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भ्रमरगीत परम्परा- स्त्री विमर्श की अभिव्यक्ति: मीनू पारीक
भ्रमरगीत परम्परा काव्य पर विचार करते हैं तो एक विशाल कवि मण्डल सम्मुख दिखाई देता है। भ्रमरगीत परम्परा का प्रारंभ विद्यापति के पदों से मानते हैं। सूरदास ने भ्रमरगीत परम्परा का प्रणेता बनकर मार्ग प्रशस्त किया। सत्यनारायण कविरत्न ने परम्परा का निर्वाह करते हुए ‘भ्रमरदूत’ में नवीनता व मौलिकता का परिचय दिया। अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ कृत प्रिय प्रवास भी भ्रमर गीत परम्परा का विकास ही है। जिसमें राधा का परोपकारिता, विश्वबंधुत्व की शिक्षा देने वाली लोक सेविका का रूप है। मैथिलीशरण गुप्त द्वापर में इसी परम्परा का विकास है। इसके साथ ही जगन्नाथ रत्नाकर के उद्धवशतक में भ्रमरगीत परम्परा का काव्य उल्लेखनीय है। भ्रमरगीत साहित्य का मूल प्रवत्र्तक सूरदास को माना गया है। सूरदास ने उक्त प्रसंग श्रीमद्भागवत से उद्धत किए हैं सूरदास ने मौलिकता, सजीवता, संवेदनशीलता, मार्मिकता एवं मानस के वैज्ञानिक ज्वार भाटे की अभिव्यक्ति की है। सूरदास द्वारा रचित भ्रमरगीत विरह, पीड़ा, नैतिकता, मानवीयता की टीस से टपकता हुआ अनुभूतियों का चित्र है।
सूरदास के काव्य में स्त्री का सहज, स्वतंत्र और तेजस्वी रूप मिलता है, जो प्रेम के अलावा लोक और वेद बंधन को नहीं मानती। रस शिरोमणि सूर ने अपने काव्य में नारी के विभिन्न रूपों, जीवन के अनेक पक्षों एवं उनकी मान्यताओं एवं मूल्यों का सहज और यथार्थ चित्रण किया है। सूरदास को नारी के विभिन्न स्वरूपों के दर्शन आज के जीवन के परिवेश में नित्यप्रति होते रहते हैं। सूर ने नारी हृदय का मनोवैज्ञानिक चित्रण किया है। जिसमें उच्चवर्गीय और निम्नवर्गीय नारियों में विशेष रूप से भेद नहीं किया है। उनकी नारी राजरानी अथवा राजवंशीय होते हुए भी पहले माता, पुत्र या प्रियतमा है। उसमें सामान्य नारी हृदय की अनुभूतियाँ हैं जो उसको अभिजात्य से सामान्य की पंक्ति में लाकर खड़ा करती है।
भागवत की गोपियाँ सीधी, सरल गंभीर व संतोषी प्रवृत्ति की हंै। उनमें विरोध या अस्वीकार्य की भावना नहीं है। वे रूढि़यों में बंधी हुई कंुठित नारी हंै जो पुरूष को अपने अनुकूल ना ढालकर स्वयं उसके इच्छा अनुसार ढलती हैं। सूर की गोपियाँ सरल ग्रामीण अबलाएँ होते हुए भी साहसी चतुर, वाग्विदग्ध और तर्क कुशल हैं। उनमें अपनी बात को मनवाने की व अनुचित बात को अस्वीकार करने की क्षमता है। वे उद्धव के योग संदेश को सुनकर बरस पड़ती हैं, तीव्र व्यंग्य प्रहार करती हैं।
सूर की गोपियाँ बड़ी दबंग और साहसी हैं। उनमें अपना विरोध करने वाले पुरूष का तिरस्कार करने की प्रवृत्ति है। वे उसे कपटी, कुटिल बताती हैं।
सूर की गोपियों में अपने मन के अनुसार उचित-अनुचित का और ग्राह्य-अग्रह्या का निर्णय करने की क्षमता है। गोपियाँ सत्य व खरी बात कहती हैं। उनमें अस्वीकार्य करने की शक्ति है अप्रिय वचन कहने वाले को कटु वचन कहने का हौंसला है। सूर की गोपियों में व्यंग्य करने की तथा परिहास करने की प्रवृत्ति है-
आए जोग सिखावन पांडे।
परमारथी पुराननि लादे ज्यों बनजारे टांडे।।
गोपियाँ क्रोध, क्षोभ तथा तीखे व्यंग्य करने की योग्यता रखती हैं-
अब कत सुरति होति है, राजन?
