मूल्यांकन
मन पर गहन दस्तक देती ‘पदचाप तुम्हारी यादों की’: के. पी. अनमोल
दर्द भरी ये मेरी ग़ज़लें माप तुम्हारी यादों की
युगों युगों तक दुनिया लेगी नाप तुम्हारी यादों की
थिरकन मेरी ग़म के मुँह पर धूल उड़ाने लगती है
मन-तासे पर जब पड़ती है थाप तुम्हारी यादों की
कहीं विजन में खो जाता है रुस्वाई का कोलाहल
जब सुनता हूँ मंद मधुर पदचाप तुम्हारी यादों की
‘पदचाप तुम्हारी यादों की’…….आह्हा! कितना मीठा-सा वाक्यांश है। वाक्यांश भी है, उपर्युक्त ग़ज़ल का हिस्सा भी और अब एक ग़ज़ल संग्रह का शीर्षक भी। शीर्षक में ही एक सम्मोहन है तो बताइए, किताब का आलम क्या होगा?
किताब का आलम ये है जनाब कि 100 से भी कम पृष्ठों की इस किताब में सारा आलम समेट लिया है रचनाकार ने। नहीं, अतिश्योक्ति नहीं….पढ़कर देखिए एक बार। गाँव का जीवन्त परिवेश, शह्रों का मारामारी भरा जीवन, टूटते पारिवारिक मूल्य, बचपन की स्मृतियाँ, पर्यावरण, आध्यात्म, पिता, बेटी, मातृभूमि फिर बचा ही क्या आलम में।
जोधपुर में बसे और राजस्थान के खैराड़ अंचल के ‘मिट्टी पकड़ शायर’ भाई महावीर सिंह उर्फ़ ख़ुरशीद खैराड़ी की पहली किताब ‘पदचाप तुम्हारी यादों की’ अभी अभी पढ़कर खत्म की है। हाँ, मैं इन्हें ‘मिट्टी पकड़ शायर’ कहता हूँ। ‘क्यों’……चलिए बताता हूँ क्यों, आइए ज़रा!
मुझको मेरा गाँव निराला लगता है
पावन प्यारा एक शिवाला लगता है
दिनभर अपनी देह निचोड़े कमठे पर
तब जाकर होंठों से निवाला लगता है
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अमराई की छाँव सुहानी ढूँढूँगा
बचपन की हर एक निशानी ढूँढूँगा
जिसके काँधों पर खेला करते थे हम
उस बरगद की डाल पुरानी ढूँढूँगा
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आँखों में इक ख़्वाब सुहाना बरसों से है
पुरखों का इक गाँव पुराना बरसों से है
जिसने देखा है मेरे परदादा तक को
आँगन में इक नीम सयाना बरसों से है
बस, या कुछ और! अब आप मान गए होंगे कि मैंने इन्हें जो नाम दिया है, वो कितना सटीक है। अस्ल में मैं तो आपको इसी तरह की पूरी पूरी ग़ज़लें पढ़वाना चाह रहा हूँ, लेकिन बात यह है कि फिर आप ही कहेंगे कि भाई अनमोल तुम्हारी बात से ज़्यादा अश’आर हो गए!! सच भी है, मुझे भी तो कुछ बोलना है। लेकिन हक़ीक़त यह है कि इनकी ग़ज़लें ख़ुद-ब-ख़ुद बोल रही हैं। चलिए फिर भी मैं कोशिश तो करता ही हूँ।
‘पदचाप तुम्हारी यादों की’ जैसा कि मैंने बताया भाई ख़ुरशीद खैराड़ी का पहला ग़ज़ल संग्रह है, जो राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर से कुछ ही दिन पहले छपकर आया है। यह संग्रह इसलिए भी अनूठा है क्यूंकि इसमें सभी 75 ग़ज़लें बहरे-मीर (गाफ़ की सदारत वाले अरकान) में ही है। मिली-जुली भाषा में हैं, जिसमें आपको एक भी शब्द शब्दकोष में ढूँढना नहीं पड़ेगा। जितने सीधे और सादा से ख़ुरशीद भाई ख़ुद हैं, उतनी ही सीधी और सादी ज़ुबान व अंदाज़ में ग़ज़लें कही गयी हैं, इस तरह कि शेर पढ़ते ही सीधा दिल पर असर करता है।
