मनुष्यता की डगर
केवल समय ही आगे नहीं बढ़ता बल्कि उसके साथ-साथ हम सब भी मीलों दूरियाँ तय करते चलते हैं। जीवन के सारे सिरे कुछ इस तरह से खुले पर, आपस में बिंधे भी होते हैं कि उन्हें सुलझाने में आधी से भी अधिक उम्र बीत जाती है और पता भी नहीं चलता! मुड़कर देखो तो हैरत होती है कि जिस बिंदु से चलना प्रारम्भ किया था, वह अब एक पक्की सड़क का रूप लेता जा रहा है।
वे लोग अत्यधिक भाग्यशाली हैं जिन्हें विरासत में सब कुछ परोसा हुआ नहीं मिलता क्योंकि स्वयं अर्जित किये हुए मान-सम्मान, भौतिक सुख-सुविधाओं की क़ीमत और क़द्र इन्हीं परिस्थितियों में अधिक समझ आती है। वस्तुतः होती भी है।
वे जिन्हें एक ही झटके में सब कुछ प्राप्त हो जाता है, वे उतनी ही शीघ्रता से इसे खो भी देते हैं क्योंकि सँभालने और सहेजने की रीत तो उन्होंने कभी सीखी ही नहीं! उस पर रुतबे और धन का घमंड भी पल में हावी हो, इनके सिर चढ़कर बोलने लगता है।
जो रातों-रात दुनिया जीत लेने या ख़रीदने में विश्वास रखते हैं, किसी के एक क़दम आगे बढ़ने से भी ईर्ष्या भाव से भर जाते हैं या उसमें दोष ढूँढने की जुगत में लगे रहते हैं; उन्हें प्रत्येक सफ़ल इंसान के जीवन के पिछले पच्चीस वर्षों के पृष्ठ अवश्य खँगालने चाहिए। क्योंकि जिसकी बड़ी गाड़ियों से इन्हें कष्ट होता है, वहाँ साइकिल पर सवार वही शख़्स मिलेगा। जो आज हवाई जहाज से यात्रा करता है, उसकी ट्रेन के जनरल डिब्बे की एक टिकट भी वहीं खूँटी पर टँगी शर्ट की जेब में रखी होगी। मोड्युलर किचन के बदले एक छोटा रसोईघर होगा, जिसमें कोई पुरानी-सी अलमारी में दुनिया-जहान की तमाम दास्तानें भरी होंगीं। वहाँ कमरे में ए.सी. नहीं बल्कि ख़स की एक टटिया लटकी मिलेगी और उसके साथ रखा एक बाल्टी और मग भी। आज जो ब्रांडेड कपड़े पहनता है, शायद एक समय उसने किसी की उतरन भी पहनी होगी।
कहने का तात्पर्य यह है कि वे लोग जो सफ़ल व्यक्तियों से ईर्ष्या करते, उनकी आलोचनायें करते नहीं अघाते तथा जिनकी प्रशंसा होते ही इनके गले में ख़राश और मस्तिष्क में कई प्रश्नवाचक चिह्न एक साथ उभर उठते हैं; उनसे अनुरोध है कि एक बार इन सफ़ल इंसानों के जीवन में झाँकिये। वहाँ संघर्ष के कई किस्से बिख़रे मिलेंगे।
कोई यूँ ही सफ़ल नहीं हो जाता! उसमें एक ज़िद होती है, गिरकर उठने की, हारकर भी न टूटने की, टूटकर भी न बिखरने की, अगर बिखरे भी तो हिम्मत जुटा बार-बार स्वयं को समेटकर पुनः खड़ा करने की, अनवरत चलते रहने की…यह आसान नहीं है और इसमें निराशा के हज़ार पल शामिल होते हैं लेकिन यही मजबूती भी देते हैं। यह जिजीविषा है जीवन के प्रति, यह उस ज्ञान की प्राप्ति भी है कि हमारा जीवन हमारा अपना है, इसे चलाने के लिए, प्रसन्न रहने के लिए जो कुछ करना है वो हमें ही करना है। अपनी खुशियों का उत्तरदायित्त्व किसी और पर डालना ठीक नहीं! अपेक्षा, उपेक्षा ही देती है एवं अत्यधिक उदारता, संवेदनशीलता, स्नेह, क्षमा भाव उपहास का कारण बनता है। लेकिन इस स्वार्थ, घृणा, ईर्ष्या और द्वेष से भरी दुनिया में यदि कहीं मनुष्यता जीवित है तो वो इन्हीं हृदयों में साँस लेती नज़र आती है।
