आलेख
मीरां के प्रभु गिरधर नागर: डॉ. स्वर्णा
मीरां के काव्य की भूमिका आध्यात्मिक ही नहीं, लौकिक भी है, जिसमें अमानवीय मूल्यों के विरूद्ध संघर्षमयी नारी की करूणा और विद्रोह के अत्यन्त शुभ्र, संयत और आस्थावान स्वर हैं। मीराँँ का काव्य मानव की मूलभूत संवेदनाओं की निश्छल रागमयी अभिव्यक्ति के कारण लोक के लिए सहज संवेद्य है। चिरंतन व्यथित प्राण, नारीत्व की आशा, आकांक्षा, विवशता और उल्लास के स्वर ने उसे अप्रतिम मधुरता दे दी है।
मीराँँ का काव्य परम् सौंदर्यमय सत्य की अनुभूतिमयी वाणी है। कबीर का पौरूष, तुलसी का चैतन्य और सूर की अन्तर्दृष्टि उसमें नहीं है, फिर भी मानवता की मूलभूत अनुभूतिमयता के मार्मिक स्तर पर वह अपने युग की महत्तम काव्य-चेतना की समधर्मी है। मीराँ का प्रणयभाव आध्यात्मिक होते हुए भी, लौकिक दृष्टि से स्वाभाविक और सहज है। सामाजिक संबंधों और रूढ़ नैतिकता के सबल बांधों की उपेक्षा करके, नारीत्व के प्राणों में मचलती हुई आत्मसमर्पण की चिरंतन दुर्दम्य कामना ही मीराँ के प्रणय का मूल उत्स है।
बचपन से ही मीराँ के हृदय में वैष्णव-धर्म का बीजारोपण हो गया। वही आगे चलकर भगवद्भक्ति के रूप में प्रस्फुटित हुआ। कृष्ण के प्रति मीराँ का अनुराग उसके जीवन का एकांत सहचर रहा। उसने कृष्ण को पति रूप में वरण किया और उससे निकटतम संबंध स्थापित करने को वह एक-रस से तत्पर रही। भोजराज के साथ विवाह होने पर भी मीराँ के हृदय में यही धारणा जमी रही कि उसके वास्तविक पति ‘गिरधारी लाल’ ही है। विधवा होने पर भी मीराँ को कदाचित इसीलिए अधिक शोक न हुआ। तत्कालीन समय के अनुसार तो पत्नी का सौभाग्य पति के जीवन-काल में या उसके साथ मर जाने में था। अतएव सती की प्रथा का जोर था। वास्तव में हिन्दू विधवा का जीवन एक भीषण अभिशाप था। अमंगल की सजीव छाया में जलने वाले उसके असहाय व्यक्तित्व को संदेह, शंका और उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता था। लेकिन मीराँ ने इन परम्पराओं को साहस पूर्वक अस्वीकार किया और पति की मृत्यु के उपरांत तो उसकी भक्ति भावना और भी वर्द्धमान हुई। अपने धैर्य के प्रभाव से उसने वैधव्य-शोक का दमन कर अपने आपको श्रीकृष्ण की आराधना में लगा दिया। साधु रैदास से दीक्षा ग्रहण की। गुरू से उपदेश प्राप्त कर मीराँ भगवद् भजन में इस प्रकार लग गई कि उसे संसार से वैराग्य-सा हो गया। श्रीकृष्ण की भक्ति और पूजा ही उसके जीवन का एक मात्र लक्ष्य रह गई। आध्यात्मिक उन्नति के साथ-साथ उसका नाम चारों ओर फैलने लगा। उससे अनेक साधु संत मिलने को आते थे और धर्मालाप कर अपने को धन्य समझते थे। महाराणा विक्रम राजमहिषी के इस आचरण से संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने मीराँ से साधुओं की संगत से दूर रहने का अनुरोध किया किन्तु मीराँ पर उनके अनुरोध का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा
राणाजी हूँ अबन रहूँगी तोरी हटकी।
साध संग मोही प्यारो लागै, लाज गई घूंघट की।
मीराँ अपना सर्वस्व गिरिधारी लाल को अर्पण कर चुकी थी। उसे न तो राजत्व चाहिए और न ही कुल-मर्यादा की परवाह है।सखी री, मैं तो गिरिधर के रँग राती।
पीहर बसूं न बसूँ सास-घर, सतगुरू शब्द संगाती।
