आलेख
मरती हुई संवेदनाओं की कष्टप्रद दास्तान: दौड़
– प्रज्योत पांडुरंग गावकर
आकार में लघु लेकिन उत्तर-आधुनिकतावाद की तमाम विडम्बनाओं को अपने में समेटे हुए सन् 2000 में ममता कलिया का ‘दौड़’ उपन्यास प्रकाशित हुआ। यह उपन्यास बाजारवाद, उपभोक्तावाद, युवा पीढ़ी और जीवन संघर्ष, ग्रामीण और नगरीय जीवन, विज्ञापन और जीवन, कम्पनियों की प्रतियोगिताएं आदि तमाम विद्रुपताओं को उजागर करता है। आज आगे बढ़ने की होड़ में युवा पीढ़ी अपनी संस्कृति को भूलकर उपभोक्तावादी संस्कृति में खिंचती चली जा रही है और मानवीय संवेदनाओं का ह्रास होता जा रहा है। माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नि के रिश्ते बदलते परिवेश में खोखले होते जा रहे हैं। इन सबका प्रामाणिक और यथार्थ चित्रण ममता कालिया के ‘दौड़’ उपन्यास में दिखाई देता है।
‘दौड़’ का मुख्य विषय वर्तमान समय की विडंबना है। वर्तमान समय की भाग-दौड़ में भूमंडलीकरण और औद्योगिकरण युवा पीढ़ी को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। पैसा कमाने के लिए उन्हें भारतीय बाजार छोटा नजर आ रहा है और विदेशी बाजार उन्हें अपनी ओर खींचते जा रहे हैं। हालांकि विदेशी बाजारों ने भारतीय बाजारों को भी मजबूत बना दिया है। लेकिन आज की युवा पीढ़ी आगे बढ़ने की होड़ में कम समय में ज्यादा पैसा कमाना चाहती है इसलिए उनके सामने विदेशी बाजार सशक्त माध्यम बन गये हैं। ममता कलिया के अनुसार आज का समय ‘टायम इज मनी'[1] है। आज रिश्ते-नाते सबकुछ पैसों पर बन रहे हैं। चाहे किसी के साथ आपका कोई संबंध न हो लेकिन आपके पास पैसा है तो आप कहीं न कहीं से उसके रिश्तेदार बन ही जाते हैं।
इस आपाधापी के जीवन में माता-पिता के रिश्ते पुराने बन रहे हैं और रेडीमेट रिश्ते बन रहे हैं। युवा पीढ़ी के पास इतना समय नहीं है कि वह दो मिनिट तक अपने माता-पिता से बात करें। आज हम इतने पराये हो चुके हैं कि अपने घर को भी होटल जैसा समझने लगे हैं। जहाँ परदेस में रहने वाले बच्चे जब कुछ दिनों के लिए अपने घर आते हैं और जाते वक्त अपने माता-पिता को अपना खर्चा दे जाते है। “जाने के दिन उसने माँ के नाम बीस हजार का चेक काटा, “माँ हमारे आने से आपका बहुत खर्चा हुआ है, यह मैं आपको पहली किस्त दे रहा हूँ। वेतन मिलने पर और दूंगा”।”[2] पवन के माँ के लिए यह शब्द कितने कष्टदायक रहे होंगे इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता। वहीँ दूसरी ओर राकेश सघन को स्वदेश आकर कोई नौकरी करने को कहता है तब सघन अपने पिता से तीस-चालीस लाख रुपयों की बात करते हुए कहता है- “पर वह काफी नहीं है। आपने इतने बरसों में क्या किया? दोनों बच्चों का खर्च आपके सिर से उठ गया। घूमने आप जाते नहीं, पिक्चर आप देखते नहीं; दारू आप पीते नहीं, फिर आपके पैसों का क्या हुआ?” [3] इस प्रकार सघन घर की आर्थिक स्थिति को जाने बगैर ही