ख़ास-मुलाक़ात
महसूस करो तो पूरी कायनात में कविता बिखरी पड़ी हैं: ममता किरण
ममता किरण साहित्य की दुनिया का जाना-पहचाना नाम है। वे वर्षों से न केवल देश बल्कि विदेशों में साहित्य और हिन्दी भाषा का परचम बुलन्द किये हुए हैं। आप अन्य कई विधाओं के साथ-साथ अपनी बेहतरीन ग़ज़लों के भी जानी जाती हैं। इस वरिष्ठ ग़ज़लकार से ग़ज़ल और उनके जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण पहलुओं पर बात कर उन्हें आप तक पहुँचाने का एक प्रयास है यह मुलाक़ात। उम्मीद करता हूँ ग़ज़ल और साहित्य के चाहने वालों के लिए उपयोगी होगी।
अनमोल- हर एक ग़ज़लकार के लिए ग़ज़ल का अपना एक अर्थ है। आपके लिए ग़ज़ल क्या है?
ममता जी- ग़ज़ल में एक जादू है और उस जादू की ओर अपने को खिंचा हुआ पाती हूँ। ये जादू मुझे इसलिए भी लगता है कि जहाँ ज़्यादातर छन्दमुक्त कविता में देखने में आता है कि एक लंबा-चौड़ा वितान होने के बाद भी कविता संप्रेषित नहीं होती या जिस पंच की दरकार है, वो ही नहीं होती तो लगता है कि शब्दों का कितना अपव्यय! ऐसा नहीं है कि छन्दमुक्त कविताएँ सब ऐसी ही हैं। बहुत सारी कविताएँ हमारे सामने एक मानक के रूप में स्थापित हैं। मैंने ख़ुद भी छंदमुक्त कविताओं से शुरुआत की थी। एक संग्रह ‘वृक्ष था हरा-भरा’ प्रकाशित हुआ, जिसे पाठकों और आलोचकों से भरपूर स्नेह भी मिला पर बाद में ग़ज़ल की तरफ आयी तो फिलहाल इधर ही मन रम रहा है अपनी बात कहने के लिए। काव्य की ये विधा ग़ज़ल; मुझे इसलिए भाती है कि सधे हुए शब्दों में सिर्फ दो मिस्रों में, अपनी बात कहना वो भी सलीके से और गरिमा के साथ कहना और ग़ज़ल की नज़ाकत भी बनी रहे, किसी चुनौती से कम नहीं।
मैं गणित की विद्यार्थी रही और जैसे सवाल हल करने के लिए मशक्कत करनी पड़ती है, उसी तरह ग़ज़ल कहने के लिए भी क़ाफ़िया, रदीफ़ के साथ थोड़ी मशक्कत यानी दिमाग़ी कसरत करनी पड़ती है। क़ाफ़िये ढूंढ़ना और उसमें आपकी बात जो आप कहना चाहते हैं और फिर बह्र में होना, सच पूछिए तो मुझे बड़ा आनंद आता है। ग़ज़ल कहते हुए मुझे लगता है कि मैं गणित का सवाल हल कर रही हूँ।
ग़ज़ल में छंद, लय, ताल, गति है जो फौरन ज़ुबान पर चढ़ती है और संसद से लेकर सड़क तक आम आदमी से लेकर चिंतक/विचारक तक शे’र का उपयोग करते हैं अपनी बात कहने के लिए और जिसका प्रभाव भी पड़ता है सुनने वाले पर।
अनमोल- वाकई ग़ज़ल ज़िन्दगी के कई सवाल अपनी तरह से हल कर रही है। आपने अभी बताया कि आपने लेखन के क्षेत्र में कविता के माध्यम से क़दम रखा, फिर ग़ज़ल की तरफ़ कैसे आना हुआ?