ना घर मेरा ना घर तेरा, मीराँ हरि-रंगराती।
मीराँबाई को रोकने का प्रयास किया गया। उसका साधारण लोगों के साथ मिलना-जुलना अनुचित समझा गया। मीराँ के व्यवहार को राजकुलोचित नहीं माना गया। उसके आचरण के कारण राणा और राजपरिवार की चारों ओर निंदा समझी गई। राणा ने मीराँ को मारने के लिए अनेक प्रयास किए। विष को भगवान का चरणामृत कहकर मीराँ के पास भेजा गया। मीराँ ने उस विषय का परित्याग करना भगवद्भक्ति के सिद्धांतों के विरूद्ध समझकर निःसंकोच भाव से पी लिया। उस विष का मीराँ के ऊपर अमृत का सा प्रभाव पड़ा। वह आग में तपे सोने की तरह निखर उठी। उसका प्रेम उज्ज्वल हो चला। एक टोकरी मंे अनेक विषधर सर्पों को बंद कर मीराँ के पास भेजा गया और कहा गया कि यह तुम्हारे भगवान की पूजा के लिए फूल की मालाएँ हैं। मीराँ ने ज्यों ही टोकरी का ठक्कन उठाया त्यों ही वे साँप शालिग्राम के रूप में परिणत हो गए। राणा ने मीराँ को अपने कुलगुरु एकलिङ्जी की पूजा अर्चना के लिए कहा लेकिन मीराँ के प्रभु तो गिरिधर गोपाल ही थे जिनके अलावा वे किसी का स्मरण मात्र भी अनुचित समझती थी। ‘रामलोचन शर्मा’ ने लिखा है ‘सत्ययुग में जिस प्रकार भक्त प्रहलाद की भगवान ने हिरण्यकश्यप के अत्याचार से रक्षा की थी। उसी प्रकार कलियुग में राणा विक्रम के उत्पीड़न से मीराँ की रक्षा की। राणा के उत्पीड़न को मीराँ ने तनिक भी चित में नहीं लगाया। उसने दुःख को दुःख नहीं माना क्योंकि दुःख के मार्ग से ही उसे परमात्मा का साक्षात्कार हुआ था। भगवान की कृपा उसे उसी वेदना में प्राप्त हुई थी। वह जानती थी कि भक्तों को दुःख की चिंता नहीं करनी चाहिए। क्योंकि पहले भी जिन भक्तों पर आपत्ति के पहाड़ गिरे उनकी रक्षा हुई। इसीलए वह विपत्ति पड़ने पर बार-बार श्रीकृष्ण को पुकार उठती थी।’’
मीराँ के प्रेम में श्रृंगारिकता, वासना, कामुकता एवं अश्लीलता का सर्वथा अभाव है। उसमें उदात्तता, सात्विकता, सहज ऐन्द्रिय सुख से ऊपर प्रेम की आत्मा की प्रीति है तथा साथ ही सौंदर्यानुभूति, प्रणय-वेदना एवं विरह की गंभीरता की व्यंजना सहज रूप में प्रकट हुई है। अपने गिरिधर नागर की सहानुभ्ूाति के लिए, आत्मसमर्पण करने के लिए और प्रेम-योग में सिद्धि पाने की आशा से उसने घर-द्वार, कुटुम्ब-परिवार, अपने-पराए सब का त्याग कर दिया। अपने अमर पति की खोज में तीर्थों की यात्रा की। राजकन्या, राजमहिषी मीराँ ने कृष्ण-प्रेम के मार्ग में किसी प्रकार के कुश-कंटकों और विघ्न-बाधाओं की परवा नहीं की।
मीराँ सुंदर कवयित्री ही नहीं, महान् कवयित्री भी हैं। युग-बोध को नई दिशाएँ वे नहीं दे सकीं, पर उसे मानवता के प्राणों के चिरमधुर स्पन्दन से परिचित करा गई हैं। मीराँबाई का नाम भारत के प्रधान भक्तों में है और इनका गुणगान नाभादास, ध्रुवदास, व्यास, मलूकदास आदि सभी भक्तों ने किया है।
सन्दर्भ-
1. परशुराम चतुर्वेदी, मीराँबाई की पदावली, चैदहवाँ संस्करण, प्रयाग, हिन्दी साहित्य, 1970, पृ. 42
2. परशुराम चतुर्वेदी, मीराँबाई की पदावली, चैदहवाँ संस्करण, प्रयाग, हिन्दी साहित्य, 1970, पृ. 131
3. सं. रामलोचन शर्मा, मीराँ की प्रेम-वाणी, द्वितीय संस्करण, दिल्ली, बम्बई पुस्तक, 1941, पृ. 20
– डॉ. स्वर्णा