अपने पिता से पैसों का हिसाब माँगता है। हम देख सकते है कि इस बाजारवाद के युग में हम अपनों का आदर-सम्मान करना तो भूल ही गये है, साथ ही हम अपने माता-पिता से किस तरह बात की जाती है यह तक नहीं जानते। ममता कालिया ने पवन और सघन के माध्यम से आज की युवा पीढ़ी का प्रतिनिधित्व किया है, जो हमारी आधुनिक होती विचारधारा, मानसिकता, सोच और हमारी नयी डिजीटल संस्कृति आदी पर गहरी चोटें करती है।
आज करियररिज़्म के ज़माने में हम इतने व्यस्त हो चुके हैं कि हममें से मानवीय संवेदनाओं का भी ह्रास हो चुका है। हम परिवार सुख जैसी अमूल्य निधि का नाश कर अर्थ की ओर दौड़ लगा रहे हैं। बाजारवाद की इस स्पर्धा में हममें से मानवीयता और संवेदनाएं भी मर चुकी हैं। रिश्ते-नाते नाम मात्र रह गए हैं। बाजारवाद और उपभोक्तावाद की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि बेटे के पास इतना समय भी नहीं है कि वह अपने पिता की मृत्यु पर मुखाग्नि तथा क्रियाकलाप करने घर आ सके। सिद्धार्थ माँ को हिम्मत दिलाने की बजाय कहता है- “हम सब तो आज लुट गये ममा। लोग बता रहे हैं मेरे आने तक डैडी को रखा नहीं जा सकता। आप ऐसा कीजिए, इस काम के लिए किसी को बेटा बनाकर दाह संस्कार करवाइए। मेरे लिए तेरह दिन रुकना मुश्किल होगा। आप सब काम पूरा करवा लीजिए।” [4] जिस पिता ने बेटे को तरक्की की बुलंदी तक पहुँचाने के लिए अपना सबकुछ लुटा दिया, आज वही बेटा अपने पिता के देहांत पर रेडीमेट बेटा तैयार कर दाह संस्कार कर लेने को अपनी माँ से कह रहा है। ऐसे में एक पत्नी पर अपने बेटे द्वार बोले इन शब्दों से क्या गुजरी होगी तथा उन्होंने अपने आपको किस प्रकार संभाला होगा, यह सोचना भी कितना कष्टदायक है। मनीषा जी दौड़ के परिशिष्ट में लिखती हैं, “पैसे, ग्लैमर, भव्यता और चकाचौंध की दीवानी यह पीढ़ी किसी के भी कंधे पर पाँव रखकर सफलता का चरम चूमना चाहती है। उसके लिए सामाजिक बंधन, परिवार, अपनापन, ममत्व सब छलावा है। वह केवल ‘अपना’ जीवन जीना चाहती है, जहाँ न दूसरों की उखाड़-पछाड़ हो, न दबाव और न ही इस्तेमाल की ज़रा भी आशंका।” [5]
एम बी ए, कम्प्यूटर इंजीनियर, सॉफ्टवेयर इंजीनियर आदी क्षेत्र में आज का युवा जाना अधिक पसंद कर रहा है। इसका कारण है कि वर्तमान समय ने नवयुवक-युवतियों के सामने बहुराष्ट्रीय कंपनियों का जाल खोल दिया है। इस जाल को बाजारवाद और उपभोक्तावाद ने शक्ति प्रदान की है। स्वयं ममता कालिया उपन्यास में कहती हैं “बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक के तीन जादूई अक्षरों ने बहुत-से नौजवानों के जीवन और सोच की दिशा ही बदल डाली थी। ये तीन अक्षर थे एम.बी.ए.।”[6] शिक्षा पूर्ण करने बाद वह देखता है, “यहाँ मेरे लायक सर्वीस कहाँ? यह तो बेरोजगारों का शहर है। ज्यादा से ज्यादा नूरानी तेल की मार्केटिंग मिल जाएगी।”