हमने इंसान के रूप में जन्म तो ले लिया पर रिश्तों को स्वार्थ से भरे तमाम प्रपंचों के बीच इस तरह उलझा रखा है कि इंसानियत अब दुर्लभप्रायः प्रतीत होने लगी है।
इधर वृक्षों की हरीतिमा लौट आई है और इन पर नवीन पर्णों और कोपलों का सुन्दर आगमन हो चुका है। ऋतुराज बसंत ने प्रकृति का श्रृंगार कर इसे अपने रंग में पूरी तरह रंग लिया है। फागुनी रंग अब फूलों पर चढ़ जमकर महकने लगा है। कोयल की मधुर स्वरलहरी ने जैसे वातावरण में आम की मिठास को और भी घोल दिया है। अन्न के दाने, किसान के लिए मोती बन जमा हो रहे हैं। ये सब मिलकर नव संवत्सर के स्वागत को आतुर हैं। कहते हैं सम्राट विक्रमादित्य ने कालगणना वाली इस व्यवस्था को स्थापित किया था इसीलिए इसे ‘विक्रम संवत्’ भी कहा जाता है।
भारतीय कैलेंडर के अनुसार चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा (हिंदू पंचांग की पहली तिथि) से नए वर्ष का आरंभ माना जाता है। सिंधी उत्सव चेटी चंड, उगाड़ी (आँध्रप्रदेश, कर्नाटक) और गुड़ी पड़वा (महाराष्ट्र) भी इसी दिन मनाये जाते हैं। परम्परानुसार इस दिन नीम के पत्ते और गुड़ का सेवन किया जाता है, जो कि क्रमशः जीवन से जुड़ी कड़वाहट और मिठास का प्रतीकात्मक रूप हैं और हमें इसे इसी रूप में स्वीकारने की प्रेरणा देते हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी इनका महत्त्व है।
यह भारतीय नव संवत्सर आप सभी के जीवन में उत्साह, उल्लास और उमंग का संचार करे तथा सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए श्रेष्ठ, हितकारी एवं शुभ हो, यही मेरी मंगलकामना है।
ज्वालापुर, हरिद्वार निवासी लेखिका आरती ‘अशेष’ जी का यह गीत हमारे पाठकों के लिए अपार स्नेह व शुभकामनाओं सहित-
मङ्गलमय हो नव-सम्वत्सर।
सौभाग्यशील, सुंदर, सुखकर।।
मन में पल-प्रतिपल हर्ष रहे,
जीवन में नव-उत्कर्ष रहे।
सौहार्द बढ़े, संघर्ष मिटे
शुभ उन्नतिकारक वर्ष रहे।।
सुख का आलोक झरे घर-घर।
मङ्गलमय हो नव-सम्वत्सर।।
नूतन विचार- नव सृजन करें।
नव कला ज्ञान का हो संगम।
नवगति नवताल नवल लय से,
झंकृत हो खुशियों की सरगम।।
सब बढ़ें श्रेष्ठता के पथ पर।
मङ्गलमय हो नव-सम्वत्सर !
मधुमास खिले वन उपवन में,
फूलों के रंग बिखर जाएं।
झूमें पलाश और अमलतास,
आमों की डाली बौरायें।।
गुन्जार करें भौंरें जिन पर।
मङ्गलमय हो नव सम्वत्सर।।
– प्रीति अज्ञात