इनकी ग़ज़लों में ग्रामीण परिवेश इतनी पुख्तगी के साथ आता है कि एक पूरा माहौल जीवन्त हो उठता है हमारे सामने। क्यूंकि ख़ुरशीद भाई ख़ुद ठेठ ग्रामीण इलाके की उपज हैं और नौकरी के सिलसिले में लगातार गाँव से दूर रहने की ‘यातना’ झेल रहे हैं तो ऐसे में शिद्दत से गाँव का इनकी रचनाओं में उभरना वाजिब भी है। किताब में कुछ पूरी ग़ज़लें ग्रामीण परिवेश पर हैं तो कुछ के कई अश’आर में गाँव मौजूद है।
शहरों में हैं झूठे दर्पण दरके रिश्ते
गाँवों में है झील सरीखी सच्ची दुनिया
बाँह पसारे नीम खड़ा है इक युग से
क्या जाने कब तुम सुस्ताने आ जाओ
ऐसे समय में जहाँ हम सिर्फ और सिर्फ अपना स्वार्थ देख रहे हैं और उसी के पीछे भाग रहे हैं, फिर चाहे उसके लिए हमें कोई भी क़ीमत देनी पड़े। स्वार्थ-साधना के पीछे हर चीज़ अनदेखी की जा रही है। अपनी सुख-सुविधाओं के लिए प्रकृति की बलि हम देते ही जा रहे हैं। ऐसे में पर्यावरण इनकी ग़ज़लों में किस संवेदना से उभरता है, वो केवल देखते ही नहीं बनता बल्कि सुकून भी देता है और हमें आईना भी दिखता है।
बाग़ उजड़ने पर आहत है मेरा कवि मन
कविताओं से तितली रानी खो जाएगी
आज चलाओगे आरी ‘ख़ुरशीद’ शजर पर
कल झुलसोगे छाँव सुहानी खो जाएगी
ख़त्म होते संस्कार, टूटते मूल्य, घटती संवेदना कवि-मन को बहुत आहत करती है। इस रचनाकार ने गाँव जिया है, संयुक्त परिवार जिया है, प्रकृति की गोद में बचपन बिताया है, इसलिए इन सबके विघटन पर कवि के मन में करुणा और क्षोभ का पैदा होना स्वाभाविक है और ज़रूरी भी है। संवेदनाओं को झकझोरते कुछ अश’आर देखिए-
शहरों के इन मजदूरों में
बाग़ों का इक माली गुम है
भूख बैरन उस माली को भी मजदूर बना शहर की और काम ढूँढने ले गयी, जो किसी दिन गाँव में बाग़-बगीचों में, खेतों में हरियाली सजाता था।
समझ गया हूँ धरती माँ क्यों कहलाई
मैंने माँ को अविरल चलते देखा है
शेर का विस्तार देखते ही बनता है। माँ जो अपनी औलाद की ख़ुशी के लिए कभी नहीं थकती, निरंतर चलती रहती है और धरती के परिक्रमा करने के बीच कितना ग़ज़ब का तालमेल बिठाया गया है और यह भी साबित किया गया है कि धरती को माँ क्यों कहा जाता है, क्यूंकि वह भी एक माँ की तरह अपनी औलाद के लिए निरंतर चलती है और उसी चलने के सबब अलग अलग ऋतुएँ बनाती है, जिनके दम पर सभी प्राणियों का जीवन निर्भर है।
पेड़-पखेरू सगे हमारे लगते हैं
पीहर के तो पत्थर प्यारे लगते हैं
अब एक स्त्री की नज़र से इस शेर को देखिए, जो शादी के बाद अपना घर-बार, अपना गाँव छोड़कर कहीं दूर पति के परिवार के साथ रहती है या किसी ऐसे व्यक्ति की नज़र से देखिए, जो रोजी-रोटी के जुगाड़ के लिए सालों से अपने गाँव से दूर है।