ममता जी- काफी वर्ष पत्रकारिता में रही तो बहुत सारा लेखन अख़बार के अनुरूप किया। आलेख, साक्षात्कार, पुस्तक समीक्षाएँ आदि। कविता से जुड़कर एक अद्भुत अनुभूति होती है और जब आप सृजन की प्रक्रिया में होते हैं तो एक दिव्य अनुभव होता है। आप कलम-काग़ज़ के साथ कहाँ-कहाँ विचरण करते हैं, ज़मी से लेकर चाँद सूरज तक। कभी-कभी तो परकाया में भी प्रवेश करते हैं। उनके दुःख, उनके साथ हुआ अन्याय महसूस करते हैं और जन्म देते हैं किसी रचना को। मेरा ग़ज़ल की तरफ़ आना एक घटना से हुआ। मेरे पतिदेव की पोस्टिंग जम्मु-कश्मीर के कठुआ में थी और उन दिनों मैं अपने बच्चों की पढ़ाई की वज्ह से दिल्ली में रह रही थी। बीच में एक बार समय निकाल कर चार-पाँच दिनों के लिए कठुआ गयी। कठुआ से लगा हुआ पठानकोट है और वहाँ सुप्रसिद्ध शायर राजेंद्र नाथ ‘रहबर’ रहते हैं। ग़ज़ल को अपनी मधुर आवाज़ से जन-जन तक पहुंचाने वाले लोकप्रिय गायक जगजीत सिंह ने रहबर जी की नज़्में और ग़ज़लें गायीं हैं। ‘तेरी खुशबू में बसे ख़त मैं जला आया हूँ’ मुझे पसंद है। पतिदेव ने कहा कि ये लिखने वाले शायर रहबर जी यहीं पठानकोट में रहते हैं, उनसे मिलना है। मैंने तुरंत हामी भर दी और मन में मिश्रित भाव लिए पहुंच गयी उनसे मिलने। उन्होंने अपना संग्रह भेंट किया और ख़ुशी ज़ाहिर की कि मैं कविताएँ लिखती हूँ। दो तीन दिन बाद मेरे सम्मान में एक गोष्ठी का भी आयोजन किया गया और जब सदारत के लिए रहबर जी को कहा गया तो उन्होंने घोषणा कर दी कि सदारत तो ममता किरण जी करेंगी। (सदारत…मतलब…अनुमान लगा लिया था…उर्दू की दुनिया से नावाकिफ़ थी और वो मेरा पहला क़दम था उर्दू की महफ़िल में) खैर गोष्ठी चली। उसमें सभी 30-35 लोगों ने ग़ज़लें पढ़ीं और अन्त में अपनी बात कहने के साथ बड़े संकोच से मैंने कविताएं पढ़ीं। गोष्ठी संपन्न हुई, घर आयी पर कहीं न कहीं एक कीड़ा कुलबुलाने लगा कि ये क्या बात हुई! मेरे पास भी ग़ज़ल होनी चाहिए और मैं भी ग़ज़ल सुनाती तो कितना अच्छा होता! (ऐसा नहीं था कि मेरी कविताओं को तवज्जो नहीं मिली। बड़े प्यार से सुना गया। लोगों की दुआएँ, मोहब्बतें मिलीं मगर फिर भी…) बहरहाल कठुआ से दिल्ली के रास्ते ट्रेन में ही इसका बीज पड़ गया।
मैं मानती हूँ कि ये रहबर जी का और उस महफ़िल का प्रभाव था कि मेरा ग़ज़ल की तरफ आना हुआ और ये बड़े लोगों की विनम्रता कि तमाम स्थानीय वरिष्ठ लोगों के होते हुए मेरा सत्कार गोष्ठी में मेरी सदारत करवा कर किया और अनजाने मुझे प्रेरित भी किया।
अनमोल- आप जब ग़ज़ल लेखन में आईं तब आपको इस क्षेत्र में किस तरह का साहित्यिक माहौल मिला?