[7] भूमंडलीकरण के कारण आज हमारे सामने विश्व के द्वार खुल गये हैं, जिससे युवा पीढ़ी अपना करियर बनाने की दौड़ में घर, परिवार, संस्कृति आदी आदर्शवादी लीक से हटकर कुछ नया कर दिखाना चाहती है। पवन का छोटा भाई सघन भी सॉफ्टवेयर कंपनी के बुलावे पर ताईवान चला जाता है। पिता को हवाई जहाज के टिकट का इंतजाम वह ऐसे करने को कहता है जैसे वह उसका पिता नहीं बल्कि नौकर हो- “पापा बस हवाई जहाज और पाँच हजार का इंतजाम आप कर दो, बाकी मैं मेनेज कर लूँगा। आपका खर्च मैं पहली पे में से चुका दूंगा।”[8] धनोपार्जन और बेहतरीन जीवनयापन की लालसा में आज का युवा किस प्रकार अपने माता-पिता को घर पर अकेला छोड़कर विदेशों में स्थायी हो रहा है, इन सबका मार्मिक चित्रण करते हुए लेखिका ने बुढ्ढे होते माता-पिता की दुखद त्रासदी को ‘दौड़’ के माध्यम से बताया है।
‘दौड़’ उपन्यास बाजारवाद से उत्पन्न विज्ञापनबाजी के खोखलेपन को दर्शाता है। उपन्यास की शुरुआत में कई कंपनियों का ज़िक्र है, जिसमें कंपनियों के प्रोडक्ट भेजने की चुनौतियों का चित्रण आता है। यहाँ कम्पनियों को किसी भी हालत में अपने प्रोडक्ट्स बेचने हैं। इसके लिए वह बेहतर से बेहतर विज्ञापन चाहती है। ऐसा ज़रा भी नहीं है कि यह विज्ञापन सत्यता पर आधारित हो। उसका काम है लोगों की आँखों में धूल झोंकना और ज्यादा से ज्यादा ग्राहक इकट्टा करना। मतलब किसी भी हालत में अपने प्रोडक्ट की बिक्री करना। उपन्यास का पात्र अभिषेक अपनी पत्नी राजुल से कहता है- “सच्चाई तो यह है कि मॉडल लीना भी स्पार्कल इस्तेमाल नहीं करती। वह प्रतिद्धंदी कंपनी का टिक्को इस्तेमाल करती है। पर हमें सच्चाई नहीं, प्रोडक्ट बेचने हैं।” [9] यह कंपनियाँ अपना विज्ञापन दिन में इतनी बार दिखाती हैं कि उस मॉडल का चेहरा उसी उत्पाद के साथ चिपका रहता है और ग्राहक वह प्रोडक्ट मार्केट में दिखते ही लेने को मजबूर हो जाता है। विज्ञापन इतना असरदार होता है कि वह ग्राहक का पीछा नहीं छोड़ता। अभिषेक कहता है “आई कैन सैल अ डैट रैट (मैं मरा चूहा भी बेच सकता हूँ)” [10] एक तरह से आज हम में से नैतिकता मर चुकी है। हमारे सामने सिर्फ स्पर्धाएं हैं। कभी-कभी उत्पादन की खपत के लिए ऐसे भी विज्ञापन बनाए जाते हैं कि किसी विशेष व्यक्ति के नाम का जिक्र कर या उसके माध्यम से प्रोडक्ट की बिक्री की जाती है। पवन जलराम जी बाबा के पुजारी को गुर्जर गैस का महत्व समझाकर उससे छह गैस कनेक्शन का ऑर्डर लेता है। यह बात बाबा के भक्तों में तेजी से फैल जाती है और बाबा सभी को गुर्जर गैस इस्तेमाल करने की सलाह देते हैं, जिसका परिणाम यह होता है कि “देखते ही देखते शाम तक पवन और अनुपम ने 264 गैस कनेक्शन का आदेश प्राप्त कर लिया।” [11] आज आगे बढ़ने के लिए हम हर वो रास्ता चुन लेते हैं जो हमारे लिये फायदेमंद हो। इस प्रकार विज्ञापनों के माध्यम से उत्पादकों को उपभोक्ताओं तक पहुँचाया जा रहा है। विज्ञापनों के