संपादकीय
मनुष्य बने रहने के लिए मन और मेधा का सामंजस्य आवश्यक है
‘हस्ताक्षर’ के प्रिय पाठको!
मानव जीवन की सार्थकता मनुष्य बने रहने में है और मनुष्य बने रहने के लिए मन और मेधा का सामंजस्य आवश्यक है। मन भाव शक्ति का स्रोत है तो मेधा नव नवोन्मेष अन्वेषणों की जननी है। यह अन्वेषण सूक्ष्म और स्थूल दोनों ही स्तरों पर अभीष्ट हैं; आवश्यकता इसकी जननी है तो यह मानव की जिज्ञासा का पोषक है। प्रत्येक क्षण हम नवीन संधान करते रहें और बढ़ते रहें, मानव से महामानव होने की यात्रा पर। 21वीं सदी तक प्रत्येक क्षेत्र में सतत हो रहे नित नये शोध, इसी यात्रा का प्रमाण हैं।
मानव समाज के लिए साहित्यिक शोध अपना अक्षुण्य महत्व रखते हैं, इसमें दो दिशाएँ संभव हैं- प्रथम, किसी प्रच्छन्न, अज्ञात साहित्य या तथ्य को प्रामाणित रूप से प्रकाश में लाना। द्वितीय- पूर्व स्थापित तथ्यों/अवधारणाओें पर नवीन दृष्टिकोण से पुनर्विचार व विवेचन करना किन्तु दोनों ही स्थितियों में वैज्ञानिकता इसकी प्रथम शर्त है।
शोधपत्र, किसी भी शोध कार्य का अति संक्षिप्त रूप होते हैं, जिन्हें पढ़कर पाठकों का ध्यान विशद शोधों की ओर आकृष्ट होता है और अनुसंधान के
प्रति रुचि भी जाग्रत होती है, वस्तुतः शोध पत्र एक गागर से अथाह सागर के सम्बंध में ज्ञान प्राप्ति का एक माध्यम बनते हैं, जैसे खीर पक्वता के लिए एक चावल।
पत्रिका का यह अंक शोध पर आधारित है। इसमें राजस्थान ब्रजभाषा अकादमी द्वारा 27-28 फरवरी, 2016 को ‘हिन्दी का कृष्ण भक्ति काव्य और आधुनिकता
की अवधारणा’ विषय पर आयोजित, साहित्यिक राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रस्तुत शोधपत्रों को सम्मिलित किया गया है। ब्रजभाषा और कृष्ण भक्ति सम्पूर्ण विश्व में सद्भाव, समरसता व प्रेम की अभिव्यक्ति का पर्याय है। ब्रज संस्कृति से अभिभूत शायरों में मुगल सम्राट शाहआलम, अहमदअली, बहादुरशाह ज़फ़र, तानसेन, रिसालपुरी, फायज देहलवी, सौदा, रंगरेजिन शेख, बेग़म ‘ताज’ (जिन्हें मुस्लिम मीरा के नाम से जाना जाता है), रहीम, रसखान और नज़ीर अकबराबादी इत्यादि ने ब्रज के हर्षोल्लासमयी त्यौहार होली पर दिल खोलकर कलम चलायी है। नज़ीर अकबराबादी ने कहा है-
नज़ीर होली का मौसम जो जग में आता है।
वह ऐसा कौन है जो होली नहीं मनाता है।।
कोई तो रंग छिड़कता है कोई गाता है।
जो खाली रहता है, वह देखने को जाता है।।
अतः सभी ने इस भाषा संस्कृति व कृष्ण चरित में सौहार्द्र व भ्रातृत्व के भावों को मात्र आत्मसात ही नहीं किया अपितु मुक्त कण्ठ से सराहा है। सम्बंधित विषय पर सुधि पाठकों को विभिन्न तथ्यों के साथ नवीन व रोचक सामग्री प्राप्त हो सकेगी, यह प्रयास रहा है।
मेरे अनुरोध को पत्रिका के प्रधान सम्पादक के. पी. अनमोल जी ने जिस विनम्रता से स्वीकारा, इसके लिए पत्रिका सम्पादक मण्डल तथा प्रज्ञा प्रकाशन का हृदय से आभार।
– डॉ. शीताभ शर्मा