धरोहर
मीरा का जीवन दर्शन !!
जीवन और दर्शन का अतीव घनिष्ठ संबंध है। दर्शन जीवन का आधार है, तो जीवन दर्शन का प्रधान वर्ण्य विषय है। दोनों की सत्ता एक दूसरे पर आश्रित है। मनुष्य के जीवन के प्रत्येक स्तर पर दर्शन का प्रभाव होता है। अन्वेषणोपरान्त दर्शन प्रदत्त सत्य जब जीवन को प्राप्त होता है तो जीवन और दर्शन का अतीव घनिष्ठ संबंध है। अन्वेषणोपरान्त दर्शन प्रदत्त सत्य जब जीवन को प्राप्त होता है तो जीवन उसे व्यवहार में लाता है और प्रयोगोपरान्त प्रस्तुत होने वाले प्रश्नों को पुनः विचारार्थ दर्शन को सौंप देता है। जीवन को सदा उसके दर्शन रूपी हृत्पिण्ड से पल-पल विचारों की, जीवन के शाश्वत मूल्यों की शृंखला प्राप्त होती रहती है। इसी में जीवन की सत्ता है, अस्तित्व है, उपयोगिता है। सतत क्रियाशील इस प्राणदायिनी प्रणाली के अभाव में न तो दर्शन का अस्तित्व रहता है और न जीवन का। अतः जीवन को सचेष्ट, सक्रिय और सजीव बनाये रखने में दर्शन की परम भूमिका होती है।
प्रेम की पीर और विरह वेदना की अमर गायिका मीरा का कृष्ण भक्ति शाखा के साधकों और कवियों में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। कृष्ण-प्रेम की कसक आज भी उसके विरह-गीतों के बोलों में कसक-कसक कर सहृदयों, संगीतकारों की हृदय की धड़कनें बढ़ा देती है। वास्तव में ‘प्रेम की पीर’ और कृष्ण विरह की अनवरत धड़कन का नाम ही मीरा है। ‘नरसीजी का मायरा’, ‘गीत-गोविन्द की टीका’, ‘मीरानी गरबी’, ‘रास गोविन्द’, राग सोरठ के पद और ‘मीरा के पद’ आदि मीरा की प्रमुख रचनाएँ मानी जाती हैं। इन रचनाओं के आधार पर मीरा का जीवन और दर्शन का हमें परिचय मिलता है।
मीराबाई दर्शन, विचार और उपासना के प्रत्येक क्षेत्र में भिन्न दिखाई देती है। यद्दपि मीरा की भक्ति किसी विशिष्ट सम्प्रदाय या दार्शनिक मतवाद की सीमा में नहीं बँधती, पर उनकी रचनाओं पर नाथपंथ, संतकाव्य, पुष्टि मार्ग, चैतन्य सम्प्रदाय, भागवत की नवधा भक्ति आदि का आंशिक प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है। डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थवाल ने मीरा पर निर्गुण प्रभाव को स्वीकार करते हुए लिखा, “यद्दपि मीराबाई व्यवहारतः सगुणोपासिका थी और कृष्ण की उपासना रणछोड़ के रूप में किया करती थी, फिर भी यह सच है कि उनके कहे जाने वाले पदों में निर्गुण विचारधारा स्पष्ट दिखती है। उन्होंने अपनी प्रेम सम्बन्धी विनय कृष्ण एव ब्रह्म दोनों के प्रति एक साथ की है।’
डॉ. श्री कृष्णलाल ने मीरा के आराध्य में अनेक विरोधी रूपों की उद्भावना करके उसकी उपासना पद्धति में विरोधाभास का एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत कर दिया है, वे लिखते हैं- “मीरा के भगवान उनके प्रियतम गिरधर नागर हैं, जो कबीर, नानक आदि संतकवियों के निर्गुण, निराकार ब्रह्म के बहुत निकट जान पडता है ।” इसी प्रकार डॉ. हीरा लाल माहेश्वरी कहते हैं, “मीरा के समस्त व्यक्तित्व और काव्य में नाथ-पंथी जोगी, सगुण और निर्गुण ब्रह्म से सम्बन्धित अभिव्यक्ति की मिली जुली त्रिवेणी बह रही है। इसका रोम-रोम इसमें रम गया है।” वस्तुतः मीरा के भक्ति पदों में उनका प्रेमभाव ही प्रमुख है। यह प्रेमभाव इतना प्रबल है कि वह उन सभी साधनाओं को छा लेता है, जिनका प्रभाव मीरा पर लक्षित होता है।