ममता जी- अपने आसपास देखती हूँ तो एक अच्छा माहौल मिला। वरिष्ठ शायर इस्लाह करने में कभी गुरेज नहीं करते। ग़ालिब एकेडमी में ग़ालिब की याद में प्रतिवर्ष 22 फरवरी को तरही मुशायरा होता है। ग़ालिब के मिस्रे पर ग़ज़ल कहनी होती है। उस वर्ष मैं भी वहाँ पहली बार पढ़ रही थी उस मुशायरे में, मैंने ग़ज़ल कही और संयोग से उससे पहले मेरा जाना हुआ सुप्रीम कोर्ट के वकीलों की संस्था ‘कवितायन ‘में कविता पढ़ने के लिए। वहाँ ग़ालिब के मिस्रे पर कही ताज़ा ग़ज़ल सुनायी टेस्ट करने के लिए। वाहवाही मिली पर वहाँ ग़ज़ल के पारखी भी थे और उन्होंने मुझसे कहा कि आप कार्यक्रम के बाद मिलिएगा। बाद में मिली तो उन्होंने वो ग़ज़ल मुझसे फिर से सुनी और बताया कि एक दो जगह यह बह्र से ख़ारिज है, इसे यूँ कर लें अगर आप चाहें तो…और वो हैं सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता, शायर अनीस अहमद खां साहब। कहना चाहती हूँ कि उनसे मेरा कोई पूर्व परिचय नहीं था फिर भी उन्होंने मुझे टोका और बताया। पिछले 8-9 वर्षों से प्रतिवर्ष लगातार वहाँ पढ़ रही हूँ और कई बार उर्दू अख़बारों में मेरा शे’र हेडलाइन भी बना।
यूँ मेरा कोई उस्ताद नहीं है पर जब कभी लगता है तो उस्ताद शायर सीमाब सुल्तानपुरी जी, उस्ताद शायर रहबर जी से इस्लाह ले लेती हूँ। जहाँ तक पत्र- पत्रिकाओं में छपने की बात है तो उसमें भी अच्छा रिस्पांस मिला। पाठकों और श्रोताओं से मिले स्नेह और उनकी प्रतिक्रियाओं ने मुझे और प्रेरणा दी और ये सिलसिला चल पड़ा।
अनमोल- एक महिला रचनाकार होने के चलते शुरुआती दिनों में आपको किन-किन चुनौतियों से जूझना पड़ा?
ममता जी- मेरे सामने किसी भी प्रकार की चुनौती न रही, न है और मुझे नहीं लगता कि कभी होगी भी। कारण- एक तो मेरी ऐसी कोई हल्की महत्वाकांक्षा नहीं कि चुनौती होती, दूसरे मेरे सरोकार सामाजिक-साहित्यिक हैं न कि हल्की-फुल्की बात कह मंचों को लूटना और अपनी गरिमा से समझौता करना। यदि कोई शे’र, कविता की पंक्ति किसी के ज़ेहन में रह जाए- मेरे लिए ऐसा कहना चुनौती है और इसमें माँ सरस्वती की कृपा से कामयाबी मिली है।
अनमोल- महिला ग़ज़लकारों ने ग़ज़ल की शुरुआत से ही अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। यदि उम्दा ग़ज़लकारों की फ़हरिस्त बने तो कई महिला ग़ज़लकारों के नाम शामिल होंगे। लेकिन फिर भी बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक महिला ग़ज़लकारों की गिनती बहुत कम रही। क्या कारण हो सकते हैं?
ममता जी- इसके कारण व्यापक हैं। पितृसत्तात्मक व्यवस्था, आप देखिए हर क्षेत्र में महिलाएँ क्या पुरुषों से कहीं कम हैं? नहीं। आज तो उन्होंने ज़मीन से लेकर आकाश तक अपनी शानदार उपस्थिति दर्ज करायी है फिर भी उनका प्रतिनिधित्व कितना है! चाहे राजनीति हो या कोई और क्षेत्र। इस विषय पर लम्बी बात हो सकती है। हमारा कितना सारा लोक साहित्य; जो कि महिलाओं ने रचा, अनाम है। शुक्र ये है कि वाचिक परंपरा द्वारा वो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पहुंच गया और बचा रहा। हमारे भारतीय परिवारों में तो कितनी ही रचनाकार ऐसी रहीं हैं, जिन्होंने छुपकर लिखा क्योंकि उनका परिवार पसंद नहीं करता था। इतने बड़े कवि सम्मेलनों और मुशायरों में सिर्फ एक या ज़्यादा से ज़्यादा दो कवियत्री या शायरा का बुला लेना क्या काफी है! और उन्हें आयोजक किस मानसिकता के तहत बुलाते हैं, ये भी छिपा नहीं है कि श्रृंगार पढ़ेगी और गाकर पढ़ेगी।
अनमोल- इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में ही सोशल मीडिया के आ जाने से लेखन के अन्य क्षेत्रों की भांति महिला ग़ज़लकारों की संख्या में भी इज़ाफा हुआ है। यह एक शुभ संकेत भी है। क्या उम्मीद करती हैं आप इस बदलाव से?
