आलेख
मुक्तिबोध एक विमर्श: डॉ. प्रतिभा पाण्डेय
मुक्तिबोध मार्क्सवादी थे लेकिन किस तरह के मार्क्सवादी? क्योंकि मार्क्सवाद भी एक नहीं। भारत में जो मार्क्सवाद प्रचलित था, कम से कम मुक्तिबोध के समय तक वह सोवियत संघ से छनकर पहुँचा था। मुक्तिबोध उससे संतुष्ट न थे, जो उन्हें भारतीय या सोवियत स्त्रोतों से प्राप्त हुआ। मुक्तिबोध के समकालीन मार्क्सवादी लेखकों में वे संभवतः अकेले थे, जो उस समय के मार्क्सवाद या साम्यवाद के साथ साहित्य और कला के द्वन्द को समझने का प्रयास कर रहे थे।
साम्यवादी आलोचना से पूंजीवाद को बौद्धिक बल न मिले, यह चिन्ता मुक्तिबोध को सता रही थी। सामाजिक न्याय, समता और प्रत्येक मानवोचित गौरव की स्थिति का आदर्श यही लक्ष्य है, किसी भी हालात में पूंजीवादी समाज को सुरक्षित रखने के इरादे से राजनैतिक युद्ध करने वालों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं होना चाहिए।
मुक्तिबोध स्वयं कविता और साहित्य में साहसी प्रयोग कर रहे थे। स्वतंत्रता मुक्तिबोध के लिए मूल्यवान है, ‘अंधेरे में’ की उनकी यह पंक्तियाँ-
स्वातंत्र्य व्यक्ति का वादी
छल नहीं सकता मुक्ति के मकान को
जन को
हिन्दी में मुक्तिबोध को व्यक्ति स्वतंत्रता के पक्षधर माने गए अज्ञेय के समतुल्य माना गया। मुक्तिबोध उस समय लम्बी कविताएँ लिख रहे थे, जब छोटी कविताएँ लिखी जा रही थीं। पाठकवर्ग भी छोटी कविताओं को ही पसन्द कर रहा था। उनका द्वन्द छायावादी भाषा से था। उन्होंने छायावादोत्तर भाषा पर ध्यान नहीं दिया।
मुक्तिबोध की कविताओं में किसी पौराणिक या ऐतिहासिक आख्यान का दृष्टव्य नहीं है। उनकी कविता में स्त्री और प्रकृति के मनोरम दृश्य नहीं हैं। लेकिन वह है जिसकी आज सबसे अधिक आवश्यकता है, क्योंकि सब कुछ प्राप्त करके व्यक्ति मानवीयता को परे रखता जा रहा है। समय का अभाव है, दूसरे के लिए समय नहीं है। ऐसी मानवीयता से भरी ऊष्मा से पूरित कविता मुक्तिबोध ने रची है। उनकी व्यापक चिन्ता गहरे सरकारों से मानवीय ऊष्मा कविता से प्रकट होती है। मुक्तिबोध परिणति नहीं प्रक्रिया के कवि हैं। मुक्तिबोध पीड़ा के कवि हैं, जिसे संसार में करूणा दिख रही है। पूरे समाज के लिए चिन्तनीयता उनकी दृष्टि में हैं-
जो कुछ है उससे बेहतर चाहिए,
दुनिया को साफ करने के लिए मेहतर चाहिए।
तारसप्तक में मुक्तिबोध ने स्वयं कहा है- “मेरी कविताएँ अपना पथ खोजते बेचैन मन की अभिव्यक्ति है। उनका सत्य और मूल्य उसी जीवन स्थिति में छिपा है। मुक्तिबोध की कविता का आरंभ छायावाद का शिखर युग था। इस समय निराला और पंत जैसे छायावादी भी तब मार्क्सवाद में रूचि ले रहें थे। मुक्तिबोध का रूझान भी इसी तरफ बढ़ना स्वाभाविक था।
प्रत्येक रचनाकार की रचना का अपना विशिष्ट व्यक्तित्व होता है, जो अन्य रचनाकार से भिन्न होता है। मुक्तिबोध की रचनाएँ भी वैशिष्यपूर्ण हैं। मुक्तिबोध ने पूंजीवाद और पूंजीवादी व्यवस्था से असंतुष्ट होकर लिखा-
तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ, तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ।
पूंजीवादी समाज यानि वर्तमान समाज की आलोचना मुक्तिबोध की इन पंक्तियों में है। कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ वर्तमान समाज में मैं चल नहीं सकता। पूंजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता। निराला जी ‘वह तोड़ती पत्थर’ में श्रमशील नारी के संघर्ष का चित्र उकेरते हैं तो मुक्तिबोध श्रमशील नारी के जीवन-संघर्ष से आत्मसंघर्ष की प्रेरणा ग्रहण करते हैं। यदि उस श्रमशील नारी की आत्मा सब अभावों को सहकर/ कष्टों को लात मार, निराशाएँ ठुकराकर किसी ध्रुव लक्ष्य पर खिंचती-सी जाती है। जीवित रह सकता हूँ मैं भी तो वैसे ही। कवि इस मेहनतकश वर्ग के साथ अपने व्यक्तित्व का तादात्म्य करना चाहता है, अपनी निम्न मध्यमवर्गीय सीमाओं को अतिक्रांत करके नए सिरे से जीवन को समझना और जीना चाहता है। “पल भर में सब में से गुजरना चाहता हूँ, प्रत्येक उर में से तिर आना चाहता हूँ……….।”
विरोध सार्वजनिक होना चाहिए। एकांत के विरोध का कोई मूल्य नहीं है। शोषण परम्परा से मुक्ति सबके साथ चलने में है अकेले में नहीं, याद रखो कभी अकेले में मुक्ति न मिलती, यदि वह है तो सबके साथ ही है। समाज के लिए भी उनका प्रश्न भी है-
बशर्ते तय करो, किस ओर हो तुम,
अब सुनहले ऊर्ध्व आसन के दबाते पक्ष में
अथवा उससे कहीं लुटी टूटी,
अँधेरी निम्न कक्षा में तुम्हारा मन, कहाँ हो तुम?
मुक्तिबोध की कविता भविष्य के भविष्य तक झाँक सकती है। कोई कर रहा होगा, ऐसा अस्त्र आविष्कार निःसंदेह। जिसके तड़िन्मय परमाणुओं में से, मधुर आत्मीय कोई वायलिन स्वर और उसकी हर लहर में से उभरता एक ज्ञानावेश दीपित स्वप्न। मुक्तिबोध लिखते हैं- “आज संस्कृति का नेतृत्व उच्च वर्गो के हाथों में है, जिनमें मध्य वर्ग भी शामिल है। संस्कृति का नेतृत्व करना जिस वर्ग के हाथों में होता है, वह समाज और संस्कृति के क्षेत्र में अपनी भावधारा और अपनी जीवन-दृष्टि का इतना अधिक प्रचार करता है कि उसकी एक परम्परा बन जाती है।
गजानंद माधव मुक्तिबोध नई कविता में वामपंथी धारा के शीर्षस्थ और हिन्दी के भी शीर्षस्थ कवियों में आते हैं। इनकी रचनाओं में स्वाधीन चेतना, मौलिक विचार सम्पन्नता वास्तविक सामाजिक चिन्ता प्रकट करती है। निबंध,आलोचना, कथा, काव्य में महत्वपूर्ण उपलब्धि हैं। इनकी कविताएँ लम्बी हैं किन्तु संश्लेषण प्रधान शिल्प से पूर्ण हैं।
– डाॅ. प्रतिभा पाण्डेय