मूल्याँकन
मिलना मुझसे- प्रताप नारायण सिंह
प्रगति गुप्ता जी का काव्य संग्रह ‘मिलना मुझसे’ पढ़ा। शीर्षक के अनुरूप ही यह काव्य संग्रह पाठक का स्वयं से साक्षात्कार करवाता है। मानवीय अनुभूतियों के छोटे-छोटे पलों को पिरोते हुए यह काव्य संग्रह पाठक-मन को टटोलते हुए अनेक इच्छाओं, चाहतों और कल्पनाओं के उजले-उजले बादलों का स्पर्श करते अंतर से बाह्य तक की यात्रा करता है। मानव-मन के द्वारा जाग्रत और सुप्त पलों में अनुभव किए गये एहसासों और सपनों का एक अनूठा गुलदस्ता है यह काव्य-संग्रह। साथ ही यथार्थ के कुछ तप्त छींटों से भी श्रृंगार किया गया है इसका। इस काव्य संग्रह की कविताएँ किसी चित्र की तरह लगती हैं, जिन्हें पढ़कर आगे बढ़ना कठिन होता है। अपितु देर तक उन्हें निहारते रहने का मन करता है। शब्दों से उकेरे गए इंद्र-धनुष, तितलियाँ, बादल की उजली डलियाँ और अनेक रंग-बिरंगे पुष्प मन को मोह लेते हैं। उनसे झरते भावनाओं के पराग अंतर्मन को सिक्त करते हैं। इस संग्रह की कविताएँ भिन्न-भिन्न रंग लिए हुए हैं। कुछ में प्रेम की प्रगाढ़ता है तो कुछ में सामजिक सरोकारों को उकेरा गया है। कुछ में मानव मन और रिश्तों में व्याप्त विसंगतियों को उकेरा गया है तो कुछ में बनते-बिगड़ते रिश्तों और नयी सोचों तथा जीवन-शैली को सम्बोधित किया गया है। काव्य तत्वों की बात करें तो सभी रचनाएँ भावना प्रधान हैं और उनमें प्रबल रस का संचार है। भाषा-शैली अत्यंत ही सहज और सरलता से ग्राह्य होने वाली है। सुन्दर और सटीक शब्दों का प्रयोग किया गया है, जो कथ्य को अत्यंत प्रगाढ़ता से उकेरते हैं। शिल्प में एक प्रवाह है, जो भाव-प्रवाह के साथ तारतम्य बनाता हुआ काव्यात्मकता को शिखर तक पहुँचाता है और कथ्य को अत्यंत प्रभावी ढंग से सम्प्रेषित करता है। बिम्बों और उपमाओं द्वारा अलंकरण, कविताओं में एक अतिरिक्त आकर्षण भर देता है और मन को मोहता है।
संग्रह का आरम्भ ‘रंगरेजा’ कविता से होता है। कविता में एकाकार होने के भाव को बहुत ही प्रगाढ़ता से उकेरा गया है-
तू रंग मेरी रूह को
कुछ इस तरह
अपने ही रंग में ऐ रंगरेजा!
तेरे हर रंग-सी रँगी रहूँ
तेरे हर रंग-सी दिखूँ मैं
तीसरी कविता पुस्तक की शीर्षक कविता है- ‘मिलना मुझसे’। बहुत ही सघन अनुभूतियों से बुनी गयी है यह कविता। अपने अभीष्ट, जिससे मन अनेक रूपों में अनेक जगहों पर इस दुनियावी बंधन से मुक्त होकर मिलता रहता है, उसी से फिर एक इच्छित रूप में मिलने का मनुहार है। कविता अंतस्थल को रसधार-सी सिक्त करती हुई गुज़रती है-
जाते-जाते मिलना
उस स्वप्न में तुम ज़रूर
जिसकी शुरुआत तुम रहे
और जिसका अंत तुम्हीं से हो
जिनको बंद नयनों ने देखा हो
और जिसका अंत बंद नयनों से ही हो।
कविता समाप्त होते-होते मन को पूरी तरह अपने आलिंगन में ले लेती है और मन वहीं ठहर जाता है।
कविता ‘प्रेम-तुम’ में प्रेम से संवाद है। शब्दों से परे एक सार्वभौमिक अनुभूति को संबोधन है। प्रेम में हृदय को प्राप्त संतुष्टि और व्यग्रता दोनों को ही कुशलता से चित्रित किया है-
प्रेम तुम कभी
शब्द कहाँ रहे मेरे लिए
……..