ममता जी- इस बात की ख़ुशी है कि सोच में बदलाव होना शुरू हुआ है और आज परिवार में यदि कोई महिला लिखती है तो उसका सम्मान होता है। प्रकाशन में भी एक नयी बात ये हुई है कि वरिष्ठतम कवि बालस्वरूप राही जी के नेतृत्व में 6 कवियत्रियों के अलग-अलग संग्रंह मेरी प्रतिनिधि रचनाएँ शीर्षक से एक श्रृंखला प्रकाशित हो रही है। इस श्रृंखला में मेरा भी संग्रह आ रहा है। उल्लेखनीय है कि अब तक कवियों की तो इस तरह की श्रृंखला प्रकाशित होती रही है, जिसमें एक-दो कवियत्रियाँ शामिल रहीं पर इस तरह से सिर्फ कवियत्रियां हों, ऐसी श्रृंखला शायद पहली बार आ रही है। निश्चित रूप से ऐसा विशाल हृदय और सोच रखने वाले हमारे अग्रज कवि राही जी जैसे कवि भी आज इक्का दुक्का ही हैं। इसी तरह मंच पर भी हाल ही में देखने को मिला कि बिहार के 6-7 ज़िलों में कवियत्री सम्मेलन की श्रृंखला आयोजित की गई, ये शुभ संकेत हैं।
सोशल मीडिया एक क्रांति लेकर आया। इसने न सिर्फ पूरी दुनिया को आपस में जोड़ा बल्कि दुनिया के हर व्यक्ति को अपने जज़्बात का इज़हार करने का अवसर दिया।
भारत से बाहर रह रहे रचनाकारों के लिए संवाद करना आसान हुआ। एक ही समय में आप सोशल मीडिया के द्वारा ही विश्व के रचनाकारों से जुड़े हैं। रचनाओं का आदान-प्रदान कितना आसान है। आपने अपनी रचना सोशल मीडिया पर पोस्ट की नहीं कि उस पर प्रतिक्रियाओं के मिलने का सिलसिला शुरू। फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्स ऐप आदि पर रचनाकारों के कुछ गंभीर ग्रुप हैं, जहाँ वास्तव में पठन-पाठन और समीक्षा होती है।
मुझे लगता है कि पहले जो महिलाएँ छटपटाती थीं लिखने-पढ़ने के लिए क्यूंकि उनके घर पर माहौल नहीं होता था और अब वही महिलाएँ सोशल मीडिया के आ जाने से खुलकर अपने भीतर के रचनाकार को अभिव्यक्त कर रही हैं और उनमें से कइयों की कविताएँ, शे़’र तो ख़ूब-ख़ूब वायरल भी हो जाते हैं तो ये कितनी ख़ुशी की बात है। भले ही उनका प्रिंट से सरोकार हो या न हो। आज बहुत उम्दा रचना करने वाली लेखिकाएँ और महिला ग़ज़लकार हमारे सामने हैं और ये सिलसिला बढ़ता रहेगा।
अनमोल- एक तो ग़ज़ल के कथ्य में समकालीनता के समावेश से मिले विस्तार और दूजे, महिलाओं को अपनी बात रखने की मिल रही आज़ादी के चलते, जीवन के कई अनछुए पहलू शे’रों में ढलकर आने लगे हैं। कितनी सहमत हैं आप इस बात से?
