी हूँ
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ख़ुशी का एक दिन
श्वेत कबूतर-सा पंख फड़फड़ा कर
फुर्र से उड़ गया
ख़ुशी का एक दिन!
रात श्यामल कोकिल-सी
कुहु-कुहु का मधुर आलाप छेड़
एक पलक झपकते ही न जाने कहाँ छिप गयी!
गूँजती रह गयी कुछ मधुर प्रतिध्वनियाँ
उभरता रहा अन्तर में
एक उजला-सा सुखद बिम्ब
और फेनिल ज्वार
सुधियों की फाइल में एक पृष्ठ और
आलपिन से जुड़ गया
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मानव का मन
मानव का मन
एक गुलाब के पौधे-सा
जिसमें सुख-दुःख-सी कोमलता-कर्कशता
साथ-साथ रहती हैं
जिसमें कोमलता कभी फूल बनके खिलती है
भरी हुई रहती है स्नेह की सुवास भी
हरी-हरी कटावदार पत्तियाँ
व्यापक विश्वास-सी, क्षमता-सी, शुचिता-सी
ढाँक-ढाँक देती हैं कटुता के शूलों को
ईर्ष्या, घृणा, क्रोध, द्वेष के जो काँटे हैं
कभी-कभी पत्तियों को छेद भी तो देते हैं
फिर भी मुस्काती है चुभते-से शूलों में
क्षण भंगुर जीवन-सम बिखरते-से फूलों में
आशा-सी पिपासा-सी
कोमल-सी नव कलिका
– सावित्री डागा