प्रेम! तुम न जाने कैसे
एक समय में दो-दो भाव
एक साथ जगा
सिर्फ मेरे संग
मुझ में होने के दावे कर गये
बहुत पास महसूस होकर भी
एक अव्यक्त-सी कमी जगा गये
कविता ‘क्यों दरख़्त मुझे भाते हैं’ में माता-पिता के बिछोह में नारी मन में उभरते ज्वार-भाटा को शब्दबद्ध किया गया है। कविता अत्यंत भावपूर्ण है और मन को छूती है-
माँ-बाबा
आपसे छूटी हुई उंगली को
आपकी कमी आज भी अखरती है
‘छतों से छतों की दुनिया’ में मानवीय सभ्यता के मूल बिंदु का स्पर्श है, जिसमें आपसी संबंधों की गुदगुदाहट महसूस होती है। जुड़ी छतों के माध्यम से पड़ोसियों के मध्य पनपते इंसानी जज़्बात और साझा पलों को जीने का आनंद उकेरा गया है इस कविता में। कविता को पढ़कर हर पाठक को लगेगा कि उसने उन पलों को जिया है-
छूती हैं जब संवेदनाएँ
एक-दूजे को अति निकट आकर
तब वही बाँध बन
रिश्तों को जल्द ही पिरोती थीं
आज इन बंधों को वही समझेगा
जिन्होंने गुजारी हो छतों से छतों पर
बचपन से जवानी तक की
सैकड़ों चुहलबाजियाँ
‘चार गुणित छः’ एक बड़ा वर्ग आज भी आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाता है। मूलभूत सुविधाओं से वंचित है। उसी वंचित वर्ग की पीड़ा को मार्मिकता से उकेरा गया है इस कविता में-
धूप-छाँव हो या रिमझिम बरसात
करते ये ही उनका प्रथम स्पर्श बनकर साक्ष्य
आँतों की अकुलाहट हो
या दर्द कोई मन का
सुने इनकी कौन
इनके ही मन के सिवा
‘आत्मीय रिश्तों का वास’ बहुत ही बारीक अनुभूति को इस कविता में पिरोया गया है। अश्रुओं, मन-हृदय और भावनाओं के सम्बन्ध को चित्रित करती यह रचना मन की सतहों को छूती हुई गुज़रती है-
जब स्मृतियाँ किसी आत्मीय की
छूने लगें अन्तः को
तब कहीं गहरे-से स्पर्श कर
नम होते नयन एकांत में
कमी बन आत्मीय की
आगे कविता कहती है-
भावों को देना, भावों को पढ़ना
फिर भावों का स्पर्श बन
दौड़-दौड़ कर अनुभूतियों को जगाना
‘क्यों भूल जाता है’ इस कविता में मनुष्य के जीवन की विसंगतियों को चित्रित किया है। मनुष्य के स्वार्थ की परिधि को टटोलती और खोलती हुयी यह रचना एक पुष्ट सन्देश देती है।
“क्यों भूल जाता है इंसान / हर अंश प्रकृति की जीवता है / उसकी ही तरह / विध्वंस कर उनको /कैसे जी पायेगा स्वयं के लिए।”….हम सभी शरीर से / एक ही हाड़-मांस के पुतले हैं / बस भावों का अंतर है / सहेज भावों को वो क्यों नहीं /जोड़ता सुखद स्मृतियाँ अपने लिए। ”
“नहीं करती तुमसे” उदात्त प्यार की अनुभूति बहुत ही गहनता से और प्रगाढ़ता से उभरती है इस कविता में। प्यार के सम्पूर्ण अहसास को छोटे-छोटे क्रिया-कलापों के माध्यम से दर्शित किया गया है।-
