धरोहर
महाकवि अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’: काव्य में सामाजिक सरोकार
– डाॅ. मुकेश कुमार
15 अप्रैल सन् 1865 ई. वैशाख कृष्ण 3, 1922 को तमसा नदी के किनारे उत्तरप्रदेश के आजमगढ़ जि़ले के निज़ामाबाद में जन्मे कवि सम्राट अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ हिन्दी के उन आधार स्तम्भों में से एक हैं, जिनका ऋणी आज पूरे भारत देश का सारा हिन्दी जगत् एवं बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय है। इनके पिता का नाम पंडित भोला सिंह उपाध्याय और माता का नाम श्रीमती रूक्मिणी था। सन् 1879 में निज़ामाबाद के तहसीली स्कूल में इन्हें मिडिल की परीक्षा पास की और सन् 1884 ई. में उसी स्कूल में अध्यापन का कार्य किया। 1889 में कानून गोई की परीक्षा पास करके कानूनगो बन गए। 34 वर्ष तक यह कार्य किया। अवकाश प्राप्त करने पर सन् 1923 ई. में पं. मदनमोहन मालवीय जी के अनुरोध से ये काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभाग में प्रोफ़ेसर के पद पर नियुक्त हुए। जहाँ सन् 1941 ई. तक इन्होंने अवैतनिक रूप से अध्यापन कार्य किया। ”हरिऔध जी का विवाह सन् 1882 ई. मंे अनंतकुमारी जी के साथ हुआ। इनसे एक पुत्र और एक कन्या का जन्म हुआ। इनके पुत्र का नाम सूर्यनारायण और पौत्रों का केश्वदेव और मुकुंददेव है। उपाध्याय जी धार्मिक प्रवृत्ति के चरित्रवान व्यक्ति थे। हिन्दी, उर्दू, फारसी, संस्कृत, गुरुमुखी और बँगला आदि भाषाओं का उन्हें स्वाध्याय प्राप्त किया।
”प्रातः काल वे नित्यप्रति पाँच बजे शैय्या त्याग देते थे। उठने के पश्चात् वे शौच जाते थे। शौच-स्नान में वे लगभग एक घण्टा रहते थे। उनका शौच स्थान बड़ा ही स्वच्छ रहता था और उसका कोई दूसरा व्यक्ति उपयोग नहीं करता था। शौच स्थान में इतना समय लगाने का एक कारण था। वे प्रातः काल इसी कारण चिंतन करते थे। शौच से निवृत्त होकर वे मुँह हाथ धोकर अपनी चैकी पर आकर बैठ जाते थे। अपने ‘बाॅक्स’ से ‘नक्स’ और ‘सल्फर’ दवा की दो गोलियाँ निकाल कर वे खा लिया करते थे। यही उनका प्रातः काल का जलपान था।“1 ‘प्रियप्रवास’, वेदैही वनवास, बोलचाल, चोखे, चैपदे, रसकलस, पद्य प्रसून, पारिजात, ठेठ हिन्दी का ठाठ, अधखिला फूल। चुभते, चैपदे बाल-कवितावली, आदि रचनाओं का सृजन किया। ‘ठेठ हिन्दी का ठाठ’ जो कि सन् 1899 ई. में संग विलास प्रेस, पटना द्वारा प्रकाशित किया गया। यह उपन्यास इंग्लैण्ड मंे आई.सी.एस. के कोर्स में स्वीकृत होने के बाद तत्कालीन शिक्षा बिन्दु जाॅर्ज ग्रियर्सन के पत्र का हिन्दी रूपान्तरण किया गया। 16 मार्च 1947 ई. होली के दिन यह हिन्दी साहित्य का सूर्य अस्त हो गया। ‘प्रिय प्रवास’ जैसे महाकाव्य का सृजन खड़ी बोली में किया जो खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य जाना जाता है।
