आलेख
मंजुल भगत कृत ‘अनारो’ का आर्थिक संघर्ष: तबस्सुम जहां
अनारो मंजुल भगत का तीसरा और महत्त्वपूर्ण उपन्यास है। 1976 के ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ समाचार पत्र में किस्तवार प्रकाशित हुआ था। इसकी प्रसिद्वि को देखते हुए 1977 में ‘पराग-प्रकाशन’ ने एक पुस्तक के रूप में इसको प्रकाशित किया। प्रो. विजयेन्द्र स्नातक, राजेन्द्र यादव, हरदयाल, मृणाल पाण्डे, डाॅ. महीप सिंह, सुदर्शन नारंग आदि प्रतिष्ठित आलोचकों एवं लेखकों ने इसे एक उत्कृष्ट रचना माना है। मंजुल भगत कृत ‘अनारो’ की नायिका अनारो है। अनारो उपन्यास का केन्द्रीय पात्र है और समस्त कथा उसके ही इर्द-गिर्द घूमती है। ‘अनारो’ अपने निम्नवर्गीय समाज का प्रतिनिधित्व करने वाली स्त्री है, जिसमें उसके वर्ग की समस्त जिजीविषा का चित्रण मिलता है।
निर्धनता एक अभिशाप है। यह केवल सामाजिक समस्या ही नहीं, अपितु एक आर्थिक समस्या भी है। अपराध, बाल अपराध, भिक्षावृत्ति, वेश्यावृत्ति एवं गंदी बस्तियों का विकास आदि सामाजिक समस्याओं के मूल में निर्धनता ही प्रमुख कारक है। निम्नवर्गीय स्त्रियों के समक्ष मुख्य प्रश्न है परिवार के मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति और इसके लिए उन्हें जीवन-पर्यन्त आर्थिक संघर्ष करना पड़ता है। समाज में एक बड़ा वर्ग इन निम्नवर्गीय स्त्रियों का है जो मेहनत-मज़दूरी करके अपना निर्वाह करती हैं। इन स्त्रियों को क्षमता से अधिक परिश्रम करना पड़ता है। इनके पुरुषों की आय अपर्याप्त होती है। अतएव ये महिलाएँ दिन-रात अपने काम में खटती रहती हैं। इस समाज के अधिकतर पुरुष अपनी कमाई दारू पीने, जुआ खेलने आदि व्यसनों में उड़ा देते हैं। इस प्रकार गृहस्थी का दायित्व स्त्रियों के कंधों पर आ जाता है। निम्नवर्गीय स्त्रियों का जीवन भीषण संघर्ष और उत्पीड़न की एक अंतहीन कहानी होती है।
निम्नवर्गीय कामकाजी स्त्रियाँ जब कार्य करने निकलती हैं तो मज़दूर वर्ग की माएँ छोटे-छोटे बच्चों को झोपड़ी में अकेला सुलाकर या दूसरे बड़े बच्चों को सौंपकर दिन भर मेहनत मजदूरी करने निकल जाती हैं। कुछ स्त्रियाँ बच्चों को भी अपने साथ कार्यस्थल पर ले जाती हैं। जहाँ वे बच्चे धूल-मिट्टी में खेलते रहते हैं, काम की अधिकता व अभावग्रस्तता के कारण श्रमिक स्त्रियाँ बच्चों को धूप, शीत, वर्षा आदि में उचित देखभाल नहीं कर पाती हैं और न ही समय पर खिलाने-पिलाने या नहलाने-धुलाने पर ही समुचित ध्यान दे पाती हैं। प्रायः निम्नवर्गीय बच्चे कुपोषण व अनेकानेक बीमारियों से ग्रस्त होते हैं। जैसा-तैसा, बचा-खुचा खाकर धूल-मिट्टी में खेलकर फटे-पुराने कपड़े पहनकर ये बड़े होते हैं। लेखिका की प्रमुख पात्रा अनारो समस्त निम्नवर्गीय स्त्रियों का सजीव चित्र है। कार्यस्थल और परिवार के बीच झूलती अनारो कठोर संघर्ष करती है। वह काम पर जाती है तो उसके सामने भी बच्चों की समस्या आड़े आती है। यथा- “तड़के उठो, दिशा-जंगल जाओ। बम्बे से पानी भरके लाओ। गंजी और छोटू के लिए रोटियां थेपो। दो-दो सेंक के हाथ में थमा दो और दो-दो ढाँप के धर जाओ। फिर झोला थाम और चल पड़ अनारो, काम पे। दिन भर तेरे बच्चे गली-मुहल्ले में इसके-उसके यहाँ रूलते फिरें और तू इसकी-उसकी जूठन समेटती फिर। बच्चे बासी-ढँपी खाकर, ठण्डा पानी पी लें और अम्मा का पेट तो खैर, जिस-तिस की बची-खुची खाने को ही धड़ से जुड़ा है।”1