जहाँ तक मीरा के जीवन दर्शन का प्रश्न है, वह श्रीकृष्ण के आस-पास ही घूमता दिखाई देता है। मीरा के एकमात्र इष्ट गिरधर गोपाल ही है, जिन्हें मीरा ने अनेक रूपों में देखा है। उनके अनेक सम्बोधन हैं, यथा- नटवरनागर, नन्दलाल, मोहन, हरि, श्याम, साँवरिया, वंशीवारा, बाँके बिहारी, गोविन्द, प्रभु पिया, प्रियतम आदि। यही नहीं मीरा ने सन्त मत और योग मार्ग की ईश्वरवाची शब्दावली का भी प्रयोग किया है, जैसे-सतगुरू, जोगी, जोगिया, साहब आदि गिरधर लाल के पर्यायवाची ही हैं। किन्तु इन मिश्रित शब्दावलियों से भी भ्रमित नहीं होना चाहिए, क्योंकि मीरा जब कहती है कि ‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई’ तब हमें भी यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि वे सहज भाव से श्रीकृष्ण को ही अपना आराध्य मानती हैं और उनका समूचा जीवन-दर्शन श्रीकृष्ण की भक्ति वे प्रेम पर ही आधारित है।
मीरा की भक्ति-पद्धति का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि मीरा स्वतंत्र भक्त थी, वह किसी सम्प्रदाय में दीक्षित नहीं थी। यही कारण है कि उन पर कहीं निर्गुण धारा का प्रभाव व्यंजित होता है तो कहीं वैष्णवी व मधुरा भक्ति का भाव। कहीं वह वल्लभाचार्य की नवधा भक्ति की अनुगामिनी है तो कहीं चैतन्य महाप्रभु की माधुर्य भक्ति से। यद्यपि भी केन्द्र में श्रीकृष्ण ही है, फिर भी उन पर विविध धाराओं का प्रभाव अवश्य है। इससे उनका जीवन-दर्शन बहुआयामी फलक पर दृश्यमान होता है। संक्षिप्त विवेचन द्रष्टव्य है-
नाथ सम्प्रदाय का प्रभाव- नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोरखनाथ माने गये हैं। इस सम्प्रदाय की साधना पद्धति को हठयोग नाम प्राप्त हुआ है। हठयोग में ‘ह’ सूर्य का व ‘ठ’ ‘चन्द्रमा’ का प्रतीक है। सूर्य से अभिप्राय प्राणवायु से है और चन्द्रमा का अभिप्राय अपानवायु से। इस प्रकार प्राणवायु से वायु का निरोध ही हठयोग कहलाता है। मीरा के पदों में कुछ शब्द ऐसे ही प्रयुक्त हुए हैं, जो उन्हें हठयोग या नाथ संप्रदाय से जोड़ते हैं, जैसे-
जोगिया जी निसदिन जोऊँ बाट।
पाँव न चाले पंथ दुहेलो, आड़ा औधट घाट।
नगर आइ जोगी रम गया रे, नौ मन प्रीत न पाई।
मैं भोली भोलापन कीन्हों, राख्यो नहीं बिलमाई।
उपर्युक्त पद में जोगिया, औघट, जोगी आदि ऐसे ही शब्द हैं। इसी प्रकार का एक अन्य पद भी अवलोकनीय है-
जोगी मत जा मत जा मत जा, पाँइ परूँ में तेरी चेरी हौं।
प्रेम भगति को पैड़ों ही न्यारौ, हमकूँ गैल बना जा।
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जल बल गई भस्म की ढेरी, अपने अंग लगा जा।
मीरा रे प्रभु गिरधर नागर, जोत में जोत मिला जा।।
कहीं कहीं जोगण बनने का विचार रखने वाली मीरा हठयोग साधना का तिरस्कार करके भाग्य की महत्ता का प्रतिपादन करती है, यथा-
तेरो मरम नहीं पायो रे जोगी ।
आसण मांड़ि गुफा में बैठो, ध्यान हरी को लगायौ।
गल विच सेली हाथ हाजरियो, अंग भभूति लगायौ।
मीरा के प्रभु हरि अविनासी, भाग लिख्यौ सो ही पायौ।।