ममता जी- पूरी तरह से सहमत हूँ। कहाँ तो ग़ज़ल सिर्फ हुस्न और महबूब से बात करने तक सीमित थी और आज की शायरी चाहे उर्दू ही क्यों न हो, उसका पैरहन भी पूरी तरह बदला हुआ है। इसका श्रेय जाता है दुष्यंत कुमार को; जिन्होंने ग़ज़ल को एक बंधे-बंधाए खांचे से निकाल कर अवाम तक पहुंचाया।
यूँ तो रचनाकार में भेद नहीं, चाहे पुरुष हो या महिला मेरी नज़र में वो रचनाकार ही है। पर एक बात तो माननी पड़ेगी कि ऊपर वाले रचनाकार ने एक अतिरिक्त संवेदनशीलता महिलाओं को दी है। नींद में भी महिला को नल के टपकने की आवाज़ हो या बच्चे के कुनमुनाने की आवाज़ सुनायी पड़ जाती है। तो ये अतिरिक्त संवेदना ऐसे शे’र लिखवा लेती है, जिसे कोई पुरुष रचनाकार नहीं लिख सकता।
जीवन का कोई ऐसा पक्ष नहीं है जहाँ महिला ग़ज़लकारों ने कलम न चलायी हो- घर, परिवार, रिश्ते, राजनीति, समाज, देश, दुनिया, जीवन की विसंगतियाँ इन सबसे मुठभेड़ करती हुई बात बग़ैर किसी बनावट के बहुत सहज रूप से आज शे’रों में ढलकर हमारे सामने हैं।
अनमोल- ग़ज़ल लेखन इन दिनों ख़ूब सराहा जा रहा है। ग़ज़ल पर आलोचनात्मक काम भी अच्छी स्थिति में पहुँच रहा है। ऐसे में महिला ग़ज़ल लेखन को प्रोत्साहन की कितनी ज़रूरत महसूस करती हैं।
ममता जी- काव्य की ग़ज़ल विधा के लिए ये बहुत अच्छा है कि आज ग़ज़ल लेखन में इजाफा हुआ है। आज बहुत सारे युवा रचनाकार ग़ज़ल लिख रहे हैं, निश्चित ही उसमें महिलाएं भी हैं। हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी से जुड़े एक से एक उम्दा शे’र सामने आ रहे हैं।
ग़ज़ल पर आलोचनात्मक काम जो होना चाहिए था वो नहीं हुआ। मुझे लगता है कि हिन्दी में पहले ग़ज़ल को इतनी तवज्जो दी नहीं गयी। साहित्यिक पत्रिकाओं में कभी छपी भी तो देखने पर लगता है कि इसे जैसे फिलर के तौर पर छाप दिया गया। लेकिन इधर ग़ज़ल ने अपनी लोकप्रियता के चलते आलोचकों का ध्यान आकर्षित किया है। कितनी ही पत्रिकाओं के ग़ज़ल विशेषांक निकले। ग़ज़ल संग्रहों में इजाफा हुआ है। पत्रिकाओं में भी उन्हें रुतबे के साथ छापा जा रहा है। अभी मेरी ग़ज़लों को पिछले दिनों ‘पाखी’ में संपादक प्रेम भारद्वाज जी ने अच्छा स्थान दिया। तो स्थितियाँ अब बदली हैं। ग़ज़ल की जनस्वीकार्यता बढ़ी है। इसमें अपने समय का समाज और संदर्भ, जिंदगी की कशमकश के अनेक रंग, दर्शन, चिंतन सभी कुछ मौजूद है, इसे अब अनदेखा नहीं किया जा सकता और मुझे लगता है कि आलोचनात्मक काम भी आगे बढ़ेगा। कुछ पुस्तकें आलोचना की आयी भी हैं।
लेखक को प्रोत्साहन की हमेशा दरकार होती है तो महिला ग़ज़लकारों को भी प्रोत्साहन की दरकार बनी रहनी चाहिए।
पिछले दिनों कथाकार, दोहाकार हरे राम समीप जी ने समकालीन महिला ग़ज़लकार नाम से एक संग्रह सम्पादित किया, जिसमें 22 ग़ज़लकार हैं। मैं भी उसमें शामिल हूँ। तो इस तरह के सिलसिले ज़्यादा से ज़्यादा बनें तो प्रोत्साहन तो मिलता ही है और इस प्रोत्साहन से यह और समृद्ध होती चली जाएगी।
अनमोल- आप पुस्तकों, पत्रिकाओं में प्रकाशन के साथ-साथ मंचों और टीवी पर भी बराबर सक्रिय रहीं। इन दोनों ही क्षेत्रों के बीच सन्तुलन बनाकर अपनी रचनाशीलता को बचाए रखना बहुत मुश्किल काम है। आपने कैसे मैनेज किया यह सब?
