आलेख
मर्त्यलोक से ज्यादा बड़ा जीवन संसार: विनय मिश्र
(अरुण कमल की कविता को पढ़ते हुए)
“ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नए-नए आवरण चढ़ते जायेंगे, त्यों-त्यों एक ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जायेगी, दूसरी ओर कवि-कर्म कठिन होता जायेगा।”
(‘कविता क्या है’– आचार्य रामचंद्र शुक्ल)
आज नवपूंजीवाद के दौर में मीडिया का आतंककारी फैलाव सृजनात्मक कला रूपों- विशेषकर साहित्य उसमें भी कविता को लगभग हाशिये पर धकेल चुका है। निरंतर नवीनतम तकनीक और हाईटेक से लैस होती सभ्यता के इस दौर में जहाँ मशीनें ही सबसे बड़ी ताकत बनती जा रहीं हैं, खतरा मनुष्य और उसकी मनुष्यता दोनों पर है। आज के उपयोगितावादी दौर में जब कविता मनुष्य के लिए निकम्मी और निरर्थक जान पड़ रही है, तब मनुष्यता की रक्षा करने का दायित्व जिन पर होगा, उनमें कविता भी होगी। इस कठिन घड़ी में कविता ही कविता को बचाएगी प्रकारांतर से वही मनुष्य और उसकी मनुष्यता को भी बचाएगी।
कविता लिखना एक बात है और कठिन कवि-कर्म की चुनौती स्वीकार कर उससे जूझना दूसरी बात। उपभोगवाद और बाज़ार के ‘नए इलाके में’ सब कुछ प्रत्यक्ष है फिर भी कुछ ही समकालीन हिंदी कवि उसका ‘सबूत’ दे सकने में सक्षम हैं। कारण कि सबूत वही दे सकेगा, जिसकी ‘अपनी धार’ हो, जो अपनी आँखों से ही नहीं उस पुतली की ओट से भी देखने की दृष्टि रखता हो, जहाँ कोई उसके भीतर से देख रहा है। उसे बस आँख का गोला ही नहीं पूरा संसार दिखाई दे रहा हो। कवि अरुण कमल ने अपनी कविता पुस्तक ‘पुतली में संसार’ में ऐसे ही संसार को देखा और दिखाया है। यह बदहाल और बेहाल होता जा रहा संसार है, जिसे भरपूर और भरा-पूरा बनाने की हसरत भी यहाँ मौजूद है।
‘पुतली में संसार’ में कवि की पुतली ही नहीं लगभग सभी ज्ञानेन्द्रियाँ- आँख, कान, नाक, त्वचा, पूरी शिद्दत से इस काव्य संसार में सक्रिय हैं। यहाँ आँख संसार के अनेक दृश्यों-दशाओं-छवियों–छायाओं को देखती-दिखाती है। ‘कान’ अनेकानेक ध्वनियों को सुनता-सहेजता-समझता-समझाता है। ‘नाक’ को ‘नदी की गंध लग रही है’। ‘इतने घट्ठों इतने ढेलों से भरी देह’ में कम्पन हो रहा है। सिहरन हो रही है। ‘ढीली पड़ रही हैं उंगलियाँ/ पसीने से मुट्ठी का कसाव कम’ पड़ रहा है। हाँ, यहाँ स्वादेंद्रिय लगभग तटस्थ है। निर्विकार है। शायद इस संसार का स्वाद फीका पड़ गया है, या वह तीखा-खट्टा-कड़वा होता जा रहा है।
इस काव्य संसार में इन्द्रियों की सक्रियता अलग-अलग इकहरी न होकर समवेत रूप से गझिन-गहरी-सघन तथा संश्लिष्ट है। यहाँ संसार को खण्डों और कक्षों में बांटने की बजाय सम्पूर्णता में देखने-दिखाने का सफल और सार्थक प्रयत्न हुआ है। यहाँ ‘पूंजी’ है तो उसका प्रभाव-दुष्प्रभाव है। राजनीति की अनैतिकता है। भय और आतंक है। प्रशासन की खुलती पोल है। इतिहास है। पर्यावरण है। रिश्ता है। प्रेम है। दुख है, भूख है। स्त्री है। गरीब हैं। गाँव हैं, शहर हैं, वहाँ के दाँव-पेच हैं। हताशा है। निराशा है। मृत्यु है, तो जीवन की ललक और उत्कट जिजीविषा भी है। कवि आशुतोष के शब्दों में ‘पुतली में संसार’ सघन संवेगों के स्वरों की ‘सिम्फनी’ है।
