मूल्याँकन
महत्वपूर्ण विषयों को उकेरते हुए हिन्दी ग़ज़ल परम्परा को समृद्ध करता संग्रह ‘सर्द मौसम की ख़लिश’
– के. पी. अनमोल
अब न गेहूँ न धान खेतों में
बो रहा क्या किसान खेतों में
ब्याह बिटिया का क्या करे ‘हरखू’
बस उगा है लगान खेतों में
तर-ब-तर कौन यूँ पसीने से
दे रहा इम्तिहान खेतों में
गाँव, खेत, फ़सल, किसानी और इस परिवेश की जद्दोजहद को बयां करती कितनी रचनाएँ आज सामने आती हैं! जी, बहुत कम और उन बहुत कम में भी शोर-शराबा, नारेबाज़ी का आधिक्य है। शालीनता से, साहित्य की ज़ुबान में यह परिवेश शब्दबद्ध होता कम ही दिखता है और जब बात ग़ज़ल की हो तो उस कम का भी कई गुणा कम कर लीजिए। दरअस्ल जिस तरह से असुविधाओं से घबराकर हम इस जीवन से किनारा कर, सुविधाओं की ओर भाग रहे हैं; उसी तरह इस मुश्किल परिवेश की संवेदनाएँ भी हमसे किनारा कर रही हैं। अब जब एक रचनाकार अपने विषय की सम्वेदनाओं को ही नहीं मेहसूस कर पायेगा तो वह पाठकों को अपनी रचना से क्या ख़ाक जोड़ पायेगा!
उपरोक्त शे’र जिस तरह संवेदनाएँ समेटे हैं, उस तरह अपनी बात रखने के लिए सम्बंधित परिवेश की तह तक जाकर उसे मेहसूसना पड़ता है। इन शे’रों में ज्ञानप्रकाश पाण्डे ने प्रेमचंद के पात्र ‘हरखू’, जो अब देश के किसान का प्रतीक बन चुका है; को अपनी परिस्थियों समेत चित्रित कर दिया है। वे ‘हरखू’ और उसके समय, समाज व संकट को अपनी ग़ज़लों में बा-ख़ूबी उकेरते हैं।
इधर जब शीत के जबड़े में ‘हल्कू’ कसमसाता है
बग़ावत का शरारा ‘टेपचू’ में सर उठाता है
आँकड़े कहें कुछ भी, ‘हल्कू’ तो बताए बस
‘पूस’ और ‘पछुआ’ में बस वही लड़ाई है
कष्ट, उपेक्षा, शोषण, श्रम का मतलब भी तुम जानोगे
पहले धनिया, गोबर, होरी को तो बारी-बारी लिख
ग़ज़ल संग्रह ‘सर्द मौसम की ख़लिश’ में ज्ञानप्रकाश पाण्डे ऐसे ही कई महत्वपूर्ण विषयों पर ग़ज़ल-लेखन करते हुए हिन्दी ग़ज़ल परम्परा को समृद्ध करते हैं। अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद से हाल ही आये इस संग्रह में ज्ञान की कुल एक सौ ग़ज़लों के ज़रिये इनके ग़ज़ल-लेखन का सशक्त परिचय मिलता है। इन ग़ज़लों में हमारा वर्तमान, आमजन, उसकी पीड़ाएँ और सरोकार शिद्दत से मिलते हैं।
इनकी ग़ज़लों में वर्तमान के भयग्रस्त माहौल का भी सटीक चित्रण हुआ है। आज हमारे देश में परिवर्तन के नाम पर आपसी वैमनस्य, बेकाबू भीड़, खून-ख़राबा, एक-दूसरे की परम्पराओं/मान्यताओं पर लानत, कुतार्किक/अतार्किक बहस आदि हमारे सामने हैं, ऐसे में एक संवेदनशील रचनाकार इन शब्दों में अपना सिर धुनता है-
जिस तरफ़ भी देखता हूँ खून के धब्बे पड़े
मुल्क है ये या लहू चूता हुआ अख़बार है
गुज़रता हूँ जो मैं फुलवारियों से
नुकीले तेज़ ख़ंजर देखता हूँ
विविधताओं में एकता वाली हमारी संस्कृति आज अनेक संक्रमणों की वज्ह से विविध संकटों से जूझ रही है। लोगों के दिलों में छिपा ज़हर हुड़दंगियों की शह पाकर इंसानियत पर हावी हुआ जा रहा है और हम यह सब देखे जाने को विवश हैं।
