आलेख
मानवता का दर्द लिखेंगे, माटी की बू–बास लिखेंगे
– अख्तर अली
कविता समाज की फिजियोथेरेपी है। लकवाग्रस्त समाज को अदम गोंडवी जैसे हकीम ने शब्दों की मालिश से दुरुस्त करने के प्रयास में अपना जीवन होम कर दिया। व्यवस्था को जो लोग निर्मित करते हैं और जो लोग इसे चलाते हैं, वे जब अपने लाभ के लिए समूची मानवता को दरकिनार कर देते हैं तब अदम जैसे शायर मानवता के पक्ष में तड़प उठते हैं। अपने जीवन को ख़तरे में डालकर, सिर पर कफ़न बांधे ये मतवाले समय के हाकिम को ललकार उठते हैं–
हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये
अपनी कुर्सी के लिए जज़्बात को मत छेड़िये
गर ग़लतियाँ बाबर की थी, जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाज़ुक वक़्त में हालात को मत छेड़िये
है कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ खां
मिट गए सब, कौम की औक़ात को मत छेड़िये
छेड़िये इक जंग, मिलजुल कर ग़रीबी के ख़िलाफ़
दोस्त मेरे मज़हबी नग़मात को मत छेड़िये
लिखने वालों की कमी नहीं है लेकिन लिखने-लिखने में अंतर होता है। आप एक ही तराजू में सभी लेखको को नहीं तौल सकते। पैसे कमाने की आवश्यकता सबको है। कोई लेखन को व्यवसाय बनाये तो इसमें बुरा कुछ नहीं है लेकिन लिखने और बिकने के अंतर को समझना होगा। कोई लिखकर बिकता है, कोई बिककर लिखता है, कोई बिके हुओं पर लिखता है, कोई लिख-लिख कर बिक जाता है। तरह-तरह के लिखने वालों में कुछ कबीर ऐसे भी होते हैं, जो अदम गोंडवी के रूप में अवतरित होते हैं और काव्य के आकाश पर ध्रुव तारे की तरह जगमगाने लगते हैं। पाठकों के बीच उनकी विश्वसनीयता ही उनकी रॉयल्टी है, उनका पारिश्रमिक है, उनकी आमदनी है। पाप करने के बाद पापी पुलिस और भगवान से नहीं बल्कि अदम गोंडवी से डरते थे कि अदम को पता न चलने पाए वरना यह शख्स़ हमें बख्शेगा नहीं। यह तो डंके की चोट पर कहता है–
काजू भूने प्लेट में व्हिस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पक्के समाजवादी हैं तस्कर हो या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में
जनता के पास एक ही चारा है बग़ावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में
ऐसा कभी हुआ ही नहीं कि ज़ालिम ज़ुल्म करता रहे और कोई आये ही न जो उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठा सके। साहिर ने कहा था न कि ‘ज़ुल्म जब हद से बढ़ता है तो दब जाता है’ तो दब कैसे जाता है? कोई एक आदमी जिसे अपनी जान की परवाह नहीं होती, जिसे अपने नफे-नुकसान की चिंता नहीं होती, जिसे अपनी सुख-शांति की फ़िक्र नहीं होती, वह आता है और ज़ुल्म और ज़ालिम से टकरा जाता है। विद्रोह का शंखनाद कर देता है। खिलाफ़त का परचम लहरा देता है। क्रांति का बिगुल फूँक देता है और मजरूह सुल्तानपुरी का यह शेर सार्थक लगने लगता है-
मैं अकेले ही चला था जानिबे-मंज़िल मगर
लोग आते गए और कारवाँ बनता गया
हर बार लड़ाई शस्त्र से नहीं होती, कभी शास्त्र से भी होती है। जब दुश्मन बाहर का हो तो मुक़ाबला शस्त्र से किया जाता है लेकिन जब शत्रु घर के अंदर हो तो उस पर हमला शास्त्र से किया जाता है। ऐसे मतवालों की फौज के एक सिपाही थे अदम गोंडवी। अदम की क़लम से निकली आग एक ऐसी आग है, जो दिल की आग को ठंडा करती है। अदम को पढ़कर मन में सुकून होता है कि कोई तो है, जो हमारी बात कर रहा है, हमारे पक्ष में खड़ा हो गया है, हमें अकेले नहीं होने का अहसास कराते है अदम साहब, जब वो लिखते है–
ये अमीरों से हमारी फैसलाकुन जंग थी
फिर कहाँ से बीच में मस्जिद-ओ-मंदर आ गए
जिनके चेहरे पर लिखी थी जेल की ऊँची फ़सील
रामनामी ओढ़कर संसद के अंदर आ गए
देखना सुनना व सच कहना इन्हें भाता नहीं
कुर्सियों पर अब वही बापू के बन्दर आ गए
कल तलक जो हाशिये पर भी न आते थे नज़र
आजकल बाज़ार में उनके कलेंडर आ गए
‘लेखक वही होता है, जो जनहित में लिखे। बाक़ी लिखने वाले लेखक होते नहीं बस लेखक घोषित कर दिए जाते हैं।’ अदम गोंडवी ने अपने पूर्वज लेखक प्रेमचंद के इस विचार को पूरी तरह आत्मसात किया, जो उन्होंने ‘हंस’ के फरवरी 1935 के अंक में लिखा था- “साहित्य का उद्देश्य जीवन के आदर्श को उपस्थित करना है, जिसे पढ़कर हम जीवन में क़दम-क़दम पर आने वाली कठिनाइयों का सामना कर सकें। अगर साहित्य से जीवन का सही रास्ता न मिले तो ऐसे साहित्य से लाभ ही क्या?” अदम गोंडवी का साहित्य क़दम-क़दम पर हमें होशियार करता है, हमें चेताता है, हमें हमारी गहरी नींद से जगाता है और आवाज़ देकर बताता है–
तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है
उधर जम्हूरियत का ढ़ोल पीटे जा रहे हैं वो
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है, नवाबी है
लगी है होड़-सी देखो अमीरी और ग़रीबी में
ये गांधीवाद के ढांचे की बुनियादी ख़राबी है
तुम्हारी मेज़ चांदी, की तुम्हारे जाम सोने के
यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रकाबी है
कविताएँ वह चाहे विश्व की किसी भी भाषा में लिखी हुई हों, कविताएँ भाषा को नया रूप प्रदान करती हैं। शब्दकोश में जो शब्द निर्जीव-से पड़े रहते हैं वह कविता में शामिल होते ही बजने लगते हैं, थिरकने लगते हैं। कविताएँ वह ब्यूटी पार्लर है, जहाँ हमारे आंतरिक सौन्दर्य को निखारा जाता है, कविताएँ वह वर्कशॉप है जहाँ हमारी ज़िन्दगी की गाड़ी की मरम्मत की जाती है, कविता हमारी सोच की मशीन के नट बोल्ट है, कविता हमारे विचारो की लेथ मशीन का ग्रीस है, कविता हमारे मस्तिष्क की भट्टी का इधन है, कविता सेंसेक्स का वह आंकड़ा है, जिसमें कितनी भी मुनाफा वसूली कर लो यह नीचे नहीं आता। कविताएँ एक प्रकार का अनुष्ठान है, यज्ञ है, हवन है| कविताएँ वह युद्ध विमान हैं, जो किसी राडार की चपेट में नहीं आते और जब पायलेट अदम गोंडवी हो तो ग़ज़लों, शेरों, नज़्मों, मुक्तक की जो बम बारी होगी कि ख़राबी, बेईमानी, कुरीति, हिंसा, साम्प्रदायिकता जैसी डायन को मुँह छुपाने की भी जगह नहीं मिलती है। अदम अपने समय को कैसे दर्ज करते हैं उसका एक अंदाज़ देखा जाये–
जिस्म क्या है, रूह तक सबकुछ खुलासा देखिये
आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिये
जो बदल सकती है इस दुनिया के मौसम का मिज़ाज
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये
जल रहा है देश, यह बहला रही है कौम को
किस तरह अश्लील है संसद की भाषा देखिये
म्त्स्यग्न्धा फिर कोई होगी किसी ऋषि का शिकार
दूर तक फैला हुआ गहरा कुहासा देखिये
अदम जी की भाषा क्लिष्ट नहीं है मगर उनका मिशन कठिन है। सारी सुख-सुविधाओं से मुँह मोड़; उपेक्षित के पक्ष में खड़ा हो जाना हँसी खेल नहीं होता। बालकनी में खड़े होकर जुलूस देखना अलग बात है और जुलूस का हिस्सा बनना अलग बात है। कवि और पाठक के बीच वन वे ट्राफिक हो यह ठीक बात नहीं है। कवि जितना हमारी ओर आता है उतना हमें भी कवि की ओर जाना चाहिए। अगर वह बहुत लिख रहा है तो हमें उसे पढना भी ख़ूब चाहिए, उसके लेखन को फैलाना चाहिए, उसके लिखे की चर्चा करनी चाहिए, अगर हमें विश्वास है कि वह हमारे साथ है तो उसे भी इस बात का भरोसा होना चाहिए कि उसका पाठक उसके साथ खड़ा है। ज़रा अदम गोंडवी की सादगी और फिर उसमें छिपे प्रहार को देखिये-
एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिये
चार-छ: चमचे रहे, माइक रहे, माला रहे
और आगे देखते हैं–
न महलों की बुलंदी से, न लफ़्ज़ों के नगीने से
तमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से
बहारे-बेकिरा में ता-कयामत का सफ़र ठहरा
जिसे साहिल की हसरत है उतर जाये सफ़ीने से
अदीबों की नई पीढ़ी से मेरी ये गुजारिश है
संजोकर रक्खे धूमिल की विरासत को करीने से
मानवता का दर्द लिखेंगे, माटी की बू–बास लिखेंगे
हम अपने इस कालखंड का एक नया इतिहास लिखेंगे
सदियों से जो रहे उपेक्षित श्रीमन्तों के हरम सजाकर
उन दलितों की करुण कहानी मुद्रा से रैदास लिखेंगे
प्रेमचंद की रचनाओं को एक सिरे से ख़ारिज करके
ये ओशो के अनुयायी हैं, कामसूत्र पर भाष लिखेगे
एक अलग ही छवि बनती है परम्परा भंजक होने से
तुलसी इनके लिए विधर्मी, देरिदा को ख़ास लिखेंगे
इनके कुत्सित सम्बन्धों से पाठक का क्या लेना-देना
लेकिन ये जो अड़े है ज़िद पर अपना भोग-विलास लिखेंगे
अदम गोंडवी, जिन्होंने हमें जीवन का सलीक़ा सिखाया, उस शब्दों के शिल्पी को मैं उनके ही शब्दों में श्रद्धांजलि देकर विदा लूँगा–
आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िन्दगी
हम ग़रीबों की नज़र में इक क़हर है ज़िन्दगी
भूखमरी की धूप में कुम्हला गई अस्मत की बेल
मौत के लम्हात से भी तल्खतर है ज़िन्दगी
– अख़तर अली