इस दौर में नैतिकता आज किताबों तक ही सीमित रह गयी है; “मैंने आई. आई. एम. में दो साल भाड़ नहीं झोंका। वहाँ से मार्केटिंग सीखकर निकला हूँ। आई कैन सैल अ डैट रैट (मैं मरा चूहा भी बेच सकता हूँ) यह सच्चाई, नैतिकता सब मैं दर्जा चार तक मोरेल साइंस में पढ़कर भूल चुका हूँ। मुझे इस तरह की डोज़ मत पिलाया कर।” [12] भूमंडलीकरण की चकाचौंध में आज का युवा अपनी संस्कृति को भूलता जा रहा है। उसमें से सहृदयता, संवेदना, प्रेम आदि सबकुछ मर चुका है या मर रहा है। इस बात को लेकर दीप्ति शर्मा कहती हैं- “आज प्रत्येक व्यक्ति ‘स्व’ तक सिमटकर रह गया है किंतु अंत में वह ‘स्वयं’ से भी वंचित रह जाता है। प्रत्येक रिश्ता एक सीढ़ी या पड़ाव है, जिसे निरंतर पार करते जाना और पलटकर भी न देखना यही सफलता की कुंजी बन गया है।” [13]
वर्तमान में आधुनिकता के नाम पर होने वाला परिवर्तन हमारे मानवीय संबंधों में भी बदलाव ला रहा है। आज हमारे लिए बंधन, अपनापन, परिवार सब दोयम दर्जे के बन चुके हैं। मध्यवर्ग चाहता है कि उसके बच्चे अच्छे पढ़े-लिखे, अच्छी जॉब करे। इसलिये गाँव की शैक्षणिक सुविधाएं अपने बच्चों के लिए उसे काफी नहीं लगतीं और वह अपने बच्चों को शहर में पढ़ने भेजता है। लेकिन जब बच्चे पढ़-लिख कर घर आते हैं और यह देखते हैं कि उसके सपने यहाँ पूरे नहीं हो सकते, तब वह बड़े शहरों या परदेस का रास्ता चुनते हैं। राकेश अपने बच्चों को आदर्शवादी नहीं बनाना चाहते इसलिए एम. बी. ए. करवाते हैं। उसका छोटा बेटा पवन भी इस भागदौड़ में शामिल है। उपन्यास में राकेश और रेखा आदर्शवादी माता-पिता की तरह अपने दोनों बेटों को जीवन की दौड़ में आगे भेजना चाहते हैं, दोनों हर वक्त उन्हें प्रोत्साहित करते रहते हैं। जीवन की इस भागदौड़ में पवन और सघन इतने आगे चले जाते हैं कि अपने माता-पिता से भी दूर होते चले जाते हैं। धीरे-धीरे उनके मन से मानवीय मूल्य, परंपराए, श्रद्धा, संस्कृति, रिश्ते-नाते, प्रेम आदि के प्रति मान-सम्मान कम होता चला जाता है। इस बात का आभास जब राकेश और रेखा को होता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इस बात को हम यहाँ देख सकते हैं जब राकेश पवन को समझाते हुए एथिक्स की बात करता है तब पवन चिढ़कर कहता है, “मेरे हर काम में आप यह क्या एथिक्स, मोरैलिटि जैसे भारी भरकम पत्थर मारते रहते हैं। मैं जिस दुनिया में हूँ वहाँ एथिक्स नहीं, प्रोफेशनल एथिक्स की ज़रूरत है। चीज़ों को नयी नज़र से देखना सीखिए नहीं तो आप पुराने अखबार की तरह रद्दी की टोकरी में फेंक दिये जाएंगे। आप जनरेशन गैप पैदा करने की कोशिश कर रहें हैं। इससे क्या होगा, आप ही दुखी रहेंगे”[14] यह बातें सिर्फ पवन ही नहीं आज का हर युवा सोचता है। पहले तो हम अपने बच्चों को जीवन की दौड़ में आगे बढ़ने के लिए सदैव प्रेरित करते रहते हैं और जब वे आगे बढ़ने लगते हैं तब हमें लगता है कि वे हमसे दूर होते जा रहे हैं।
नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी की परंपराओं तोड़ते हुए आज बहुत आगे चली गयी है। वह पुरानी पीढ़ी की अपेक्षाओं को कदम-कदम पर तोड़ रही है। पवन को पारंपारिक तरीके से अपना जन्मदिन मनाने का तरीका अब कोई मायने नहीं रखता क्योंकि आज बदलते समय में ग्रीटिंग-कार्ड देकर जन्मदिन मनाने का रिवाज है न कि मंदिर जाना, स्कूल में मिठाई खिलाना। यह एक तरह से परिवर्तित होती दुनिया का संकेत है। राकेश और रेखा के प्रेम विवाह में पारिवारिक संवेदनाएं हैं, लेकिन पवन और स्टैला से एकदम भिन्न। हिंदुस्तानी रीति-रिवाजों में शादी के रिश्ते को पवित्र बंधन मान लिया जाता है, जिसमें माता-पिता की अहम भूमिका होती है। पवन अपने लिए लड़की खुद देखता है और एक महिने बाद शादी भी कर लेता है। रेखा और राकेश को पवन के सामूहिक विवाह करने पर आपत्ति थी लेकिन दस हजार दर्शकों की भीड़ को देखकर उनके विचार बदल जाते है। उनको महसूस होता है कि ‘इस आयोजन में पारंपारिक विवाह संस्कार से कहीं ज्यादा गरिमा और विश्वसनीयता है। न कहीं माता-पिता की महाजनी भूमिका न नाटकीयता।”[15] शादी के बाद भी पवन और स्टैला एक-दूसरे के साथ नहीं रह रहे है बल्कि दोनों अपने कार्यों में व्यस्त हैं। उन दोनों के पास इतना समय भी नहीं है कि वह आपस में बात कर सकें। पवन अपने पिता से कहता है कि “रही स्टैला। तो यह इतनी व्यस्त रहती है कि इंटरनेट और फोन पर से मुझसे बात करने की फुर्सत निकाल ले यही बहुत है। फिर जेट, सहारा, इंडियन एयरलाइंस का बिजनेस आप लोग चलने दोगे या नहीं। सिर्फ सात घंटे की उड़ान और हम लोग मिल सकते हैं।”[16] इस बात से हम जान सकते है कि आज का दाम्पत्य जीवन इंटरनेट और सेटलाइट का है। उपन्यास में अभिषेक और राजुल का दाम्पत्य जीवन आधुनिक युवा दाम्पत्य के रूप में ममता कालिया ने बड़ी सफलता के साथ चित्रित किया है। दोनों का आपस में छोटी-छोटी बात पर झगडा करना, विज्ञापन और नैतिकता के बारे में दोनों के अलग-अलग विचार तथा राजुल शादी के रिश्ते को लेकर कहती है कि “हिंदुस्तानी मर्द को शादी के सारे सुख चाहिए बस ज़िम्मेदारी नहीं चाहिए। मेरा कितना हर्ज हुआ। मेरी सारी कलिग्स कहती थी राजुल शादी करके अपनी ज़िन्दगी चौपट करोगी और कुछ नहीं। आजकल तो डिंक्स का ज़माना है। डबल इनकम नो किड्स (दोहरी आमदनी बच्चे नहीं) सेंटिमेंट के चक्कर में फँस गयी।”[17] राजुल के बच्चे को लेकर यह विचार आधुनिक स्वतंत्र नारी का प्रतिनिधित्व करते हैं। उपन्यास में लिव इन का ज़िक्र कर पाश्चात्य सभ्यता को भारतीय संस्कृति में प्रवेश करते हुए दिखाया है। इससे एक बात प्रमाणित होती है कि पुरानी पीढ़ी के सामने नई पीढ़ी के विचार नयेपन का बोध कराते हैं, जहाँ अपेक्षाएं धुंधली पड़ती दिखायी देती हैं।