साथ खड़े थे भाई तो जग डरता था
भाई को अब भाई से डर लगता है
इन सभी अशआर में संवेदनाएँ अपने चरम पर हैं।
ग़ज़लों में कई जगह वे समाज और सियासत पर तंज कसते दिखते हैं तो कई जगह उनके भीतर के दार्शनिक के दर्शन होते हैं। इनकी रचनाओं में प्रेम आध्यात्म के साथ रम कर ऐसे प्रकट होता है कि पढ़कर ‘धूनी’ रमाने को मन कर जाता है। कुछ अशआर देखें-
जीवन क्या है, तेरी यादों की धूनी
रातें जोगन, दिन बंजारे लगते हैं
जीवन एक ग़ज़ल है जिसमें रोज़ाना
तुम हँस दो तो इक मिसरा हो जाता है
कण-कण मेरा ठहर गया है जड़ होकर
तू जो छू ले मुझे रवानी मिल जाए
तेरी यादें खनकें माज़ी की गुल्लक में
जीवन भर सिक्के खनकाऊँ जी करता है
एक शेर में इनके दर्शन के भी दर्शन कर लीजिए-
पिसकर ही रंगत लाएगा
जीवन भी तो हीना ही है
कई बार कही गयी बात को कितने अलग तरीक़े से कहकर एकदम नया कर दिया!
अब इनकी कल्पनाशक्ति भी देखिए और महसूस कीजिए कि ये आपको कहाँ से कहाँ ले जाती है-
इंद्रधनुष का चटक लहरिया, धानी चूनर
बहन धरा से मिलने फिर बादल आया है
धरा पर बहन और बादल पर भाई का आरोप कहीं देखा है इससे पहले!!
आओ शोध करें इस पर हम
प्यास ने बर्तन तोड़ दिया क्यों
प्यास के द्वारा बर्तन तोड़ा जाना, है ना कुछ अलग!
पल घूंघरू है, दिवस-निशा दो पायल समझो
गूँज रही है सदियों से झनकार समय की
कुछ इस तरह की कल्पनाएँ भी मिलेंगी आपको इस किताब में।
ख़ुरशीद भाई ग़ज़ल के शिल्प के आला दरजे के जानकार हैं। उर्दू अरूज़ के साथ ही हिन्दी छंदों की भी इन्हें बारीक समझ है। (यहाँ ‘फेलुन फेलुन’ यानि अष्टक बनने का तरीका फ़िलहाल छोड़ दिया जाना बेहतर है, क्यूंकि यह बहस का विषय है।) तो साथ ही शब्दों को बरतने में भी इनकी जादूगरी किताब में कई जगह नज़र आती है। कई मुश्किल हिंदी शब्दों को बहुत ही आसानी से इन्होंने शेर में पिरो दिया है, तो ऐसा ही कई उर्दू के अल्फ़ाज़ के साथ भी है। बानगी देखिए-
इक भूखों की बस्ती में अनकूट-महोत्सव
आप कहें कुछ, हम तो इसको छल बोलेंगे
आँसू पीकर हरिआएगी
रंग हुआ पीला पीड़ा का
हर दर्पण पर धूल जमी है विस्मृति की
मुझको मेरी कोई निशानी मिल जाए
किताब में एक पिता पर और एक बेटी पर ग़ज़ल है, जिनका कोई शेर कोट करना पाना मुश्किल है। कुछ ग़ज़लें तो ऐसी हैं जिन्हें पूरा पूरा पढ़ा जाना चाहिए।
‘पदचाप तुम्हारी यादों की’ पर काफ़ी समय से कुछ कहना चाह रहा था लेकिन ‘मौसम’ बन ही नहीं पाया। आज कुछ मन हुआ, किताब ख़त्म की और अपनी बात कह दी। अब आपके हवाले….सम्हालिए।
समीक्ष्य पुस्तक- पदचाप तुम्हारी यादों की
विधा- ग़ज़ल
रचनाकार- ख़ुरशीद खैराड़ी
प्रकाशन- राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर
संस्करण- प्रथम, 2017
मूल्य- 150 रूपये
– के. पी. अनमोल