“बचपन से ही महसूस किया था मैंने / बहुत प्यारे भाव को स्वीकारने से / नज़र लग जाती है उसको /तभी तो बार-बार आज भी स्वीकार कर नकारती हूँ सिरे से ही / मैं प्यार नहीं करती हूँ तुमसे। ”
“ईश्वर के चयन” मनुष्य के स्वार्थ की पराकाष्ठा को चित्रित करती और उस पर प्रहार करती है यह कविता। अपने स्वार्थ-वश किस तरह लोग ईश्वर का भी सुविधानुसार चयन कर लेते हैं-
“यहाँ तो इंसानों को छोड़िये /रातों-रात लोग अपने ईश्वर बदल लिया करते हैं / जो दे सके धोखा स्वयं को ही /इतनी उथली सोचों से / वह कब जिया है और जियेगा / भावों से भावों के लिए।
“सिर्फ़ भावों को समर्पित हूँ मैं” – नारी तुम केवल श्रद्धा हो। इस वाक्य की झलक मिलती है इस कविता में। नारी-मन की उदारता और सहनशीलता को दर्शाती यह कविता सोचने पर विवश करती है-
“खुद एकाकी बनी रहकर भी / भावों के लिए बिछ जाती हूँ मैं / सदियों का अभ्यास जुड़ा है मुझसे / मैं नारी हूँ / ख़ुद को हर जन्म में / ऐसा ही पाती हूँ।
“हौसले कभी मत हारना”- पाठक-मन में आशा और उत्साह का संचार करती एक अत्यंत ओजपूर्ण और सुन्दर कविता है यह। मनुष्य यदि अपनी शक्ति को पहचान ले तो कुछ भी कठिन नहीं है-
“सौ -सौ बार गिरकर भी / पंखों से जुड़े अर्थ कभी नहीं खोने हैं / बहुत ऊंची न सही पर उड़ान लेनी है / थकने से घबराकर हार कभी नहीं छूनी है /”
“साझी जिम्मेवारी”- घर-परिवार की गाड़ी को सुचारु रूप से चलाने के लिए दोनों ही पहियों की बराबर की अहमियत होती है। दोनों के द्वारा ही किया जाने वाला प्रयत्न अपने आप में अत्यंत महत्वपूर्ण है। इतना ही नहीं अपितु उन्हें अपने-अपने स्वतंत्र अस्तित्व को छोड़कर एक दूसरे का पूरक होना पड़ता है। इस रचना में इस बात को बहुत ही सुंदरता से प्रस्तुत किया गया है।-
“घर की नींव अगर पिता है / तो सारा का सारा घर होती है माँ। ” नींव को हिलने से बचाने में /माँ अपना सब कुछ दे देती है।
“विछोह”- अनेक संयोग श्रृंगार की रचनाओं के बीच यह पहली रचना वियोग श्रृंगार की है। वास्तव में यह रचना वियोग के पलों को भी स्मृतियों के माध्यम से संयोग में परिवर्तित करती हुयी प्रतीत होती है। जब प्रेम होता है तब मिलन और विरह दोनों ही सुखदायी होता है। शब्दों में पिरोयी गईं सघन अनुभूतियाँ हृदय को छूती हैं। –
“विछोह प्रिय के अंतस्थल को छूता / कभी टीस बन तो कभी हूक बन /बग़ैर कहे , कहीं चुपचाप सिसकता।”
“माँ”- माँ के साथ सहज आत्मीयता और अटूट बंधन को उकेरती हुयी यह रचना पाठक-मन हो छूती है। –
“जो अक्सर अब भी/ पुकारकर मुझे/ मेरे होने और तेरे न होने को कमी को / मेरे और क़रीब खड़ी कर देती है। ”