वस्तुतः मीरा पर जो नाथ सम्प्रदाय का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है, वह उस पंथ के प्रति श्रद्धाभाव के कारण नहीं, बल्कि भावों की स्वच्छन्द धारा में इधर-उधर बह जाने के कारण ही है। वल्लभ संप्रदाय का प्रभाव- वैष्णव भक्ति में भागवत् में वर्णित ‘नवधा भक्ति’ को विशेष महत्त्व दिया है। इसमें प्रेमलक्षणा भक्ति की महत्ता दी गई है। इसमें भक्ति के नौ सोपान हैं- श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पदसेवा, अर्चना, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन। इनमें से अधिकांश मीरा के पदों में दृष्टिगोचर होते हैं-
कीर्तन- माई म्हाँ गोविन्द-गुण गास्याँ।
चरणाम्रति रो नेम सकारे, नित उठि दरसण जास्यां।
हरि मन्दिर मां निरत करास्यां, घूंघर्या छमकास्यां।
पाद-सेवन- मन के परस हरि के चरण।
सुभग सीतल कँवल कोमल जगत ज्वाला हरण।।
दासी मीरा लाल गिरधर, अगम आगम तरण।।
वंदन- म्हाँ गिरधर आगां नाच्या री।
नाच नाच म्हाँ रसिक रिझावां, प्रीत पुरातन जाँच्या री।।
इस तरह के अनेक पद यह प्रमाणित करते हैं कि मीरा पर वल्लभ संप्रदाय का भी प्रभाव था, परंतु हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि इस प्रकार की भक्ति भी युगीन-प्रभावयुक्त थी। कृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति से स्पष्टतः मीरा इस ओर बह गई होंगी।
गौड़ीय संप्रदाय का प्रभाव- मीरा के पदों का यदि सूक्ष्मता से अवलोकन किया जाय तो हमें ज्ञात होगा कि उनका जीवन-दर्शन न तो नाथपंथ (निर्गुण सम्प्रदाय) से प्रभावित था और न ही पुष्टिमार्ग (वल्लभ सम्प्रदाय) से। यदि कुछ पद आये हैं तो वे उस युग के प्रभाव व भक्तिमती मीरा की भावों में तरलता के कारण ही हैं। महाप्रभु चैतन्य के कंठ से भक्ति का जो स्वर निकला, वह मीरा के कंठ में आकर पूर्णता को प्राप्त हो जाता है। मधुरा भक्ति का उल्लेख पुराणों, उपनिषदों, संहिताओं, सम्मोहन तंत्र आदि में तो मिलता ही है, किंतु इसका पूर्णतः परिपाक ‘गौड़ीय सम्प्रदाय’ में ही चैतन्य महाप्रभु के नेतृत्व में हुआ था।
‘माधुर्य भक्ति’ में भक्त अपने भगवान को ‘पति रूप’ में देखता है। यह गोपी भाव है। गोपी भाव से मीरा ने भी स्वयं को उस गिरधर को हाथों बेच दिया था। मधुर रस शृंगार प्रधान होते हुए भी लौकिक शृंगार से सर्वथा भिन्न होता है। इस रस का विषय अलौकिक होता है और उसके आलंबन स्वयं भगवान होते हैं। ‘माधुर्य भक्ति’ के तीन प्रमुख अंग होते हैं- 1.रूप वर्णन, 2. विरह वर्णन तथा 3. आत्म समर्पण। मीरा के पदों में इनका व्यापक वर्णन दिखाई देता है। संक्षिप्त विवेचन द्रष्टव्य है-
(क)रूप वर्णन- मीरा ने श्रीकृष्ण के सौन्दर्य का कई स्थलों पर वर्णन किया है। वे ‘साँवली सूरत’ और ‘मोहनी मूरत’ हैं, वे ‘पीताम्बर’ धारण किए हुए हैं। उनके सिर पर ‘मोर मुकुट’ है। माथे पर ‘केशर का तिलक’ है। कानों में ‘कुंडल’ झलक रहे हैं, उनकी ‘नासिका’ सुन्दर है। उनके दाँत दाड़िम के समान है, विशाल नेत्र कमल दल के समान हैं। चितवन बाँकी है। उनके वक्ष स्थल पर वैजयन्ती माला है। उनका यह सौन्दर्य प्रेम की जंजीर में बाँधने वाला प्रतीत होता है-
बस्याँ म्हारे नैनण माँ नन्दलाल।
मोर मुगुट मकराक्रत कुंडल, अरूण तिलक सौहाँ भाल।
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अधर सुधारस मुरली राज्यां उर बैजंती माल।
मीरा प्रभु संता सुखदायाँ, भगत बछल गोपाल।।
इसी तरह प्रभु श्री कृष्ण की छवि मीरा के आँखों में किस प्रकार बस गई है, पंक्तियाँ अवलोकनीय हैं-
आली री म्हारे नैणा बाण पड़ी।