महाकवि अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ जी का उद्देश्य हमेशा मानव कल्याण का ही रहा है। वे ‘वैदेही वनवास’ में ‘राम’ के द्वारा मानव कल्याण चाहते हैं। वे कहते हैं कि प्रत्येक मानव का कल्याण को, सभी सुखी रहें। उनके ‘राम’ हमेशा लोकहित के बारे में सोचते हैं। वे कहते हैं सब का भला हो किसी परक किसी प्रकार की आपत्ति नहीं आये-
”सबको सुख हो कभी नहीं कोई दुःख पाये।
सबका होवे भला किसी पर बला न आये।।
कब यह सम्भव है पर है कल्पना निराली।
है इसमें रस भरा सुधा है इसमें ढाली।।“2
मर्यादा पुरुषोत्तम लोकसेवक राम के चरित्र का मूल्यांकन किया गया। उनकी युगल छवि को दर्शाया गया। हे दशरथ नन्दन अर्थात् उनकी कुलीनता आजानु-बाहु, सरसीरूह, लोचन व उनके प्रिय दर्शन मर्यादा के धाम, शील-सौजन्य आदि विभिन्न गुणों का वर्णन किया है वे लोक कल्याणकारी है-
”उपवन के अति-उच्च एक मण्य मंे विलासी।
मूर्ति-युगल इन दृश्यों को देखे थी विकसी।।
इनमें से थे एक दिवाकर कुल के मण्डन।
श्याम गात आजानु-बाहु सरसीरूह-लोचन।।
मर्यादा के धाम शील-सौजन्य-धुरन्धर।
दशरथ नन्दन राम परम-रमणीय-कलेवर।।
थी दूसरी विदेह नन्दिनी लोक ललामा।
सुकृति-स्वरूपा सती विपुल-मंजुल-गुण धामा।।“3
लोकनायक ‘राम’ प्रजा के हित कार्यों में लगे हुए हैं। वे अपनी प्रजा को कभी दुःखी नहीं देख सकते। वे दण्ड-नीति में सरलता से विचारते हैं। वे कहते हैं कि राजा का पद हमेशा कत्र्तव्यों का पालन करने के रास्ते पर चलता है। जिस देश मंे अशान्ति होती है वहाँ क्रांति जन्म लेती है। लेकिन जहाँ शांति होती है, जहाँ लोक हित के कार्य राजा द्वारा किए जाते हैं वहाँ सुन्दर-सुन्दर फूल ही खिलते हैं। ‘हरिऔध’ जी के ‘राम’ लोक कल्याणी, सेवक व कत्र्तव्य परायण राजा थे।
”राजा पद कत्र्तव्यों का पथ।
गहन है, है अशान्ति आल्य।।
क्रांति उसमें है दिखलाती।
भरा होता है उसमें भय।।
इसी से साम-नीति ही को।
बुधों से प्रथम स्थान मिला।।
यही है वह उद्यान जहाँ।
लोक आराधन सुमन खिला।।“4
राम मर्यादा का पालन करने वाले राजा है। उन्होंने विवाह की पावन प्रथा की नींव दी। धर्म को मर्यादा में बांधकर रखा। उन्होंने प्रेम और कत्र्तव्य के द्वन्द्व में कत्र्तव्य मार्ग का ही अनुसरण किया। वे हमेशा कत्र्तव्य पथ पर ही चले।
हरिऔध जी के ‘राम’ मर्यादा व कत्र्तव्य परायण रहे हैं-
”कमल-नयन राम ने कमल से-
मृदुल करों से पकड़ प्रिया-कर।।
दिखा हृदय-प्रेम की प्रवणता।
उन्हें बिठाला मनोज्ञ रथ पर।।“5
महाकवि ‘हरिऔध’ जी ने अपनी रचना ‘पद्य-प्रसून’ में बताया है कि समाज को ऐसे आचार्यों (गुरु) की जरूरत है, जो व्यास जी के तुल्य हों, जो लोहे के समान बुरे व्यक्तियों को भी स्वर्ण मंे बदल दें। अर्थात् सबके जीवन मंे अच्छे संस्कार भर दें। हमें ऐसे पुरोहितों की जरूरत है जो समाज में अपनी माया के कारण प्रतिष्ठ को न खोयें। धर्म को पैसे के समान न समझें, उसकी तुलना पैसे से न करें। वही पुरोहित समाज के लिए उपयोगी होगा-
