फागुन
फागुन बहार संग, खिल उठे पात अंग।
आया जबसे वसंत, खिल गई कलियाँ।
पतझड़ झर गया, खुशियाँ को भर गया।
लहक उठी है देखो, मटर की फलियाँ।।
चहुँ ओर हरियाली, पक गई गेहूँ बाली।
फूलों से हैं लद गई, तरुवर डलियाँ।।
जल क्रीड़ा कर रहे, हंस मोद भर रहे।
तैर रहे चख रहे, विस तंतु नलियाँ।।
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गुरु
गुरु ऐसी ज्ञान ज्योति, जैसे सीप में हो मोती।
मिले यदि स्वाति शिष्य, ज्ञान बूँद बाँटता।
शिष्य होता कच्चा घट, खोले वही नैन पट।
ऐसा ताप देता है कि, कमियाँ उचाटता।।
करे दूर अंधकार, हटा देता है विकार।
चाहे जैसा फ़ैल जाये, जाल वो ही काटता।।
कर देता ज्ञान भोर, जोड़ देता ईश डोर।
दृष्टि ऐसी पारखी है, पारस ही छाँटता।।
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माँ
सब कुछ सहती है, नहीं कुछ कहती है।
चाहे मिले सुख दुःख, प्यार से स्वीकारती।
सबकी ही सेवा करे, खुद की न पीर हरे।
घर हो या परिवार, वही तो सँवारती।।
सबको खिलाती यहाँ, फिर खुद खाती यहाँ।
मन में जो सपने हैं, पर हित वारती।।
रिश्तों को निभाती है वो, टूटे तो बचाती है वो।
नैया खाए हिचकोले, पार वो उतारती।।
– नवीन गौतम