यात्रा-वृत्तान्त
मुम्बई दर्शन
मुम्बई यात्रा के इस पड़ाव में एलीफेंटा केव्स तक जाने के लिये ‘गेटवे ऑफ इंडिया’ नामक धरोहर से ही हमने अपनी जल-सवारी ली थी तो इसके विषय में बताना भी अत्यावश्यक है।
‘गेटवे ऑफ इंडिया’ स्मारक को यदि मुम्बई नगरी का महत्वपूर्ण व प्राचीन लैंडमार्क कहूँ तो ग़लत न होगा। आज यह भारत के सबसे महत्वपूर्ण स्मारकों में से एक शक्ति और शांति का प्रतीक है।
किसी भी ऐतिहासिक जगह पर घूमने से पहले यदि उसका इतिहास थोड़ा भी पता रहे तो घूमने का आनन्द दोगुना हो जाता है। चलिए फिर बताती हूँ…इस धरोहर के विषय में भी और इसके बाद जूहू-चौपाटी बीच पर चलकर भेलपुरी भी खायेंगे।
इतिहास की तारीखों वाली जानकारी स्पीकिंग ट्री के डाटा के सौजन्य से आप तक पहुँचा रही हूँ क्योंकि गाइड की बातें इतने सालों बाद धुंधली-सी हो चुकी हैं मगर भाषा और शब्दों की माला मेरी ही है।
इस धरोहर के निर्माण की मंशा के पीछे का उद्देश्य था- ‘किंग जॉर्ज पंचम’ और ‘क्वीन मैरी’ की यात्रा। गेटवे ऑफ इंडिया, दिसंबर 1911 में किंग जॉर्ज और रानी मैरी की मुंबई यात्रा की याद के उपलक्ष्य में बनवाया था।
गेटवे ऑफ इंडिया की नींव 31 मार्च, 1911 को बंबई के राज्यपाल सर जॉर्ज सिडेनहैम क्लार्क ने रखी थी। जॉर्ज विट्टेट ने 31 मार्च, 1914 को अंतिम डिजाइन को अप्रूव कर मंजूरी भी दी और इसकी नींव भी तभी रखी गयी। कहते हैं दिल्ली दरबार से भी पहले गेटवे ऑफ इंडिया का निर्माण हुआ था।
उस वक़्त निर्माण प्रारंभ न हो सकने के कारण किंग जॉर्ज और रानी मैरी संरचना का एक आर्किटेक्चरल ब्लूप्रिंट भर ही देख पाये थे। इसकी इमारत का नक्शा एक प्रवेश द्वार के जैसा था अर्थात् समुद्री मार्ग से भारत आते आगंतुकों के लिए विशाल प्रवेश द्वार।
अमूमन 1915 में इसका निर्माण शुरू किया जा सका। गेटवे ऑफ इंडिया की इमारत को पीले बेसाल्ट और प्रबलित कंक्रीट द्वारा बनाया गया। इसके केंद्रीय गुम्बद का व्यास 15 मीटर है और यह ज़मीन के ऊपर 26 मीटर की ऊंचाई तक है।
1915 और 1919 के बीच अपोलो बंदरगाह पर काम शुरू हुआ, जहाँ पर गेटवे ऑफ इंडिया और नई समुद्री दीवार का निर्माण किया गया। इसकी नींव का काम 1920 में पूरा किया गया और निर्माण 1924 में समाप्त हो गया था। सुनने में आया है कि उस वक़्त के अनुसार आँका जाये तो इसके निर्माण में सरकार द्वारा लगभग 21 लाख रुपयों का निवेश किया गया था।
गेटवे ऑफ इंडिया, 4 दिसंबर, 1924 को वायसराय द्वारा खोला गया। यही इसका स्थापना दिवस भी बन गया। गेटवे के चार बुर्ज हैं, जिनको जटिल जालीदार नक्काशी के साथ बनाया गया था। छत्रपति शिवाजी और स्वामी विवेकानंद की प्रतिमाएँ गेटवे पर बाद में स्थापित की गयीं।
भारत के सबसे लोकप्रिय धरोहरों में से एक ये जगह दुनिया भर से पर्यटकों को बहुत आकर्षित करती है। कई फोटोग्राफरों, विक्रेताओं, हॉकर्स के लिये ये व्यवसाय का, रोज़ी-रोटी का ठिकाना है। ये जगह हमेशा पर्यटकों और सामान्य भीड़ से भरी होती है। ये देश के प्रमुख बंदरगाहों के लिए एक मुख्य केंद्र के रूप में भी संचालित है।
यहाँ देर तक बैठकर कॉफी के लहरों को घोलकर पीने के बाद होटल लौट गये। अगली सुबह या कहूँ दोपहर (क्योंकि दूसरी फैमली देर तक सोने में एक्सपर्ट थी) को जूहू बीच, चौपाटी तक जाना और बाज़ार वगैरह यूँ ही बिना गाइड के गेड़ी मारते हुए घूमने थे।
अगली सुबह की रंगत होटल से जल्दी निकलने पर ही खिलती तो कोशिश वही रही। टैक्सी घूमते-घुमाते बीच तक ले गयी। चौपाटी से पहले कोई पार्क भी देखा था, जिसमें एक बड़ा-सा सीमेंट का जूता वाली स्लाइड थी। फैशन स्ट्रीट और पता नहीं टैक्सी किधर-किधर ले गयी।
जूहू-चौपाटी इससे पहले तक बस फिल्मों में सुना था। वहाँ साक्षात् पहुँचकर बस ऐसे लगा कि कोई सपना साकार हो रहा हो। भीड़ बहुत थी और रेहडिय़ों पर कतारें भी खूब। पहले भरपूर समुद्र को निहारने, छूने और बोल कबड्डी करने में वक़्त की धमा-चौकडी चलती रही। फिर वहाँ भेलपुरी खाने और कोल्ड ड्रिंक्स वगैरह में जीभ की मसालों के संग हु तू तू चलती रही। फोटो-वोटो खींच-खिंचाकर हम लोग फिर समुद्र के किसी किनारे पर पहुँचे। पत्थरों की मोटी रेलिंग थी वहाँ लेकिन उस रेलिंगनुमा दीवार पर खड़े होते ही जो देखा, वो क्षण आज तक न भुला सकी। रह-रह कर आज भी वो नवजात शिशु का पानी में उल्टा तैरता शव विचलित कर जाता है।
दूधिया नग्न शरीर और सियाह काले केश। अजीब-सी हिकारत भर गयी मन में कि ऐसे कैसे एक अंग खुद से विलग कर तिरोहित कर दिया जाता है। उसे मिट्टी में मिल जाना भी नसीब नहीं क्या?
इस ख़ुशनुमा दिन का ऐसा अंत कभी सोचा ही नहीं था, जिसे आज तक भुला नहीं सकी हूँ।
इसीलिए कहती हूँ, यात्राएँ जीवन के उन रंगों को भी दिखाती हैं, जो हमने अपने-अपने सुरक्षा-कवचों में कभी नहीं देखे थे।
अगला पड़ाव हम औरंगाबाद डालेंगे। तब तक कोरोना से सुरक्षित रहें। स्वस्थ रहें और लॉकडाउन के नियमों का पालन करें।
– प्रीति राघव प्रीत