उभरते-स्वर
मन-वीणा के तार
आज फिर छेड़ दिया है तुमने
मेरे मन वीणा के दर्द भरे स्वरों को
जब तार छेड़ ही दिए हैं
तो बिखरने दो न
दर्द इसका
तारों को तुम बजाओ
सह लूँगी
मैं दर्द सारा
इसकी धुन में डूबकर
तुम नहीं समझोगे
मन में सात पर्दों के अंदर
सदैव रहती है
एक टीस
उसी से झंकृत हो
बजते हैं तार
मन-वीणा के
ऐसा हृदय कहाँ
जो समझ सके
इस टीस को
इसे तो वही समझ सकता है
जो हो करीब इसके।
***************
तुम कौन हो
मौन फैली चाँदनी और मैं
एक साथ न जाने कितने अनुभवों को जीती हूँ
मुक्तांगन में
कुलांचे भरता हुआ
मेरा मन
तय करने लगा है आज
तुम्हारी प्रतीक्षा से उत्सर्ग तक की दूरी
रह-रह कर दर्द की एक गाँठ
उभरती है मन में
तुम कौन हो?
क्यों तुम्हारे सामने
अपना सर्वस्व खो बैठती हूँ मैं
क्यों तुम्हारे सामने
मेरी खुली आँखें झुक जाती हैं
क्यों तुम्हारे स्पर्श से
मुझे मेरेपन का ज्ञान नहीं रहता
जब तुम अकस्मात् मुझे
अपनी बाहों में भरते हो, तो
जाने कहाँ चली जाती हूँ मैं
और जब मेरी आँख खुलती है
तो तुम वहाँ नहीं होते हो
अपनी यादों की कसक ही तो
तोहफे में देकर गए हो तुम
पाषाण बनी थी अहिल्या भी
शायद इसी तरह
‘हरी’ फिर जब आये थे तो
प्राण पाये थे उसने
उनके स्पर्श को पा चेतन हुई थी, वह!
– नन्दा पाण्डेय