“क्या हम छले गए” यह रचना मन की उच्छृंखलता से उभरे अंतर्द्वंद को रेखांकित करती है। बहुत ही गूढ़ अनुभूति को अत्यंत सहजता से चित्रित किया गया है इस रचना में। किसी भी क्षण मात्र को मुक्त रूप से अपनी कामनानुसार जी लेने पर एक प्रश्न भी कड़ी करती है यह कविता-
“जब प्रेम और संवेदनाएँ / इस्तेमाल हों छलने के लिए /तो सोचे और महसूस करे दिल से / क्या हम छले गए / सिर्फ क्षणिक सुखों के लिए। ”
“पुनः लौटना”- प्रेम-परागों से महकती यह कविता मन को गुदगुदाती है। हृदय एक सुखद अहसास से भर जाता है। –
” कितना सुन्दर होता है न /पहले प्रेम का स्वयं में / सर्वत्र फैल जाना / फिर इस भाव का /अपने प्रिये में भी बिखर जाना।”
“इश्क”- यह भावना स्वतः प्रकट हो जाती है। प्यार में जब व्यक्ति होता है तो उसका सब कुछ बदल जाता है। उसके ऊपर अनुभूतियों की एक परत चढ़ जाती है और वह बिना कुछ कहे ही दूसरों पर ज़ाहिर हो जाता है।-
“इश्क की ज़ुबाँ नहीं होती /पर इश्क , न कहकर भी / बहुत कुछ बयाँ कर ही देता है। ”
“आजकल आदमी ” – अपनी विसंगतियों से घिरा आज आदमी एक पल के सुकून और शांति के लिए तरस रहा है। जीवन-संघर्ष के बढ़ने के साथ ही मनुष्य के अंदर की नकारात्मक प्रवृत्तियाँ अधिक मुखर होती जा रही हैं। स्वयं को जीवन-संघर्ष में बनाये रखने हेतु मनुष्य द्वारा किये जा रहे छल-प्रपंचों को रेखांकित करती सामजिक सरोकार की एक बहुत ही सुन्दर कविता है यह। –
“लोग चालों को चलने में बिल्कुल नहीं हिचकते हैं / दोस्त पड़ोसी तो बाद की बात है /घरों में अपनों के साथ भी /वही द्वेष-भाव रख/ साथ साथ रहने के ढोंग रच/ नित नयी चालें चलते हैं। ”
“सिर्फ मैं ही “- आधुनिकता के नाम पर स्व-केंद्रित होती जा रही मानसिकता को चित्रित किया गया है इस कविता में। आदिकाल में मनुष्य ने सहकारिता के लिए समाज बनाया था किन्तु आज पुनः इकाई की ओर उसका लौटना कितना सही है यह प्रश्न करती है कविता। –
“स्वयं से हुए संवाद भी / नज़र नहीं आते/ इनके खोये हुए जज़्बातों में / हर प्राणी सोया पड़ा है / मैं से मैं की यात्रा में। ”
“मत भूलो”- माता-पिता के लिए उपेक्षा की प्रवृत्ति धीरे -धीरे समाज में बढ़ती जा रही है और आज एक समस्या का रूप ले चुकी है। उसी समस्या को सम्बोधित करती हुयी यह एक बहुत ही सुन्दर और सार्थक रचना है। आज कल लोग फादर्स और मदर्स डे मनाकर अपने दायित्व से स्वयं को निवृत्त कर लेते हैं। इसी प्रवृत्ति पर प्रश्न उठती है यह रचना –
“जब माँ-बाप के किये को /हम दिल से महसूस कर पाएँगे / तभी उनको दिनों में सीमित करने की बजाय/ अपनी आदतों में उतार पायेंगे।
“स्मृतियाँ”- प्रेम में पगे कोमल क्षणों को जीती हुयी यह रचना स्मृतियों का एक सुखद इंद्रधनुष खींच देती है। प्रेम में सम्पृक्त दो हृदयों के अंतर्भावों को चित्रित करती आह्लादकारी रचना है। –