”गुरु चाहिए हमें ठीक पारस के ऐसा।
जो लोहे को कसर मिटा सोना कर डाले।।
टके के लिए धूल में न निज मान मिलावे।
लोभ लहर में भूल न सुरूचि सुरीति बहाले।।
हमें चाहिए सरल सुबोध पुरोहित ऐसा।
जो घर घर मंे सकल सुखों की सोत लसावे।।“6
‘हरिऔध’ जी ने समाज को संदेश दिया है कि हमें ऐसा राजा चाहिए जो प्रजा को भी प्यारा लगे। जिसे देश के प्रति कत्र्तव्य परायण व वफादार हो, जिसकी नसों में देेश प्रेम की भावना हो, जो सब का हितैषी हो, जो सबको प्रिय अनुपम लगे। सब का भला सोचता हो जिसे खून में देश के प्रति धारा प्रवाहित हो-
”जो हो राजा और प्रजा दोनों का प्यारा।
जिसका बीते देश प्रेम मंे जीवन सारा।।
देश-हितैषी हमें चाहिए अनुपम ऐसा।
बहे देश हित की जिसकी नस-नस में धारा।।“7
पं. अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ जी द्वारा रचित ‘प्रियप्रवास’ के नायक श्रीकृष्ण जी समाज सेवी, समाज सुधारक, आत्मत्यागी, लोक सेवक, जननायक आदि रूपों में चित्रित है। उन्होंने समाज के अनेक कष्टों को दूर किया। ब्रज में विषैला जल पीकर मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग सभी प्रत्येक वर्ष मृत्युगामी होते थे। एक दिन गायों के साथ ग्वाले विषाक्त तट पर गये। तो उन्होंने विष वाला जल पिया। जैसे ही आगे बढ़े तभी वह गिर गये। वहाँ कृष्ण जी पहुँचे और उन प्राणियों की रक्षा की। स्वजाति प्राणियों की रक्षा की सभी के कष्टों को दूर किया-
”स्व जाति की देख अतीत दुर्दशा।
विगर्हणा देख मनुष्य मात्र की।
विचार के प्राणी समूह कष्टों को।
हम समुत्तेजित वीर केशरी।।
हितैषणा से निज जन्म भूमि की।
अपार-आवेश हुआ ब्रजेश को।
बनी महा बंक गँठी हुई भवें।
नितान्त-विस्फारित नेत्र हो गये।।“8
इसी प्रकार श्रीकृष्ण जी ने अपनी जाॅन को जोखिम में रखकर प्राणी मात्र के लिए कार्य किया। वह यमुना के उस विषाक्त कुण्ड में कूदकर अपने शक्तिशाली भुजंगिनियों से भुजंग को साथ ही विमुग्ध बनाकर उसको ब्रज में छोड़ा। उन्हें अपनी जन्मभूमि से प्रेम था। वह हर प्राणी पर परोपकार करता रहा। प्रत्येक प्राणी की रक्षा की-
”अतः करूँगा यह कार्य मैं स्वयं।
स्व हस्त मैं दुर्लभ प्राण को लिये।।
स्व जाति औ जन्म-धरा निमित्त मैं।
न भीत हूँगा विकराल व्याल से।।
सदा करूँगा अपमृत्यु सामना।
सन्भीत हूँगा न सुरेन्द्र वृज से।
कभी करूँगा अवहेलना न मैं।
प्रधान-धर्माग-परोपकार की।।
प्रवाह होते तक शेष श्वास के।
स-रक्त होते तक एक भी शिरा।
स-शक्त होते तक एक लोभ के
किया करूँगा हित सर्वभूत का।।“9
महाकवि हरिऔध जी द्वारा ‘वैदेही वनवास’ में सीता के उच्च चरित्र के दर्शन होते हैं। जो एक साहसी, तपस्वी, कत्र्तव्य परायणी, लोक सेविका, लोक कल्याणी, आज्ञाकारी आदि रूप में दिखाई देती है। क्योंकि वह सामाजिक हित व लोक कल्याण के लिए सब कुछ छोड़ने के लिए तैयार है। जब राम सीता के सम्मुख वन की ओर प्रस्थान करने का प्रस्ताव रखते हैं तो वह सद्गृहिणी व अर्द्धंगिनी के रूप मंे अपने प्रियतम की उद्देश्य सिद्धि के लिए हमेशा आज्ञा स्वीकार करती है अर्थात् उनकी आज्ञा का पालन करती है-