‘पुतली में संसार’ का संसार सम्पन्नता और समृद्धि की अनैतिक संस्कृति की मार्मिक दगाबाजी से आक्रांत संसार है। यह ‘ईसा की बीसवीं शताब्दी की अंतिम पीढ़ी’ है और निश्चित ही ईक्कीसवीं शताब्दी की पहली पीढ़ी भी है। जिसके लिए छोड़ा गया है- ‘वे सारे युद्ध और तबाहियां’, ‘मेला उखड़ने के बाद का कचड़ा-महामारियां’, ‘पोलीथिन थैलियों पर जीवित गौवों का दूध’ और भी बहुत कुछ तीखा और कड़वाहट भरा। आज के विडम्बनापूर्ण समय का सच यही कि-
जब भी हमारा जिक्र हो कहा जाय
हम उस समय जिये जब
सबसे आसान था चन्द्रमा पर घर
और सबसे मोहाल थी रोटी (पृष्ठ 46, अपनी पीढ़ी के लिए)
‘क्योंकि जो सच जानेगा, वही तो सच कहेगा’ और सच की खोज दुर्लभ है, कठिन है। यह सच संसार की उन गलियों में है, जहाँ निम्नवर्गीय जीवन की दरिद्रता है, मध्यवर्गीय जीवन की जटिलताएँ हैं। यह सच उन इलाकों में है, जहाँ अनैतिक पूंजी की संस्कृति की सत्ता का वर्चस्व है। इस काव्य संसार में आज के भयावह और निर्मम हादसे की पहचान है। तो उस युग की सभ्यता और व्यवस्था के कुत्सित चेहरों की कथा भी है, जिसमें-
घर तब सबसे असुरक्षित थे
और कब्रगाह सुरक्षित
एक समय ऐसा भी आया
जब खाली हो गया पूरा गाँव जलते चूल्हों को छोड़ (पृष्ठ 39, कथा)
इस काव्य संसार में आज के हिंस्त्र भयावहता की पहचान है। ‘जिसने खून होते देखा’ उसकी दहशत भरी बाध्यता है। मजबूरी है-
नहीं नहीं, मैं चुप रहूंगी मेरे भी बच्चे हैं घर है
क्यों मेरे ही मार्फ़त यह मौत मैं क्यों कसाई का ठीहा
नहीं नहीं, मैं कुछ जानती मैंने कुछ नहीं देखा मैंने किसी को (पृष्ठ 27, जिसने खून होते देखा)
बावजूद इसके इस दर्दनाक कुकृत्य के विरोध का दृढ स्वर भी है। हर जोखिम की कीमत पर।
मैं सब जानती हूँ
मैं उन सब को जानती हूँ
जो धांगते गए हैं खून
मैं एक-एक जूते का तल्ला पहचानती हूँ
धीरे वो बन्दूक घूम रही है मेरी तरफ
चारों तरफ (पृष्ठ 28, उपर्युक्त)
इस अमानवीयता को सह और साथ देने वाली सत्ता के शातिर समीकरण को खोलती हैं ये कविताएँ। जब एक ‘किडनैपर’ से मुख्यमंत्री मिलने जाता है, तो उसका सुरक्षा दस्ता, उस गली में रहने वाले एक सामान्य व्यक्ति को अपराधी या आतंकवादी के समान बर्ताव करता है, गली के एक मकान में टाँग तोड़ कर बैठे उस ‘किडनैपर’ से नहीं। सत्ता की इस भ्रष्ट प्रवृत्ति के प्रति व्यंग्य और वितृष्णा का स्वर भी उभरता है। सी. एम. और उसके दस्ते के जाने के बाद “देखते-देखते पूरी गली साफ़/ जैसे पानी दहने के बाद संडास” (पृष्ठ 35, मुठभेड़)
‘पानी दहाने के बाद संडास’ जैसे बिम्ब भ्रष्ट नेताओं और उनके तंत्र के प्रति वितृष्णा और पूर्णत: दुराव का परिचायक है।
भ्रष्ट राजनीति और (नव) पूंजीवाद के सांठ-गांठ से पूरे समय और समाज पर ग्रहण लग गया है। सामान्य जन जीवन में धूप अचानक रुक गयी है।
मैंने देखा दूर ऊपर नयी बिल्डिंग की बाल्कनी पर
कोहनी टेके कोई खड़ा है धूप पर
कौन छेक रहा है मेरी धूप? किसकी छाया से ग्रहण है आज?