“तुम्हारी अनकही बातों को पढ़ना / और उन्हें पढ़-पढ़कर / तुम्हारे मन की सी करना / तुमको अति लुभाता था / तभी मेरी हर बात पर /दौड़, मुझे भर बाहों में स्वीकार करता था /”
“नहीं बदल सकी स्वयं को”- जीवन-राह में कितनी भी विसंगतियाँ आएँ , पैरों में कितने ही काँटें चुभें, किन्तु मन अपनी कोमलता और प्रेम को नहीं छोड़ता है। जिसका ह्रदय जैसा होता है वह वैसा ही बना रहता है भले ही उस कारण उसे कठिनाईयों का सामना करना पड़े। इस तथ्य को बहुत सहजता से उकेरा गया है इस कविता में।-
“कब सीखा प्रेम ने घात लगाना / उसकी प्रवृत्ति तो होती बस /प्रेम-भाव के लिए ही लुट-लुट जाना /चाहते सभी इसी भाव को छूना/ और छूकर जी जाना/ भरता यही घावों को / इसकी प्रवृत्ति ही होती है सहलाना /”
“युवा मानसिकता” सामाजिक सरोकारों की यह एक बहुत ही सशक्त रचना है। आज युवाओं द्वारा स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के बीच अंतर न स्पष्ट कर पाना और स्वच्छंदता को स्वतंत्रता मानकर अपनी कामनाओं के वशीभूत होकर एक ऐसे जीवन जीने की प्रवृत्ति पालना जिसमें तनिक भी ठहराव नहीं है। यह प्रवृत्ति किस तरह के समाज का निर्माण करेगी यह प्रश्न उठती है रचना तैनात विचारपूर्ण सृजन है। –
“विवाह, पत्नी और बच्चे / सब उनको डराते हैं / यही तो वे रिश्ते हैं / जो हायर और फायर से ऊपर निभाए जाते हैं।
“सिर्फ एक वही चाह” – ऐसी अनुभूतियों से सभी का साक्षात्कार होता है किन्तु इन्हे शब्दों में पिरोना अत्यंत दुष्कर कार्य है। मन की चाह के अनेक आयाम और रूप होते हैं। अनुभूतियों का एक गुच्छा तैरता रहता है मन के अंदर। उसी गुच्छे के एक तार को छूकर भावों का राग छेड़ती एक मोहक रचना है यह। –
“जो दब न सकी/ लाख कोशिशों के बाद भी / और वही सिर उठाती रही / अक्सर तेरे आस-पास/ तुझे बहुत एकांत और अकेले में पाते ही। ”
“कल्पना परम से जुड़ी”- “कितना मुश्किल है माँ बन / इस काया के चोले को छोड़ना” कविता की प्रथम दो पंक्तियों में ही सार है। माँ एक सर्जक होती है। उसका मोह दोगुना होता है एक अपने ही जायों के प्रति और दूसरे इस संसार के प्रति। आध्यात्मिक चिंतन से उपजी संग्रह की एक सशक्त रचना है यह।-
“कितना मुश्किल है माँ होकर / अपने जायों को छोड़ना /और कितना अधिक मुश्किल है / उस परम के लिए भी /अपने सृजन को/ अनंत भावों से भरना / और उस माँ की डोर को / कठपुतलियों के जैसे साधना। ”
कुल मिलाकर अंत में यही कहना चाहूंगा कि यह एक पठनीय संग्रह है जो पाठक को अवश्य रुचिकर लगेगा। पढ़ते हुए पाठक कविताओं में डूब जाता है।
समीक्ष्य पुस्तक- मिलना मुझसे
विधा- कविता
रचनाकार- प्रगति गुप्ता
प्रकाशन-
संस्करण-
मूल्य-
– प्रताप नारायण सिंह