दिन दस प्रीति करी स्वारथ हित रहत आपने काजन।।
गोपीनाथ कहाय सूर प्रभु कत मारत हौ लाजन।।
वे स्त्री स्वभाव को ही योग अग्राहयता का कारण बताती हैं। वे भावना के स्तर पर जीती हैं और इसी स्तर पर जीने को महत्वपूर्ण मानते हुए अपनी मान्यताओं को दूसरों की मान्यताओं पर वरीयता उन्हें प्रिय है। सूर की गोपियाँ अपनी वर्ग गत दुर्बलता की चेतना से अनभिभूत हैं उनमें प्रचुर आत्मविश्वास है-
सूर की गोपियों में वाग्विदग्धता है। अपनी बात को प्रभावशाली बनाने में सटीक उक्तियों का प्रयोग करती हैं। सामाजिक व्यवहार तथा मर्यादाओं के अनुसार भ्रमरगीत सार में गोपियाँ किसी नियम व मर्यादा का पालन नहीं करती। गोपियों का प्रेम अमर्यादित है। वह सामाजिक भूमिका पर स्थिर नहीं है किन्तु भ्रमरगीत सार में ब्रह्म श्रीकृष्ण व गोपियाँ जीवात्मा है। राधा कृष्ण की शक्ति है। भ्रमरगीत सार में राधा व गोपियों के भावों के वर्णन के साथ-साथ यशोदा, कुब्जा कीर्ति के भावों का वर्णन मिलता है।
राधा:
सूर साहित्य में राधा का एक रूप सखा-सखी का है। दूसरा परकीया भाव से जुड़ा हुआ है और तीसरा स्वकीया भाव से। राधा वियोगिनी है। राधा कृष्ण का प्रेम अंतमुर्खी हो गया। राधा करूणा व दयनीयता का मूर्ति के रूप में दिखाई देती है। सूर की पंक्तियाँ राधा के मनोवैज्ञानिक रूप का चित्रण करती हैं। राधा भ्रमरगीत में बोलती कम तथा अनुभव अधिक करती है। गोपियाँ ही उसके विषय में कहती है-
अति मलीन वृषभानुकुमारी।
हरिस्त्रमजल अंतर तनु भीजे ता लालच न धुआवति सारी।।
अधो मुख रहति उरध नहिं चितवति ज्यों गथ हारे थकित जुआरी।
छुटे चिहुर बदन कुम्हिलानो ज्यो नलिनी हिमकर की मारी।
श्रीकृष्ण राधा को मंत्री कहकर सम्बोधित करते हैं, मंत्री का पर्याय शक्ति माना है। राधा कृष्ण की प्रिया व शक्ति दोनों है। राधा कृष्ण का प्रेम जीव और ब्रह्म की तन्मयता को पहुँचा हुआ प्रेम था। जीवात्मा ब्रह्म का चिंतन करते-करते ब्रह्ममय हो जाती है उसी प्रकार राधा कृष्णमय हो गई। राधा को तन-मन का होश भी नहीं है-
सुनो स्याम यह बात और कोउ क्यों समुझाय कहै।
दुहुँ दिसि को रति बिरह विरहिनी कैसे कै जु सहै।
जब राधे तबहीं मुख माधो रटति रहै।
जब माधो होइ जात सकल तनु राधा बिरह दहै।
भ्रमर गीत सार में राधा की स्थिति सर्वाधिक विषय है। प्रेम लीला में महान समारोह दिखाने वाली-राधिका, विरह की सुदीर्घ अवधि में तिल-तिल जलती हैं। अपने प्रेम को स्थूल से अत्यन्त सूक्ष्म बनाकर अपने व्यक्तित्व को आराध्य देव कृष्ण में लीन कर देती हैं।