ममता जी- जो जीती हूँ, वो लिखती हूँ और जो लिखती हूँ, वो दिखती हूँ। ऐसा नहीं है कि मंच से कुछ और, और पुस्तक या अन्यत्र प्रकाशन के लिए कुछ और। मंच की स्थिति से हम सब वाकिफ़ हैं। इन दिनों सोशल मीडिया पर एक पोस्ट चल रही थी, मंच पर कवियत्री और संचालक के बीच नोंक-झोंक की। ऐसा वास्तव में हो रहा है और ऐसे तमाम वीडियो सोशल मीडिया पर भरे पड़े हैं। कभी-कभी तो लगता है कि कविता की आड़ में क्या ये एक बिजनेस नहीं है! मैं विनम्रतापूर्वक कहना चाहती हूँ- कृपया इसे कविता का मंच न कहें, क्यों न इसे कोई और नाम दे दें! मंचों का एक गौरवमयी इतिहास रहा है और वहाँ सिर्फ साहित्य होता था। निराला, पंत, दिनकर, महादेवी वर्मा, हरिवंश राय बच्चन…. एक लंबी फेहरिस्त है जो मंच से कविता पढ़ती थी। आज तो जो जितनी मसखरी और हल्केपन पर उतारू है वो उतना ही सफल कवि है मंच पर। चैनलों पर भी देखिए न! अव्वल तो इतने सारे चैनलों के बावजूद कहीं कविता नहीं है और है भी तो भों-भों सम्मेलन, गदहा सम्मेलन हैं। अब जैसा नाम वैसी कविता। ये कवि अपनी गरिमा स्वयं गिरा रहे हैं। क्या इनका कुछ भी साहित्य और कविता से लेना-देना है? ये सब शायद त्वरित तो सुख देता होगा पर दीर्घ में ये सब बुहार दिया जाएगा और बचेगी तो सिर्फ कविता।
एक कवि का स्वाभिमान मेरे भीतर रहता है और मंच से भी सिर्फ कविता ही पढ़ती हूँ। एक बार तो ये भी हुआ- 15 अगस्त के अवसर पर एक ही दिन साहित्य अकादमी के कार्यक्रम में भी पढ़ रही हूँ और हिंदी अकादमी के इस अवसर पर होने वाले विशाल कवि सम्मेलन में भी। मंच से कविता सुनाना मुझे अच्छा लगता है क्योंकि आपको श्रोताओं की प्रतिक्रिया तुरंत मिलती है। हर कोई कविता नहीं लिख सकता और यदि आपको ये शरफ़ हासिल है तो कुछ ऐसा सार्थक रचिये कि सुनने वाला, पढ़ने वाला आपको सुनकर अपने भीतर के आप से संवाद स्थापित कर सके।
अनमोल- जीवनसाथी का बिलकुल उन्हीं क्षेत्रों में सक्रिय होना जहाँ आप थीं, जैसे- लेखन, ग़ज़ल लेखन, पत्रकारिता, मंच आदि। ऐसे में सफ़र कितना आसान रहा?
ममता जी- ये मेरे लिए बड़े सौभाग्य की बात है कि मैं भी उन्हीं क्षेत्रों में सक्रिय हूँ। आपने पूछा तो ये तो सही मायने में कंधे से कंधा मिलाकर चलना हुआ, है न!
दरअसल इससे मुझे सुविधा ये रही कि पतिदेव काम की परिस्थितियाँ समझते हैं। यदि मैं रात को 12 बजे लौटी हूँ ऑफिस से तो उन्होंने बच्चों को संभाला। उनकी तरफ से कोई रोक-टोक नहीं रही। बच्चों का बड़ा सहयोग रहा। आपको बताऊँ कि हमारा सारा परिवार कानपुर में है। दिल्ली में पतिदेव की नौकरी की वज्ह से आना हुआ और यहाँ हम लोग अकेले ही रहे और सब स्थितियों को मैनेज किया। मेरे बच्चे स्कूल से आकर अकेले ही रहते थे। आज पीछे मुड़कर देखती हूँ तो लगता है कि कैसे सब मैनेज किया! अचरज स्वयं पर होता है। पर जब कुछ करने का जज़्बा होता है तो सब संभल ही जाता है।
ग्रेजुएशन कर रही थी कि शादी हो गयी। तब पतिदेव ग्वालियर में थे। खुद आगे पढ़ना, बच्चों की परवरिश। तब से लेकर आज, दोनों बच्चे अपने कैरियर में बहुत अच्छा कर रहे हैं। बिटिया अमरीका में वैज्ञानिक है और बेटा भी नैफ्रोलाजिस्ट (किडनी रोगों का विशेषज्ञ डॉक्टर)। अपनी तरफ से बच्चों के अनुसार ही अपना काम-काज रखा।