चित चढ़ी म्हारे माधुरी रस, टिवड़ा अणी गड़ी।।
विरह वर्णन- माधुर्य भक्ति का दूसरा सोपान ‘विरह-व्यंजना’ है। मीरा की विरह दशा की उद्दीप्ति तीन भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में होती है, वे हैं-प्रिय प्रवास के कारण, वर्षाभास के कारण व मधुमास के कारण। उदाहरण हैं-
पिय बिनु सुनो छै म्हारो देस।
ऐसो है कोई पीव कूँ मिलावै, तनम न करूँ सब पेस।
मीरा के प्रभु कब रे मिलोगे, तजि दिया नगर नरेस ।।(15)
इस विरह वेदना में मीरा विवश है, पिय की प्रतीक्षा कर रही है तो उसे चैन भी नहीं है। वह वदा मिनल को आतुर है। उसे पपीहे की वाणी बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगती, यथा-
पपइया के पिव की बाणी न बोल
सुणि पावेली बिरहणी के, थारो राखेली पाँख मरोड़।
चोंच कटाऊँ पपइया रे, ऊपरि कालर लूण।
पिव मेरा मैं पीव की रे, तू पिव कहै सूँ कूण।।
(ग)आत्मसमर्पण- मीरा ने अपने आपको पूर्णतया कृष्ण के प्रति समर्पित कर दिया है, अपने मन को उन्हीं का रस पीने को कहती है व उनके अतिरिक्त दूसरे किसी को स्वीकार नहीं करती, जैसे-
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई।।
इसी प्रकार वह उनके नाम पर मुग्ध होकर उन्हीं के प्रति समर्पित हो गई है, यथा-
पिया तेरे नाम लुभाणी हो।
नाम लेन तिरता सुण्या, जैसे पाहण पाणी हो।।
राम नाम रस पीजे, मनुआँ राम नाम रस पीजे।।
इस प्रकार मीरा की भक्ति में माधुर्य भावना प्रतिबिम्बित होती है। मीरा कृष्ण के प्रति पूर्ण समर्पित है। मीरा की माधुर्य भक्ति के विषय में आचार्य शुक्ल ने कहा, “पति प्रेम के रूप में ढले हुए भक्ति रस ने मीरा की संगीत धारा में जो दिव्य माधुर्य प्रवाहित किया है, वह भावुक हृदयों को और कहीं शायद ही मिले।”
निष्कर्षतः मीरा ने श्रीकृष्ण से प्रेम किया था, फलतः उनका सारा जीवन ही कृष्णमय हो गया था। मीरा के पदों में कतिपय पारिभाषिक शब्दों को आधार बनाकर उनके जीवन पर विभिन्न दर्शनों के मतों के प्रभाव को गई आलोचकों ने व्यंजित किया, पर मीरा तो प्रेम दिवानी थी। उसे किसी संप्रदाय विशेष की मान्यताओं के आलोक में ही देखकर मूल्यांकन करना उचित नहीं होगा। मीरा का जीवन ही कृष्ण प्रेम था और दर्शन भी कृष्ण प्रेम। अतः उन्होंने कृष्ण की आराधना कांता भाव या गोपी भाव से की वे अपने आराध्य को भी प्रति मानकर ही पुकारती है, उसके विरह में व्याकुल होकर तड़पती है। इससे उनके सगुणोपासक होने में कोई संदेह नहीं रहता। संभवतः साधु-संगति के प्रभाव से उनके काव्य में निर्गुण शब्दावली आ गई हों, पर भक्ति में ‘मधुरिया भाव’ प्रमुख है। सगुण-प्रेम के विरह मिलन के प्रभाव एवं संस्पर्श अत्यधिक प्रभावी हैं। उसकी माधुर्य भावना अनेक स्थलों पर सूर और तुलसी से भी आगे दिखाई देती है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रेम-विवश मीरा स्वयं भाव-विभोर होकर श्रीकृष्ण के साथ लीलाएँ कर रही हों। अतः यदि प्रभाव की दृष्टि से ही देखा जाय तो स्पष्ट होता है कि उन पर चैतन्य महाप्रभु की दार्शनिक मान्यताओं का सर्वाधिक प्रभाव था साथ ही उनके जीवन-दर्शन पर पड़ा। समग्र रूप से वह स्वयं ही भक्ति की मंदाकिनी बनकर जगत् को रस-आप्लावित कर गई। उस रस सृष्टि में उनका भव्य जीवन और भव्य दर्शन हमें डूबने को प्रेरित करता है।
– नीरज कृष्ण