यशोदा:
यशोदा ऐसी मुग्धा माता है जो कृष्ण के लालन-पालन और शिशु क्रीड़ा देखने में लीन रहती हैं। यशोदा कृष्ण को माखन में मिश्री मिलाकर चटाती हंै। उनके लिए रेशम का पालना बनाती हैं जिसमें रतन पिरोना, लाल आदि लगे हुए हैं। अपनी नजर न लग जाए इसलिए वह कृष्ण के मस्तक पर मसि बिन्दु लगाती हैं। नजर से बचाने के लिए वह उन पर राई नोन उतारती हैं। वह अत्यन्त प्रेमपूर्वक चलना सिखाती है-
लानन, वारी या मुख ऊपर।
माई मेरिहि दीठि न लागै, तातैं मास-बिंदा दियो भ्र पर।।
यशोदा के मन में अशेष सरलता है इसलिए कृष्ण के अति मानवीय कृत्यों को देखकर वह विस्मित तो होती है किन्तु कृष्ण को शिशु समझकर वह उनके अतिमानवीय कृत्यों का विस्मरण कर देती है और उसका वात्सल्य एवं स्नेह अक्षुण्ण बना रहता है। जब यशोदा पुत्र के अनिष्ट के आशंका से अत्यन्त अधीर होती है एवं फिर उनका कुशलक्षेम जानकर विस्मित एवं शांत हो जाती हैं। यशोदा में कृष्ण को संयत एवं सदाचारी बनाने वाले अनुशासन का अभाव है। कृष्ण के वियोग दुःख की भावना से चिंतित होती हैं। यशोदा मथुरा जाती हुई पंथी स्त्री से वह कृष्ण के प्रति अपना ममत्व प्रकट करती हैं एवं देवकी को भी वह प्रार्थना पूर्वक संदेश भेजती है। वह कृष्ण से एक बार ब्रज आने की प्रार्थना करती हैं।
मेरे कान्ह कमलदल लोचन।
अबकी बैर बहुरि फिरि आवहु, कहा लगे जिय सोचन।।
यह लालसा होति मेरै जिय, बैठी देखत रैहौ।
गाई चरावत कान्ह कुँवर सौं बहुरि न कबहुँ कैहौं।।
यशोदा वात्सल्य की प्रतिमा है। वह वयस्का स्त्री है इसलिए उसमें दाम्पत्य प्रेम की रमणीयता बहुत कम है प्रौढ़ गृहिणी व गांव के मुखिया की पत्नी होने के कारण वैभव और सामाजिक प्रतिष्ठा सम्पन्न है। यशोदा अपने पुत्र की परिचर्चा स्वयं करती है। यशोदा का चरित्र वात्सल्य का चरमोत्कर्ष है।
कीर्ति:
वृषभानु महर की पत्नी और राधा की माँ हैं। उन्हें सूर सागर में राधा की माँ के रूप में ही चित्रित किया गया है। उनमें पुत्री के प्रति गंभीर प्रेम है एवं लोक लज्जा वश उसके स्वच्छंद प्रेम के प्रति आवर्जना का भाव भी है। वह लोकोपवाद भी सुनती है। माता अपनी पुत्री को लोक मर्यादा का ध्यान रखने को कहती है और स्वच्छंद प्रेम को वर्जित करती है-
काहें कौं पर-घर छिनु-छिनु जाती।
घर मैं डांटि देति सिख जननी, नाहिंन नैंकु डराति।
राधा-कान्ह कान्ह राधा ब्रज हृै, रह्यौ अतिहि लजाति
जब गोकुल कौ जैबो छाँडों, अपजस हू न अघाति।।
कुब्जा:
कंस की दासी हैं रंगभूमि में जाने से पूर्व कुब्जा कृष्ण से मिलकर उन्हें अंगराग भेट करती है और कृष्ण उसका अंग सीधा कर देते हैं वह कृष्ण को पति रूप में पाना चाहती है। कृष्ण उसे जातिगत भेदभाव के बिना स्वीकार करते हैं। कुब्जा अंकिचन नारी हैं जिसे कृष्ण का प्रेम प्राप्त हुआ इसलिए उसके प्रेम में नम्रता त्याग और आत्मसमर्पण का भाव अधिक है।
गोपियाँ:
गोपियों में कृष्ण के प्रति मुधरव्य भाव है। गोपियों का चरित्र व्यंग्य और सभी प्रकार के सामाजिक विधि निषेधों परे हैं। गोपी के साथ सखी शब्द भी दिया गया है। गोपियाँ श्रीकृष्ण की सखी कालांतर में प्रेमिका व प्रेम लीलाओं में सहचरी बनती हैं। वे कृष्ण व राधा की सहयोगिनी हैं। विपत्ति के समय कृष्ण के लिए मंगल कामना करती हैं। गोपियों में कृष्ण के लिए ममता का भाव विद्यमान है। यशोदा से कृष्ण की शिकायत करती हैं यशोदा द्वारा कृष्ण को प्रताडि़त करने पर व सहन नहीं कर पाती और यशोदा से क्षमा हेतु अनुनय विनय करती है।
गोपियाँ रास लीला में एकांतिक प्रेम निष्ठा प्रकट करती हैं। गोपियों को न पति की चिंता ना माता-पिता का भय है न ही उनमें नारी सुलभ लज्जा उनका प्रेम नितांत एकांतिक है। उनका प्रेम कसौटी भी है। कृष्ण के मथुरा जाने पर उनका प्रेम सुदीर्घ विरह है। गोपियों के प्रेम के सबसे बड़ी परीक्षा बन जाता है। भ्रमरगीत की गोपियाँ निराश हताश है। उनकी निराशा का कारण श्रीकृष्ण द्वारा अक्रूर के साथ मथुुरा चले जाना है व उद्धव को प्रारंभ में कृष्ण समझती हैं व इस निराशा में भी शिष्टाचार का पालन करती हैं और कहती है-
तुम्हरो दरशन पायो आपनो जनम सफल करी जान्यो।
सूर उधो सों मिलत भयो सुख ज्यों झख पाया पान्यों।।
वे भोली हैं ऐसी प्रेमा भक्ति से परिपूर्ण हैं कि प्रेमासक्ति के अतिरिक्त कोई कामना नहीं करती। ‘‘डाॅ. ब्रजेश्वर वर्मा का कथन है कवि ने गोपियों के चरित्र के द्वारा यह प्रदर्शित किया है कि सरल शुद्ध विश्वास की दृढ़ता, तर्क बुद्धि और ज्ञान से हिलाई नहीं जा सकती। यही कारण है कि गोपियों ने उद्धव की बातों को हँसी-हँसी में टाल दिया और स्वयं उद्धव को बुद्धि पक्ष को छोड़कर भावना पक्ष का समर्थक बना दिया। गोपियाँ भाव पक्ष की साक्षात मूर्ति है।’’ वाक् चातुर्य से परिपूर्ण है। भावुकता और सरसता की प्रतिमूर्ति होते हुए भी वागवैदग्ध्य की सजीव प्रतिमूर्ति भी रखती है। व्यंग्य विनोद उपहास कटु कथन और वचन वक्रता भरी हुई है। ऐसे प्रश्न करती है कि उद्धव का ज्ञान प्रेम प्रवाह में कहीं बह जाता है-
हरि काहे के अंतर्जामी?