मेरे कैरियर में बहुत कुछ छूटा, बहुत कुछ नया जुड़ा भी, पर बच्चे, परिवार मेरी प्राथमिकता थी। तो घर पर तो ये अच्छा रहा लेकिन प्रोफेशनली देखें तो कई बार नुकसान भी होता है। वो इस तरह कि कभी उनके हाथ में जब मौका होता है तो वो मेरा नाम नहीं रिकमेंड करते। ठीक भी है और मैं मानती हूँ कि उन्हें करना भी नहीं चाहिए। हम दोनों की अपनी-अपनी पहचान है। हाँ, कई बार हम साथ भी होते हैं कार्यक्रमों में तो कई बार अलग-अलग भी और कई बार ऐसा भी हुआ कि अलग-अलग लोगों से आमंत्रण मिला और पता चला कि हम एक ही जगह जा रहे हैं। मुझे दिली खुशी होती है जब हम एक साथ होते हैं मंच पर।
कई बार हमारे हिन्दी और सरकारी कार्यक्रमों में आयोजक से ये विवशता भी सुनने को मिलती है कि बुलाना तो आप दोनों को चाहते थे पर मजबूरी है एक को ही बुला सकते हैं जबकि उर्दू मंचों पर ऐसा नहीं है, वहाँ एक दो ऐसे युगल हैं जो ज़्यादातर साथ मंच पर होते हैं। वहाँ ऐसी कोई विवशता मैंने नहीं सुनी उनसे।
जीवनसाथी के एक ही कर्मक्षेत्र में होने का यह फायदा तो मिलता है कि एक तो वो काम की परिस्थितियाँ समझते हैं, दूसरे आपने कुछ नया लिखा तो एक-दूसरे को सुना लिया और तुरंत प्रतिक्रिया मिल गयी।
अनमोल- क्या आपके परिवार में आप दोनों के अलावा और कोई भी लेखन में सक्रिय था अथवा है?
ममता जी- ये भी मजेदार बात है कि न तो जीवनसाथी के परिवार में और न ही मेरे परिवार में दूर-दूर तक किसी का लेखन से वास्ता रहा। हम दोनों की अपनी दुनिया है और हमारी रुचियाँ समान हैं। ‘खूब मिलायी जोड़ी…’।
बच्चे लिखते तो नहीं पर कविता की उन्हें समझ बहुत है। बिटिया से उम्मीद है कि कभी वो शायद लिखे। अभी तो बच्चे व्यस्त हो गये हैं पर पहले जब भी कोई नयी कविता लिखते थे तो बच्चों को भी सुनाते थे और बच्चे अपनी प्रतिक्रिया भी देते थे।
अनमोल- आपने अपना महत्वपूर्ण समय दिया, इसके लिए हम आपके आभारी हैं। ‘हस्ताक्षर’ के पाठकों, ख़ासकर महिला ग़ज़लकार अंक के पाठकों को कोई सन्देश देना चाहेंगी?
ममता जी- जैसे आज बहुत सारे चैनलों के आ जाने से एक क्रेज बढ़ा है कि पत्रकारिता में आकर फटाफट बस एंकरिंग करने लगे, उसी तरह कविता में भी ये क्रेज है कि दो-चार कविताएँ लिखकर बस मंचों पर छा जाएंगे तो कहना ये है कि चुटकुलों, फिकरेबाज़ी व नोंक-झोंक की स्थितियों से बचें। कुछ अच्छा लिखें, पढ़ें, सुनें, गुनें… कविता को बचाएँ। विकट से विकट परिस्थितियों में भी एक कवि के अंदर ही वो साहस होता है, जो डंके की चोट पर अपनी बात कहता है।
आप महसूस करो तो पूरी कायनात में कविता बिखरी पड़ी है- नदियों की कलकल, हवाओं का बहना, झरनों का गिरना, चिड़ियों का चहचहाना, हमारी धड़कनों का चलना। शायद इसलिए कहा जाता है कि जब तक धरती पर मनुष्य का अस्तित्व है, तब तक कविता है और ये कविता ही हमारे भीतर सोयी संवेदनाओं को जगाती है और हमें मनुष्य बनाये रखती है, इस तेज़ भागती-दौड़ती यांत्रिक ज़िन्दगी के बीच।
– ममता किरण