कौन राहु? कौन फिरंग? कौन आज तीन बारह पर? (पृष्ठ 26, ग्रहण)
‘फिरंग’ शायद नयी आर्थिक नीति के बाद भारत में विनिवेशित विदेशी पूंजी है। इस पूंजी से सर्वसामान्य के जीवन में धूप लगातार कम होती गयी है। धूप पर ग्रहण प्रकारांतर से जीवन पर ग्रहण है। पर्यावरण पर ग्रहण है, संकट है। धूप का छेका जाना लोगों के जीवन से रोशनी को, ऊष्मा को, गरमाहट को रोकना और छीनना है।
संभवतः भारतीय जननेता ही ‘राहु’ हैं। फिरंगी नेताओं का परिवर्द्धित भारतीय संस्करण। भारतीय राजनेताओं के भोग, विलास और तानाशाही से लैस जीवन के प्रतिरोध में खड़ी हैं ये कविताएँ। इसकी एक बानगी है ‘बिछावन’ में। एक दिन ‘एक नेटिव’ यानी स्वयं कवि वाइसराय के कमरे में जाकर ‘पलंग पर बैठा था’, ‘थोड़ा-सा उठंगा था’। ‘बस यह देखने कि कैसा लगता है वाइसराय का बिछावन’। इसके बाद कवि को तल्ख़ एहसास है-
तुमसे कहीं ज्यादा कीमती, कहीं ज्यादा गुदगुद है/ अपने मंत्री जी का बेड/ अब हम गुलाम नहीं। (पृष्ठ 33, बिछावन)
यह है आजाद भारत के राजनेताओं की जीवनशैली। याद आती है, आजादी के पहले, ‘गबन’ उपन्यास के देवीदीन खटिक की भारतीय नेताओं के लिए की गयी यह भविष्यवाणी- “अभी तुम्हारा राज़ नहीं हैं तब तो तुम भोग विलास पर इतना मरते हो, जब तुम्हारा राज़ हो जाएगा तब तो तुम जनता को पीस कर पी जाओगे।” अरुण कमल ने प्रेमचंद की आवाज़ को 21वीं सदीं के भारत में नयी ऊष्मा दी है।
ये कविताएँ उन लोगों के साथ खड़ी हैं, जिनके कंठ में मौजूद पानी से अधिक देह से पसीना बहता है। इन मेहनतकशों की जीवन कहानी उनकी ज़ुबानी यह है कि-
मेरे पास कुछ भी तो जमा नहीं
कि ब्याज के भरोसे बैठा रहूँ
हाथ पर हाथ धर
मुझे तो हर दिन नाखून से
खोदनी है नहर
और खींच कर लानी है पानी की डोर
धुर होंठ तक (पृष्ठ ???, डोर)
इस काव्य संसार में ‘उधर के चोर’ द्वारा बेटिकट यात्रा कर रहे गरीब-गुरबा मजदूरों से झोला, अंगोछा, चुनौटी लूटने, एक कट्ठे खेत में लगे चने का साग खोंट लेने, जैसी बातें सुनकर एक टीसती हुई मर्मव्यथा उभरती है। यहीं चोरी की एक हैरतंगेज़ घटना भी घटती है-
कहते हैं एक चोर सेंध मार घर में घुसा
इधर उधर टो-टा किया और जब कुछ न मिला
तब चुहानी में रखा बासी भात और साग खा
थाल वहीं छोड़ भाग गया-
वो तो पकड़ा ही जाता यदि दबा न ली होती डकार। (पृष्ठ 29, उधर के चोर)
तब दुर्भिक्ष का अनुभव होता है। अकाल का एहसास।