प्रायः आर्थिक अभाव निम्नवर्गीय स्त्रियों के स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव डालता है। ये स्त्रियाँ आर्थिक अभाव के कारण भूखे पेट सोने या आधी पेट खाने को विवश होती हैं। वे जिन गंदी बस्तियों में रहती हैं, वहाँ न तो धूप आती है और न हवा। गंदे वातावरण, भोजन के अभाव में ये प्रायः बीमार रहती हैं। अतिरिक्त श्रम व छोटी-मोटी बीमारी की उपेक्षा करने से भी इनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अस्वस्थता व अपनी शारीरिक दुर्बलता के चलते भी ये घर पर आराम नहीं कर पाती हैं। छुट्टी करने से उनके काम का हरजाना होता है या फिर अगले दिन उन पर अतिरिक्त काम का बोझ पड़ जाता है। अनारो अपनी शारीरिक दुर्बलता के होने पर भी सेहत पर कोई ध्यान नहीं दे पाती है। एक दिन वह टीचर के यहाँ काम करते समय अचेत हो जाती है। टीचर उसे तुरंत अस्पताल पहुँचाती है। अनारो की चिंताजनक शारीरिक स्थिति को देखकर डाॅक्टर उसे कड़े परामर्श देता है- “इतनी कमाई का लालच करने से नहीं चलेगा। काम घटाना पड़ेगा। खुराक बढ़ानी ही नहीं, ढंग की लेनी पड़ेगी। अभी छाती का एक्स-रे ठीक निकला है, पर ऐसा ही चला तो तपेदिक होते कितनी देर लगती है। दूध, सब्जी, कोई मौसमी फल, रोटी दाल के अलावा लेना पड़ेगा। इतनी गिरी हुई सेहत, तिस पर बच्चे पैदा करने का शौक। अब या तो खुद जी लो या मरो बच्चे पैदा कर-करके। यह लो, ताकत की दवा लिख दी है बाज़ार से ले लेना। और, बीमारी मौत बन जाय, जरा उससे पहले ही अस्पताल पहुँच जाया करो। हम लोग डाॅक्टर हैं, भगवान नहीं।”2 कुपोषण और अनीमिया से ग्रस्त अनारो डाॅक्टर के परामर्श को एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देती है। दिन-रात खटने के बाद जैसे-तैसे सूखी-बासी इसके हाथ में आती है। वह दूध और फल का इंतजाम कैसे करे, ये बात भली प्रकार से जानती है। निर्धनता के कारण व्यक्ति का स्वास्थ्य अधिक प्रभावित होता है।
प्रायः निर्धन व्यक्ति अतिशीघ्र बीमारी की चपेट में आ जाते हैं। इनके पास धन व सुविधाओं का पूर्ण अभाव है, जिसके कारण ये अपना उचित इलाज नहीं करा पाते हैं। चेचक, हैज़ा, मलेरिया, टाइफाइड, पीलिया आदि जानलेवा बीमारियों से निजात पाने के लिए इलाज का पैसा उनके पास नहीं रहता है। धनाभाव से या तो इनके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है या वे असमय ही काल-कवलित हो जाते हैं।”3 अनारो के समक्ष भी छोटू के टाइफायड होने पर उसकी आर्थिक विवशता आड़े आती है। डाॅक्टर छोटू के लिए अनारो को परामर्श देता है, “बच्चे का खाना बंद ना कीजो। इन केपसूल से बल्कि भूख खुलेगी।”