स्मृति
महादेवी वर्मा
जन्म -26 मार्च 1907 (फ़र्रुखाबाद, उत्तर प्रदेश)
निधन -11 सितम्बर 1987 (प्रयाग)
प्रमुख कृतियाँ – नीहार (1930), रश्मि (1932), नीरजा (1934), सांध्यगीत (1935), दीपशिखा (1942), प्रथम आयाम (1984), अग्निरेखा (1990)। चुनी हुई रचनाओं के संकलन: यामा (1940), गीतपर्व, परिक्रमा, संधिनी, आत्मिका (1983), दीपगीत (1983), नीलाम्बरा (1983)
काव्य संग्रह यामा (1940) के लिये ज्ञानपीठ पुरस्कार (1982), भारत भारती (1943), पद्म विभूषण (1988, मरणोपरांत) से सम्मानित।
हिंदी के विशाल मंदिर की सरस्वती और छायावादी युग की चतुर्थ स्तम्भ महादेवी वर्मा के विशाल रचना संसार में गद्य, पद्य, चित्रकला और बाल साहित्य सभी को स्थान मिला है। वे जीवन-पर्यन्त कुछ न कुछ सृजन करती ही रहीं।
महादेवी वर्मा की कविताएँ
संसार
निश्वासों का नीड़, निशा का
बन जाता जब शयनागार,
लुट जाते अभिराम छिन्न
मुक्तावलियों के बन्दनवार,
तब बुझते तारों के नीरव नयनों का यह हाहाकार,
आँसू से लिख लिख जाता है ‘कितना अस्थिर है संसार’!
हँस देता जब प्रात, सुनहरे
अंचल में बिखरा रोली,
लहरों की बिछलन पर जब
मचली पड़तीं किरनें भोली,
तब कलियाँ चुपचाप उठाकर पल्लव के घूँघट सुकुमार,
छलकी पलकों से कहती हैं ‘कितना मादक है संसार’!
देकर सौरभ दान पवन से
कहते जब मुरझाये फूल,
‘जिसके पथ में बिछे वही
क्यों भरता इन आँखों में धूल’?
‘अब इनमें क्या सार’ मधुर जब गाती भँवरों की गुंजार,
मर्मर का रोदन कहता है ‘कितना निष्ठुर है संसार’!
स्वर्ण वर्ण से दिन लिख जाता
जब अपने जीवन की हार,
गोधूली, नभ के आँगन में
देती अगणित दीपक बार,
हँसकर तब उस पार तिमिर का कहता बढ बढ पारावार,
‘बीते युग, पर बना हुआ है अब तक मतवाला संसार!’
स्वप्नलोक के फूलों से कर
अपने जीवन का निर्माण,
‘अमर हमारा राज्य’ सोचते
हैं जब मेरे पागल प्राण,
आकर तब अज्ञात देश से जाने किसकी मृदु झंकार,
गा जाती है करुण स्वरों में ‘कितना पागल है संसार!’
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कौन?
ढुलकते आँसू सा सुकुमार
बिखरते सपनों सा अज्ञात,
चुरा कर अरुणा का सिन्दूर
मुस्कराया जब मेरा प्रात,
छिपा कर लाली में चुपचाप
सुनहला प्याला लाया कौन?
हँस उठे छूकर टूटे तार
प्राण में मँड़राया उन्माद,
व्यथा मीठी ले प्यारी प्यास
सो गया बेसुध अन्तर्नाद,
घूँट में थी साकी की साध
सुना फिर फिर जाता है कौन?
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सूनापन
मिल जाता काले अंजन में
सन्ध्या की आँखों का राग,
जब तारे फैला फैलाकर
सूने में गिनता आकाश;
उसकी खोई सी चाहों में
घुट कर मूक हुई आहों में!
झूम झूम कर मतवाली सी
पिये वेदनाओं का प्याला,
प्राणों में रूँधी निश्वासें
आतीं ले मेघों की माला;
उसके रह रह कर रोने में
मिल कर विद्युत के खोने में!
धीरे से सूने आँगन में
फैला जब जातीं हैं रातें,
भर भरकर ठंढी साँसों में
मोती से आँसू की पातें;
उनकी सिहराई कम्पन में
किरणों के प्यासे चुम्बन में!
जाने किस बीते जीवन का
संदेशा दे मंद समीरण,
छू देता अपने पंखों से
मुर्झाये फूलों के लोचन;
उनके फीके मुस्काने में
फिर अलसाकर गिर जाने में!
आँखों की नीरव भिक्षा में
आँसू के मिटते दाग़ों में,
ओठों की हँसती पीड़ा में
आहों के बिखरे त्यागों में;
कन कन में बिखरा है निर्मम!
मेरे मानस का सूनापन!
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अधिकार
वे मुस्काते फूल, नहीं
जिनको आता है मुर्झाना,
वे तारों के दीप, नहीं
जिनको भाता है बुझ जाना;
वे नीलम के मेघ, नहीं
जिनको है घुल जाने की चाह
वह अनन्त रितुराज,नहीं
जिसने देखी जाने की राह;
वे सूने से नयन,नहीं
जिनमें बनते आँसू मोती,
वह प्राणों की सेज,नही
जिसमें बेसुध पीड़ा सोती;
ऐसा तेरा लोक, वेदना
नहीं,नहीं जिसमें अवसाद,
जलना जाना नहीं, नहीं
जिसने जाना मिटने का स्वाद!
क्या अमरों का लोक मिलेगा
तेरी करुणा का उपहार?
रहने दो हे देव! अरे
यह मेरा मिटने का अधिकार!
– महादेवी वर्मा