अकाल में दाने की अमूल्यता या संजीवनी शक्ति का एहसास कवियों को सदियों से रहा है। सोलहवीं सदीं में तुलसीदासजी ‘जानत हौं चारि फल चार ही चनक को’ या आधुनिक कवि निराला- “चूंकि यहाँ दाना है/ इसीलिये दीन हैं दीवाना है/ लोग हैं महफ़िल है/ नग्मे हैं साज़ है दिलदार हैं और दिल है/ शम्मा है परवाना है/ चूंकि यहाँ दाना है।” सन् 1952 में कवि नागार्जुन ने देखा था कि अकाल के बाद दाना आने पर ‘चमक उठीं घर भर की आँखें कई दिनों के बाद।’ कवि अरुण कमल के लिए ‘दाना’ सुख है, शांति है। इनकी कविता में ‘अन्न की झनकार’ है। गेहूं के दाने को सूप से संवारती हुई स्त्री है-
जो खुद एक दाना है गेहूं का
धूर उड़ रही है केश उड़ रहें हैं
यह धूप यह हवा यह ठहरा आसमान
बस एक सुख है बस एक शांति
बस एक थाप एक झनकार। (पृष्ठ 82, दाना)
दाना से स्त्री जाति का नाता बहुत पुराना है। अपना सब कुछ समर्पित करने के बावजूद यातना झेलती स्त्री के प्रति यह काव्य संसार सदय, सहृदय और संवेदनशील है। यहाँ उस स्त्री की पक्षधरता, जिसका ‘कहीं कोई अंतिम आसरा नहीं है’। जो-
मृत्यु से जीवन के लिए भाग रही थी
खूंटे से बंधी बछिया-सी जहाँ तक रस्सी जाती, भागती
गर्दन ऐंठने तक खूंटे को डिगाती
वह बार-बार भागती रही
बार-बार हर रात एक ही सपना देखती
ताकि भूल न जाये मुक्ति की इच्छा
मुक्ति न भी मिले तो बना रहे मुक्ति का स्वप्न
बदले न भी जीवन तो जीवित बचे बदलने का यत्न। (पृष्ठ 24-25, स्वप्न)
पुरुष प्रभुत्ववादी समाज में प्रहार और जकड़न से मुक्ति पाने की स्त्री-आकांक्षा की अभिव्यक्ति मानवीय संवेदना का परिचायक है। तथाकथित पुरुष नैतिकतावादी समाज में सम्बन्ध निभाने का भार स्त्रियों के ही हिस्से पड़ा। जिसे निभाने के लिए वह मजबूर है, अपनी जान की कीमत पर भी-
जो सहती गयी वो इसलिए नहीं कि
उसे कुछ कहना न था बल्कि इसलिए कि
मेरे यह कहने पर कि अब बचा ही क्या है
उसने उठंगा दी पीठ
और देखती रही चुपचाप ढहता हुआ बाँध। (पृष्ठ 84, सम्बन्ध)
‘पुतली में संसार’ की कई कविताएँ ‘मैं’ शैली में हैं। इस ‘मैं’ के कई रूप हैं, कभी पीड़ित कभी प्रताड़ित, कभी तटस्थ। यह कवि की आत्मखोज का विस्तार है। इन कविताओं में कवि अपनी संवेदनाओं, दिल और दिमाग पर छोड़े गए समय के निशान को पहचानने की कोशिश करते हैं। ख्याल रहे, उनका यह ‘आत्मकथ्य’ महज़ उनके मैं का बयान नहीं है। इस आत्म में कईयों का आत्म शामिल है।
मैं नहीं जानता मैं कितना कमजोर हूँ
दुनिया में इतना दुःख है इतना ज्वर
सुख के लिए चाहिए बस दो रोटी और एक घर
और वही दिन-ब-दिन मुश्किल पड़ रहा है
दिन इतना छोटा, रातें इतनी लम्बी हिंस्र पशुओं भरी
मेरी सांस टूटने के इंतज़ार में वे आँखें चमक रहीं (पृष्ठ 58, आत्मकथ्य)