4 अनारो जानती है कि छोटू की तीमारदारी करने का न तो उसके पास समय है और न ही सामर्थ्य है। “भूख खुलेगी? लो सुन लो डाॅक्टर की बात, अभी भूख और खुलेगी।.. मैं जाऊँगी काम पे तो खिचड़ा ही बनाके धर जाऊँगी कि चिमकी हुई भूख की आरती उतारने यहाँ बैठी मालपुए पोऊँगी।”5 धनाभाव होने व काम की विवशता में अनारो अपने पुत्र को पूर्णतः ईश्वर के भरोसे छोड़ देती है। वह भगवान से प्रार्थना करती है- “मइया, मुझे बर्बाद न कीजो, मेरे बालकन को सहेजे रहियो।”6 अन्ततः छोटू बिना इलाज के ही स्वस्थ हो जाता है। यहाँ पर एक निर्धन माँ की लाचारी प्रकट होती है।
आर्थिक अभावग्रस्तता के कारण निम्नवर्गीय स्त्रियों की शारीरिक रूप से उचित देखभाल नहीं हो पाती है। गणेश पाण्डेय के अनुसार, “निर्धनता के कारण जच्चा व बच्चा दोनों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। धन के अभाव में जच्चा एवं बच्चा की उचित देखभाल नहीं हो पाती है। परिणामस्वरूप जन्म लेने के कुछ दिनोपरांत ही बच्चे की मृत्यु हो जाती है। कभी-कभार बच्चे की मृत्यु गर्भ में ही हो जाती है, जिससे उसकी माँ पर भी बुरा असर पड़ता है। गर्भावस्था के दौरान माँ को उचित भोजन, उचित आराम एवं चिंता से मुक्ति नहीं मिल पाती है। फलतः इसका प्रभाव जच्चा एवं बच्चा दोनों के स्वास्थ्य पर पड़ता है।”7 वह और छोटू को घर पर ही जन्म देती है। उचित खान-पान व देखरेख के अभाव में वह सौरी से कमज़ोर एवं पीली होकर निकलती है। वह स्वयं मानती है- “मर्द की जच्चा-जोरू होती तो सौरी में से अनार होकर निकलती। पर मैं, तो भगौड़े-निकम्मे की जच्चा थी न, सो पड़ोसियों के घर की काली गुड़ की चाय सुड़ककर, पीली की पीली ही खड़ी हो गयी।”8 डाॅ. ज्ञान अस्थाना अपने एक लेख ‘नारी जिजीविषा की पहचान’ में अनारो की प्रशंसा करते हुए लिखते हैं, “गर्भावस्था में भी पति के असहाय, अकेली छोड़ जाने पर भी वह जीवन का आंतरिक सेतु बनाए रखती है। एक समझौता कर लेती है वह अपनी तकदीर से, तदबीर से। आर्थिक संकट के इस युग में बिना नीयत डुलाये आस्था और निष्ठा के साथ दोनों बच्चों को पालने और पढ़ाने-लिखाने में अपने जीवन को एक पावन यज्ञ के समान बना लेती है।9
अनारो की शारीरिक स्थिति उसके अंदर पनप रही बीमारियों; अनीमिया और कुपोषण के कारण और भी अधिक चिंताजनक होती जा रही है। इसके उपरांत भी वह अपनी समस्त बीमारियों की उपेक्षा करके किसी मशीन की भांति दिन-रात खटती रहती है। यथा- “उसका पेट तो कमर से इस कदर लगा रहता कि वहाँ, उसकी फटी साड़ी की मलगुज़ी पटेलियों का खुला रहना भी दूभर हो जाता। पर इस पिछके पेट की क्षुधायुक्त दुर्बलता का कुप्रभाव उसके बाजुओं पर कभी न पड़ा।”10 बीमारी चाहे कुछ भी रही हो पर दुर्बल शरीर की थकान उतारने के लिए वह यदा-कदा चाय के साथ ‘एसपरिन’ टैबलेट लेती रहती है।” निर्धनता व अभावग्रस्तता के कारण निम्नवर्गीय स्त्रियों को प्रायः पर्याप्त भोजन नहीं मिल पाता है। अपर्याप्त व दूषित बासी भोजन खाने के परिणामस्वरूप इनके शरीर में आवश्यक पोषक तत्वों की कमी हो जाती है, जिससे इनका शारीरिक एवं मानसिक विकास रुक जाता है। मानसिक विकास बहुत हद तक वंशानुक्रम पर भी निर्भर करता है। लेकिन यह भी कहा जा सकता है कि जो दशायें शरीर के विकास को प्रभावित करती हैं, वही दशायें मानसिक विकास को भी प्रभावित करती हैं। चाहे कितनी भी वंशानुक्रमिक योग्यता क्यों न हो, उचित मात्रा में और अच्छे भोजन की अनुपस्थिति में पूर्ण मानसिक विकास नहीं हो सकता और इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि इनकी अनुपस्थिति में ही मानसिक हीनता पाई जाती है।”