मूल्याँकन
मुंबई पज़्ज़ल: सपने ही नहीं, संवेदनाओं और ज़िंदगी की तलाश करता एक आधुनिक उपन्यास
– तेजस पूनिया
बैकग्राउंड में कबीर के निर्गुण भजन बज रहे हैं और दैनिक दिनचर्या में व्यस्त अचानक फोन आया। अमेजन से डिलीवरी थी। खोला तो संजीव श्रीवास्तव का उपन्यास हाथों में, पढ़ना शुरू किया तो खाना-पीना कुछ ध्यान नहीं रहा। कॉलेज, यूनिवर्सिटी में जब प्रोफेसर बोल-बोल कर थक जाते थे तेजस लेखन से पहले पढ़न-पाठन करो। हालत ये कि ये रिव्यू, वो फ़िल्म, वो आर्टिकल और अब कुछ दिन से किताबों में व्यस्त। एक दिन में ही कहानी, उपन्यास को खत्म करने की जद्दोजहद उससे भी ज्यादा जद्दोजहद उसे पढ़ने, गुनने की, समझने की। ख़ैर बात मुंबई puzzle उपन्यास के लेखक की करूँ तो लेखक सहारा समय, जैन टीवी आदि के लिए रिपोर्टर का काम कर चुके हैं। अभी स्वतंत्र लेखन और पिक्चर प्लस नाम से साइट चलाते हैं और जल्द ही कुछ अन्य कृतियाँ भी प्रकाशित होने वाली है। लेखक के बारे में इतना ही।
पहले पहल तो इस उपन्यास का नाम ही कुछ पज़ल करने वाला है। आधा हिंदी आधा अंग्रेजी। इस तरह के नाम बहुत कम देखने को मिले मुझे। ऊपर से इसका कवर पेज। कवर पेज को ध्यान से देखने पर समझा जा सकता है कि कहानी संगीत की दुनिया से जुड़ी होगी या फ़िर मुंबई में कुछ परेशान हाल लोगों की कहानी। उपन्यास में कई सारे स्थान हैं। जैसे फ़िल्म में कई सारे सन् या साल लगे होते हैं।
उपन्यास की कहानी शुरू होती है दिल्ली के एयरपोर्ट से, फ़्लैशबैक में। जहाँ चार यार कलाकार मुंबई से लौटे हैं। दिल्ली उतरते ही पता चलता है प्रिंसिपल टी०पी० रॉय अब इस दुनिया में नहीं हैं। ख़बर अख़बार में नहीं छप पाती किसी कारण। उन्हें सूचना मिलती है जस्टिस आलोक वर्मा के सन्देश से। चार यार कलाकार रोहन, रंजीत, रेनू, रैना मुंबई से अपनी जिंदगी सफ़ल करके लौटते हैं। लेकिन ये सब पता चलता है उपन्यास खत्म होने पर। फ़्लैशबैक से निकल कहानी पहुँचती है मुंबई। उससे पहले दिल्ली के मयूर विहार में कहानी घूमती है। जहाँ चार कलाकारों को गाने का जुनून है। जुनून इस हद तक की वे सपनों की नगरी मुंबई में अपने सपनों को पंख देना चाहते हैं। लेकिन इससे पहले कॉलेज के वार्षिकोत्सव में उनकी सिंगिंग परफॉर्मेंस पर खूब आलोचना होती है। कॉलेज की प्रसिद्धि एक मिनट में अर्श से फ़र्श पर पहुँच जाती है। चार यार कलाकार आपस में भी इतने खुले हुए हैं कि उनके बीच दैहिक सम्बन्ध भी बिना हिचक बन जाते हैं। जितने पहनावे से आधुनिक उतने ही व्यवहार, बोलचाल और एटीट्यूड में भी। ख़ैर आलोचना के बाद कॉलेज से, घर से वे निकाले जाते हैं। कुछ दिन दिल्ली रहने के बाद मुंबई की और रुख करते हैं।