अरुण कमल का ‘आत्मकथ्य’ तुलसीदास के ‘विनय पत्रिका’ के आत्मकथ्य-सा है। तुलसी इनके प्रिय कवि जो ठहरे। इनके आत्मकथ्य की व्यंजनाएँ समय और समाज को खोलती हैं। अपनी विशिष्ट जीवन सक्रियता के जरिये इन्होंने इस जीवन संसार की एक-एक भंगिमा को उजागर कर दिया है। यहाँ ‘बिल्कुल अवारा कुत्ते का जीवन’ जीने वालों की भी आत्मकथा है, जो रोटी के लिए ‘उन घूरों पर दाना ढूँढता जहाँ कोई जाता न था’ और जिसका घर किसी ठेले के नीचे था। ‘उस रात’ वह जीवन-कथा शायद संसार के उस पर चली जाती है, जब-
एक गाड़ी आकर रुकी और कोई बाहर कूदा
और गोली चलायी
यही हुक्म था सरकार का
आवारा पागल कुत्ते के कत्लेआम का
मैंने किसी का क्या बिगाड़ा था
अगर भूख न होती और सड़े माँस का लोंदा
तो कभी पागल न होता
बस पेट भर जाए और गर्मी में नम और जाड़े में गर्म राख (पृष्ठ 65-66, उस रात)
यह आज के ‘हल्कू’ और ‘जबरा’ की मिली-जुली जीवन कथा है। जो भूख को साथ लिए बदहाल और बेहाल जीवन जीने के लिए अभिशप्त हैं। वह भी तब, जब उन्हें अपने दायित्व का पूरा-पूरा एहसास है।
एक बार मेरा शरीर जैसे तड़का
पर मैं अब मैदान से बाहर हो रहा था
भर रही थी धान के खेतों में नीलगायें और मैं
आखिरी बार भूंकना चाहता था
उस रात… (पृष्ठ 66, उस रात)
उस ‘पूस की रात’ के बाद ‘हल्कू’ की खड़ी फसल को नीलगायों ने भले लील लिया हो, पर उसका जीवन, दुखमय ही सही- शेष था। वहीं उस रात के बाद तो ‘मैं’ का जीवन ही निगल लिया गया।
इस भीड़-भरे संसार में खोती हुई मानवीय संवेदना को संजोने की दिशा में कवि अपने भीतर भी गहराई से झाँकता है। जहाँ उसे एहसास होता है-
मैंने वे सारे क्षण खो दिये
वे अंतिम सांस के क्षण
अपनी सांस उसके होठों में भरने के क्षण
मैं चीख तो सकता था, मैं रो तो सकता था जोर से
मेरे तलवे कांपते तो भूकंप से (पृष्ठ 102-103, राख)
मानवीय संवेदना के निरंतर क्षरण के बावजूद कोई बात ऐसी है कि अभी भी किसी न किसी रूप में आदमी आदमी के पास खड़ा है-
वो क्या है जो आदमी को खींच ले जाता है आदमी के पास
क्या है वो रिश्ता खून से परे
वो शहद का ओस का रिश्ता
वो काँटों भरी बबूल की देह से छूटी गोंद का रिश्ता
वो बँट रही रस्सी के सूतों धागों का रिश्ता (पृष्ठ48-49, दोस्त)
यह कविता ‘भाई कमला प्रसाद’ के जन्मदिन पर लिखी गयी है। वही हैं ‘दोस्त जिनसे जिंदगी में मानी पैदा होते हैं’।
संसार का सम्पूर्ण चित्र खींचते हुए भी कवि की अपनी पक्षधरता, प्रतिबद्धता स्पष्ट है। उन्हें सुसज्जित बैठकों में पीकदान भरते भद्र रसिक जन, ‘शाम को विदेशी काव्य और रमणियों’ की चर्चा में गर्क वयस्कों के बीच शराब के दौर भी नजर आते हैं। पर कवि की चाहत यही है कि-
अगर याद ही किया जाय मुझे तो उनके बीच
जो अभी अभी सोकर उठे हैं
और आधी नींद में नहा रहे हैं
स्कूली बच्चे और पहली पाली के कामगार। (पृष्ठ 19, तड़ाग)