कुल मिलाकर बाजारवाद और उपभोक्तावाद की पृष्टभूमि में लिखा गया यह उपन्यास वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक आदि में होते अभूतपूर्व परिवर्तन को दिखाता है। जहाँ समाज में कहीं अपना अलग स्थान बनाना है तो एक जगह नौकरी करना मतलब वहीँ रह जाना, बदलते समाज के साथ-साथ अपने विचारों को भी बदलना, आदर्शवाद को छोड़ पृथक हो जाना। इसी पृथकता के कारण आज हम अकेले होते जा रहे है और तनाव, अजनबीपन, घुटन आदि का शिकार हो रहे हैं। पाश्चात्य संस्कृति से आज हमारे भारतीय मूल्यों का विघटन हो रहा हैं। इस भागदौड़ भरी जिंदगी में आज का युवा अपने आप को सिद्ध करने के लिए घर, परिवार सब कुछ छोड़ अपनों से कोसों दूर चला जाता। उधर उसके माता-पिता उसका चेहरा देखने को तड़पते-तड़पते प्राण त्याग रहे हैं। लेकिन युवा ज़िन्दगी की दौड़ में इतने व्यस्त है कि उसके पास पिता का दाह-संस्कार करने तक का समय नहीं है। अत: कहा जा सकता है कि ममता कालिया ने इक्कीसवीं सदी के प्रथम उपन्यास में मरती हुई संस्कृति की कष्टप्रद दास्तान प्रस्तुत की है। इस मरती हई संस्कृति में आज अगर कहीं कोई ज़िन्दा है तो वह मध्यवर्ग और ग्रामीण जीवन। लेकिन बाजारवाद की इस आपाधापी का प्रभाव उसे भी मार डाल रहा है।
संदर्भ ग्रंथ सूची-
[1] ममता कालिया, दौड़, वाणी प्रकाशन, छठा संस्करण २०१४, पृ. २८
[2] ममता कालिया, दौड़, वाणी प्रकाशन, छठा संस्करण २०१४, पृ. ७४
[3] ममता कालिया, दौड़, वाणी प्रकाशन, छठा संस्करण २०१४, पृ. ६४
[4] ममता कालिया, दौड़, वाणी प्रकाशन, छठा संस्करण २०१४, पृ. ८९
[5] ममता कालिया, दौड़, वाणी प्रकाशन, छठा संस्करण २०१४, पृ. ६९
[6] ममता कालिया, दौड़, वाणी प्रकाशन, छठा संस्करण २०१४, पृ. २२
[7] ममता कालिया, दौड़, वाणी प्रकाशन, छठा संस्करण २०१४, पृ. १२
[8] ममता कालिया, दौड़, वाणी प्रकाशन, छठा संस्करण २०१४, पृ. ७६
[9] ममता कालिया, दौड़, वाणी प्रकाशन, छठा संस्करण २०१४, पृ. ३९
[10] ममता कालिया, दौड़, वाणी प्रकाशन, छठा संस्करण २०१४, पृ. ४०
[11] ममता कालिया, दौड़, वाणी प्रकाशन, छठा संस्करण २०१४, पृ. ३१
[12] ममता कालिया, दौड़, वाणी प्रकाशन, छठा संस्करण २०१४, पृ. ४०
[13] https://www.sahityakunj.net/LEKHAK/D/DiptiSharma/zindagi_ek_utsav_mein_daud_Shodhni-bandh.htm
[14] ममता कालिया, दौड़, वाणी प्रकाशन, छठा संस्करण २०१४, पृ. ७२
[15] ममता कालिया, दौड़, वाणी प्रकाशन, छठा संस्करण २०१४, पृ. ६७
[16] ममता कालिया, दौड़, वाणी प्रकाशन, छठा संस्करण २०१४, पृ. ७१
[17] ममता कालिया, दौड़, वाणी प्रकाशन, छठा संस्करण २०१४, पृ. ३०
सहायक संदर्भ ग्रंथ सूची –
ममता कालिया, दौड़, वाणी प्रकाशन, छठा संस्करण २०१४
नेट द्वारा –
https://www.sahityakunj.net/LEKHAK/D/DiptiSharma/zindagi_ek_utsav_mein_daud_Shodhni-bandh.htm
https://asheeshunnao.blogspot.com/2017/11/daud-novel-by-mamta-kalia.html?m=1
– प्रज्योत पांडुरंग गावकर