11 अतः बहुत हद तक व्यक्ति का मानसिक विकास उसके खान-पान पर निर्भर करता है।
इस प्रकार आर्थिक कठिनाइयों से जूझती अनारो जीवनपर्यंत जीवन से संघर्ष करती है। अपने पति से उसे भूख, गरीबी, बच्चे, सौतन क्या नहीं मिलता, जिस पति से अनारो को जीवन भर मार, अपमान और अकेलापन प्राप्त हुआ उसी को ढूंढने बम्बई जाने के लिए वह डाकखाने में जमा अपनी समस्त जमा-पूँजी खर्च कर देती है। डाॅ. नीलम मैगज़ीन गर्ग इस संदर्भ में कहती हैं कि भारतीय नारी की यही तो महानता है। अनारो बेशक मेहरी हो परंतु व्यक्तित्व से तो नारी ही है और एक ऐसी नारी जो प्यार की भूखी है। प्यार के दो बोल सुनने के लिए ही तो वह पति के पीछे-पीछे भागती है। मन से टूटी और तन से थकी नारी की यह स्वाभाविक मनःस्थिति है।12 अनारो चाहती है कि उसका पति बेशक अपनी कमाई का एक पैसा उस पर खर्च न करे पर वह उससे प्रेम करता रहे और जीवन में प्रत्येक परिस्थितियों में सदा उसके साथ खड़ा रहे, अनारो को भी प्यार चाहिए…. छाँव चाहिए.. नंदलाल, तू मीठा बना रहे.. अपना बना रहे तो जी जायगी अनारो… झेल अपनी जिनगानी को… भूख-प्यास को भी पी जायगी।13
इस प्रकार एक मध्यवर्गीय लेखिका होते हुए भी मंजुल भगत ने अपने ‘अनारो’ उपन्यास में एक छुट्टा काम करने वाली घरेलू नौकरानी की दशा का सजीव चित्रण किया है। अभी तक स्त्री विमर्श के नाम पर केवल मध्यवर्गीय स्त्रियों का वर्चस्व है। मध्यवर्गीय स्त्रियों के नाम पर रचित साहित्य में पत्नी-पति संबंध स्त्री की यौन स्वच्छंदता, मध्यवर्गीय रहन-सहन, गृहस्थी और दफ़्तर आदि का ही चित्रण किया जाता था, पर मंजुल भगत ने ‘अनारो’ में एक निम्नवर्गीय स्त्री के जुझारूपन और संघर्ष का चित्रण किया है और हिन्दी साहित्य में निम्नवर्गीय स्त्री की जिजीविषा को स्थान दिया है। ‘अनारो’ से प्रेरणा पाकर आगे चलकर भीष्म साहनी ने ‘बासंती’ और कृष्ण-बलदेव वैद्य ने ‘एक नौकरानी की डायरी’ जैसे उपन्यास लिखे।
संदर्भ-
1. मंजुल भगत, अनारो, पृ. 9
2. मंजुल भगत, अनारो, पृ. 82
3. गणेश पाण्डेय, भारतीय सामाजिक समस्याएँ, पृ. 246
4. मंजुल भगत, गंजी, पृ. 248
5. मंजुल भगत, गंजी, पृ. 248
6. मंजुल भगत, गंजी, पृ. 248
7. गणेश पाण्डेय, भारतीय सामाजिक समस्याएँ, पृ. 246
8. मंजुल भगत, अनारो, पृ. 28, 29
9. ज्ञान अस्थाना सं. महीप सिहं, हिन्दी उपन्यास: समकालीन परिदृश्य, पृ.78
10. मंजुल भगत, अनारो, पृ. 18
11. गणेश पाण्डेय, भारतीय सामाजिक समस्याएँ, पृ. 245
12. नीलम मैगज़ीन गर्ग, साठोत्तरी हिन्दी उपन्यास में नारी, पृ. 208
13. मंजुल भगत, अनारो, पृ. 76
– तबस्सुम जहां