इन कविताओं में पहेली बुझाने का चमत्कार नहीं, जीवन मर्म का गहरा साक्षात्कार है। कल्पना ने उनके काव्यानुभव को अधिक सघन और विस्तृत किया है। इस काव्य संसार में अपने समय की अपेक्षाकृत अधिक आलोचना है। यहाँ जीवन के अनेक पक्षों और अधिकाधिक दृश्यों का बयान है। तटस्थ, निःस्पृहता और अस्पष्टता की प्रवृत्ति के बरक्स रचनाकार की एक प्रतिपक्षी भूमिका का निर्वहन हुआ है इस काव्य संसार में।
खाली-खाली और अजनबियत के बादलों से घिरे संसार में ‘इच्छा’ यही है कि-
मैं जब उठूं तो भादो हो
पूरा चन्द्रमा उगा हो ताड़ के फल-सा
गंगा भरी हो धरती बराबर
खेत धान से धधाये
और हवा में तीज त्यौहार की गमक (पृष्ठ 100, इच्छा)
सामान्य जीवन स्थितियों को प्रस्तुत करती कविताएँ इस उमस भरे माहौल में भी दुःख और विषाद से प्रतिरोध करने के लिए जीवनीशक्ति अर्जित कर ही लेती हैं। और यह जीवनीशक्ति मिलती है लोक और प्रकृति के लगाव से। सुप्त और ठंडी पड़ती जीवन गति को सक्रिय करता है यह काव्य संसार। यहाँ ‘ग्रीष्म’ में सूरज डूबने के बाद-
नदी का स्वच्छ आँख के कोए जैसा पानी
और भीड़ भरे नीड़
मूक उठता हुआ चाँद
और पीपल कत्थई पत्तों से छलछल
और बटलोही में कलछुल चलने का स्वर
फैलती भात की गर्म गाढ़ी भाप
रात के आर्द्र नथूनों तक। (पृष्ठ 92, ताप)
यहाँ ‘आश्विन’ का इंतज़ार है, क्योंकि
सिंघाड़ों में उतरता है धरती का दूध
और मखानों में फूटते लावे हैं हवा में
धान का एक एक दाना भरता है
चारों तरफ एक धूम है
एक प्यारा शोर गुल रोओं भरा। (पृष्ठ 93, अश्विन)
यह पिकनिकी नहीं, गंवई प्रकृति के बिम्ब हैं। ऐसी प्रकृति ही जीवन गति में ऊष्मा और उर्जा उड़ेल सकती है।
‘पुतली में संसार’ तक के व्यापक फलक में मनुष्य और उसका जीवन ही महत्त्वपूर्ण है। अंतिम पड़ाव में भी यहाँ जीवन गति की धमक भरने का सार्थक हौसला मौजूद है-
जीने के श्रम का अंतिम पसीना ललाट पर शायद
उतर जाएगी आखरी फिल्म पुतली पर से
बच्चे दौड़ते जा रहे हैं हवा में झूलते
मेरे तन में धरती भरती उनकी धमक।(पृष्ठ104, धमक)
यहाँ मृतकों की आबादी भले ही अधिक हो, पर जीवन संसार की व्यापकता कहीं अधिक है कि
जो जीवित हैं उनसे बहुत अधिक हैं जो मृत हैं
जीवन से कहीं अधिक है मृत्यु का भार हम पर जो जीवित हैं
जीवितों की संख्या से कहीं अधिक है मृतकों की आबादी
फिर भी मर्त्यलोक से ज्यादा बड़ा है जीवन संसार (पृष्ठ 101, भार)
यहाँ हर दुःख, त्रास, विपत्ति और हादसे के बीच- कसमसाते और रोते हुए भी- ‘मुठभेड़’ और उसके प्रतिवाद की उत्प्रेरणा का ‘पाठ’ है-
बहुत हुआ बहुत रोये गाये
अब साँझ हो रही है
बत्ती जलाओ और शुरू करो फिर वही पाठ
वहीं जहाँ छोड़ा था कल।
– विनय मिश्र