”वही करूँगी जो कुछ करने की मुझको आज्ञा होगी।
त्याग करूँगी, इष्ट सिद्धि के लिए बना मन को योग
सुख-वासना स्वार्थ की चिन्ता दोनों से मुख मोडुँगी।
लोकाराधना या प्रभु-आराधन निमित सब छोडूँगी।।“10
हरिऔध की सीता ‘रामचरितमानस की सीता से हटकर रही हैं। वह धर्म आदि को छोड़कर केवल लोक कल्याण के कार्यों में तल्लीन है। वह भगवान की उपासना लोकहित, लोक कल्याण के लिए करती है। वह कहती है कि मैं हमेशा लोक हित के कार्य करती रहूँगी। हरिऔध जी की सीता एक साहसी, लोककल्याण करने वाली नारी है। जो आज के समाज को भी शिक्षा मिलती है।
”भवहित पथ मंे क्लेशित होता जो प्रभु पद को पाऊँगी।
तो सारे कण्टित मार्ग में अपना हृदय बिछाऊँगी।।
अनुरागिनी लोकहित की बन सच्ची-शान्ति-रता हूँगी।
कर अपवर्ग मन्त्र का साधन तुच्छ स्वर्ग को समझूँगी।।“11
तत्कालीन समाज की स्थिति बड़ी दयनीय हो गई थी। नारी को सताया जा रहा था। विधवा स्त्रियों की दशा सोचनीय थी। बाल-विवाह का प्रचलन था। उस पर तरह-तरह के अत्याचार किये जा रहे थे। स्त्रियाँ शोषण की शिकारी होता जा रही थी। महाकवि हरिऔध जी ने अपने चैपदों के माध्यम से देश एवं जाति की भावनाओं को जगाने का प्रयास किया-
”मर्द चाहें माल चाबा ही करें।
औरतें पीती रहेंगी माँड़ ही।।
क्यों न रँडुये ब्याह कर लें बीसियों।
पर रहेगी राँड़ सब दिन राँड़ ही।।“12
सारांश रूप में कहा जाता है कि महाकवि ने व्यक्ति में उस चेतना को जागृत करने का प्रयास किया है जो व्यक्ति के ‘स्व’ की समाप्ति करके उसे सामाजिक एवं लोक कल्याण की ओर अग्रसर करे। ‘प्रियप्रवास’, वैदेही वनवास में श्रीकृष्ण व राम जैसे नायक और राधा व सीता जैसी नायिका को केंद्र बिन्दू में रखकर हमेशा समाज के कार्यों, लोक कल्याण, नैतिकता, कत्र्तव्य परायण,
वसुधैव कुटुम्बकम, मातृभूमि रक्षा, सब प्राणियों का हितैषी व समाज में फैली बुराईयों को जड़ से खत्म करने का कार्य किया है और इनका साहित्य आज के दौर में प्रासंगिक है।
संदर्भ-
1. मुकुन्ददेव शर्मा, हरिऔध जीवन और कृतित्व, पृष्ठ 18
2. सम्पा. सदानन्द शाही, अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ रचनावली खण्ड।
(वैदेही वनवास) प्रथम सर्ग-78, पृष्ठ 310
3. वही, 14-15, पृष्ठ 301
4. वही, 82-83, पृष्ठ 332, 333
5. वही, 24, पृष्ठ 371
6. पद्य-प्रसून, पृष्ठ 35
7. वही, पृष्ठ 36
8. प्रियप्रवास (एकादश सर्ग) 22-23, पृष्ठ 166
9. वही, 25-26-27, पृष्ठ 166-167
10. वैदेही वनवास (पंचम सर्ग) 27, पृष्ठ 350
11. वही (पंचम सर्ग) 28, पृष्ठ 350
12. चुभते चैपदे (खण्ड तीन), पृष्ठ 288
– डाॅ. मुकेश कुमार