बांद्रा रेलवे स्टेशन से शुरू होता है उनकी जिंदगी का असल संघर्ष। यहाँ से संघर्ष की दास्तान के साथ-साथ मानवीय क्रूरता, बदले, इस्तेमाल, सपने, संवेदनशीलता का ऐसा मसाला पाठक को मिलता है कि वह उपन्यास को पूरा किए बिना छोड़ ही नहीं पाता। हालांकि किसी एक फ़िल्म की कहानी से तुलना करना व्यर्थ होगा लेकिन इसे पढ़ते समय आपको इतनी फ़िल्मी सीन या उनकी एक स्क्रीन दिमाग में चलने लगती है की आप मजबूर हो जाते हैं सोचने पर किस फ़िल्म से जोड़ें। ख़ैर फिल्मों का कीड़ा है मेरे तो हर कहानी, उपन्यास को फ़िल्म से जोड़ ही लेता हूँ। बांद्रा से शुरू हुआ सफ़र धारावी, मीरा रोड़, अँधेरी फिर मीरा रोड़ की तरफ़ तेजी से भागती है। कई बार लगता है कि इतने मोड़ क्यों? लेकिन इतने मोड़ और स्थान आपको विचलित नहीं करते। उत्सुकता जगाते हैं कि अब क्या होगा? उपन्यास के अंत तक आते आते जरूर पाठक बोर होने लगता है या यों कहें उसे समझ आ जाता है सुखद अंत होना है। या क्या घटित होने वाला है इसलिए भी यह बोरियत महसूस हो सकती है। ठीक ऐसे ही उपन्यास की शुरुआत में भी लगता है कि क्या है ये सब। एकदम धीमी गति। चूँकि लेखक स्वयं फिल्मी दुनिया के काफी करीब रहे हैं और उससे ताल्लुक रखते हैं। इसलिए भी ऐसा लेखन में घटना स्वाभाविक हो सकता है। उपन्यास में फिल्मी भाषा में कहूँ तो रोमांस है, संवेदनशीलता है, मानवीयता है, ड्रामा है, एक्शन है और हल्का फुल्का थ्रिल है तो बलात्कार की कहानी और बलात्कारियों को फांसी लगने के सीन भी।
उपन्यास के चार यार कलाकार के अलावा कई सारे पात्र हैं। चार यार कलाकार सम्पन्न परिवार से हैं। एक के माता-पिता डॉक्टर हैं तो दूसरे के प्रसिद्ध आर्किटेक्चर तो तीसरे के पहुँचे हुए सुप्रीम कोर्ट के जज और चौथे के पिता ख्यातनाम कारोबारी। इस पुस्तक समीक्षा को लिखते समय फिल्मों की समीक्षा करने जैसा मोह नहीं छोड़ पा रहा चाह कर भी। दरअसल मुंबई पज्जल का अर्थ उपन्यास के लगभग अंत में समझ आता है कि यह चार यार कलाकार का बनाया गीत है जिसे लेकर वे दर-दर डायरेक्टर, प्रोड्यूसर के भटकते हैं। लेकिन कोई उन्हें भाव नहीं देता। इसी बीच बावला, अशोक गुलाटी, यश देसाई, गुरु गोयल, नमन, नमिता का पूरा गैंग उन्हें एक साजिश के तहत फँसाता है। ये गैंग मुंबई में फ़िल्मी दुनिया में राज करने के इरादे और सपनों को लेकर संघर्ष करने वाले लोगों की जिंदगियों को तहस- नहस कर खुद चाँदी काटते हैं। रेनू और रैना का कास्टिंग काउच भी होता है। सीडी बन जाती है। जब यह सीडी रोहन और रंजीत के हाथ लगती है तो वे उनसे अलग हो जाते हैं। सीडी को लेकर भी फिल्मी ड्रामा सा उपन्यास में क्रिएट किया गया है। फिर गौरव के सम्पर्क में आने से रैना और रेनू गौरव के पत्रकार मित्र रितेश सक्सेना की मदद से इस गैंग का पर्दाफाश करते हैं। उपन्यास के अंत में चारों यार कलाकारों के माता पिता मुम्बई आकर उन्हें अपने साथ ले जाते हैं।
उपन्यास में कुछ एक जगह वाक्यगत और लिंगगत भी अशुद्धियाँ हैं लेकिन ये अशुद्धियाँ पाठक को कचोटती नहीं। उपन्यास के कुछ एक अंश समीक्षा स्वरूप देना गलत होगा क्योंकि उससे मेरा व्यक्तिगत मानना है कि कहानी समझ नहीं आएगी और दूसरा अटपटा सा भी होगा। पूरी कहानी इस तरह बंधी हुई है कि चाहकर भी किसी एक अंश को आप चुन नहीं सकते। फिल्मी कहानी जरूर है उपन्यास की किंतु फिल्मी डायलॉग नहीं। उपन्यास की कहानी सी और बी ग्रेड की फिल्मों की भी याद स्वतः दिलाती चलती है।
उपन्यास :- मुंबई पज़्ज़ल
लेखक :- संजीव श्रीवास्तव
प्रकाशक :- अनन्य प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य :- 150
– तेजस पूनिया