एक रचनाकार का काम समाज में व्याप्त विसंगतियों पर अपनी रचनाओं के माध्यम से चोट कर आम जन को उनके प्रति सचेत करना है। ज्ञान भी इस काम को बा-ख़ूबी अंजाम देते हैं। वे अपनी ग़ज़ल को मख़मली बनाने की बजाय खुरदरी बनाए रखना चाहते हैं, ताकि वे अपने पाठकों को अपनी ग़ज़लों में उन तमाम विषमताओं के अक्स दिखा सकें, जिनका होना बहुत घातक है।
इस दौरे-तरक्की ने यूँ भूख बढ़ा दी है
अख़लाक़ कुचल डाले, दस्तार जला दी है
जिस तरफ़ देखो वहीं बाबा खड़े इस देश में
किस तरह विज्ञान का इस दौर में विस्तार हो
बढ़ रही सत्ता निरन्तर इन्द्रियों की
आदमीयत का यहाँ हर पल मरण है
आज हनी सिंह प्रासंगिक हैं
तुलसी की चौपाई चुप है
अपने इन शे’रों में ज्ञानप्रकाश पाण्डे समय का संज्ञान लेने की हिमायत करते हुए ग़ज़ल से इंकलाबी गंध की माँग करते हैं और ऐसा करते हुए उनका अंदाज, उनका लहजा कहीं-कहीं अपने अग्रज अदम गोंडवी तक पहुँचता दिखता है-
धूप तीखी, खूं पसीना आग पानी चाहिए
अब ग़ज़ल से इंकलाबी गंध आनी चाहिए
इक तरफ़ बाग़ी मशालें, इक तरफ़ सरकार हो
तब कहीं जाकर पुराने रोग का उपचार हो
बेचने की सोच लो तो क्या नहीं बिकता यहाँ
जिस्म हो, ईमान हो, किरदार हो, दस्तार हो
वंचित तबके की आवाज़ के साथ अपनी ग़ज़लों का स्वर मिलाते हुए ज्ञान उनकी आधारभूत ज़रूरतों की ओर भी ध्यान खींचते हैं। जहाँ देश में अलग-अलग सम्प्रदायों में कलह है, आरक्षण की आग है, विकास की जुमलेबाजी है और बुलेट ट्रेन में हवा होते डिजिटल ख़्वाब है, वहीं एक मेहनतकश की ज़रूरतें क्या है, इस मसले पर सोचने की फ़ुर्सत किसी को नहीं है। ज्ञान उस मेहनतकश की ज़रूरतों को अपने शब्दों से आवाज़ देते हैं-
काबा मेरे आगे न कलीसा मेरे आगे
दो वक़्त की रोटी की है चिन्ता मेरे आगे
क्या इसे मस्जिदो-शिवाला से
ये तो रिक्शा चलाने वाला है
कब तलक हम ख़्वाब में पैकर गढ़ें
ठोस धरती पर भी जीने दीजिए
सधे हुए अन्दाज़ में ग़ज़लगोई करते हुए ज्ञानप्रकाश पाण्डे अपने आसपास के हर ज़रूरी मसले पर नज़र रखते हैं। उनके लिए कथ्य महत्वपूर्ण है, शिल्प-भाषा आदि गौण। इनकी सभी ग़ज़लें समकालीन सरोकारों से लेस हैं। शिल्प सुगढ़ है लेकिन ज़रूरत पड़ने पर वे इससे समझौता करने के पक्ष में हैं। भाषा विविधताओं से भरी है- कहीं ठोस हिन्दी, कहीं-कहीं अरबी-फारसी युक्त शब्दावली लेकिन सामान्यत: इनकी भाषा में वे ही शब्द मिलते हैं जो आम इंसान बोलता-समझता है। कुल मिलाकर हिन्दी परिवेश की ग़ज़लगोई में ज्ञान अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। इस परम्परा के आलोचकों को इनकी ग़ज़लों का सूक्ष्म अवलोकन करना चाहिए। ये ग़ज़लें विस्तृत अध्ययन चाहती हैं।
समीक्ष्य पुस्तक- सर्द मौसम की ख़लिश
रचनाकार- ज्ञानप्रकाश पाण्डे
विधा- ग़ज़ल
प्रकाशन- अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद
संस्करण- प्रथम, 2018
पृष्ठ- 120
मूल्य- 200 रूपये (सजिल्द)
अमेज़न पर यह पुस्तक बिक्री के लिए उपलब्ध है- https://www.amazon.in/dp/9386027798
– के. पी. अनमोल