जौ हरि मिलन नहिं यहि औसर, अवधि बतावन लामी।
अपनी चैप जाय उठि बैठे और निरस बेकामी।।
गोपियों व विनोदशीलता विद्यमान है-ऐसी फब्तियाँ कसती हैं कि प्रतिपक्ष निरूत्तर हो जाता है-
आयो घोष बड़ो व्यापारी।
लादि खेप गुन ज्ञान जोग की ब्रज में आय उतारी।
फाटक दै कर हाटक माँगत भोरे निपट सुधारी।’’
कटुक्तियों के प्रयोग में संकोच नहीं करती हैं। उनके शब्द विष बूझे वाणों की तरह है। गोपियों में स्वीकृति मूलक भाव है उनका प्रेम दिव्य है। नारी स्वभाव के अनुरूप संकुचनशील है और मन में गुप्त रूप से प्रेम के रहने पर भी उनमें मर्यादा है। गोपियाँ कुब्जा व मथुरा की नारियों से ईष्या प्रकट करती हैं।
मुरली:
आदर्श प्रेमिका व तपस्वी है वह थोड़े शब्दों में गोपियों के अक्षय को और लाँछन का उत्तर देती है। उससे उसके व्यक्तित्व की महानता प्रकट होती है। गोपियों द्वारा उसे लम्पट कुल्टा, अन्यायिनी, दुराचारिन, कुलदाहिन आदि कहा गया है। उसे कृष्ण का अधर रस लूटने वाली मूर्ख स्त्री कहा गया है। किन्तु मुरली कष्ट सहन त्याग एवं निश्छल प्रेम की मूर्त प्रतिमा है। मुरली कृष्ण प्रेम को अपना सौभाग्य मानती है।
मुरली के प्रेम की अपार साधना एवं प्रेम पीर है। आत्मविश्वास और आत्म समर्पण है, किन्तु प्रेम पात्र पर एकाधिकार एवं अन्य किसी के प्रति ईष्या का भाव नहीं है। नारी के सच्चे प्रेम का पक्ष मुरली के माध्यम से प्रकट होता है सूरदास के साहित्य में मुरली जो काठ की बनी है निर्जीव वाद्य यंत्र है एक जीती जागती नारी के रूप में है।
सारांश:
भ्रमरगीत सार परम्परा का उल्लेख करते हैं सूर साहित्य सम्मुख उपस्थित होता है। भ्रमरगीत सार पर लिखे काव्यों में राधा-कृष्ण और गोपियों के चरित्र में देश प्रेम और जनसेवा की भावना की उद्वभावना है।
सूरदास जी ने अपने काव्य में गोपियों के माध्यम बनाकर नारी के विषयक में अपने विचारों को अपनी धारणा को मूर्तरूप दिया है। उन्होंने अपने काव्य में नारी का अत्यन्त सम्मान पूर्ण दृष्टिकोण दिया है। सूरदास जी ने भ्रमरगीत सार में नारी को शक्ति माना है। भ्रमरगीत सार में नारी गौरवशाली व सम्मानीय पद पर आसीन हैं। भ्रमरगीत सार में नारी सामाजिक रूढि़यों परम्पराओं का विरोध नहीं करती अपितु आधुनिकता व स्वच्छंदता का नया संदेश देती है। सामाजिक भेदभाव से परे हैं। सूर काव्य में स्त्री विमर्श का मुखर रूप प्रस्तुत होता है।
संदर्भ-
1. कुंवर पाल सिंह, भक्ति आंदोलन और लोक संस्कृति, अनंग प्रकाशन
2. बीना गुप्ता, भक्ति काव्य में नारी की स्थिति, क्लासिक पब्लिकेशंस
3. मैनजर पाण्डेय, भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य, वाणी प्रकाशन
4. डाॅ. प्यारे लाल शुक्ल, भक्ति आंदोलन काव्य के चित्रित नारी जीवन, साहित्य वाणी
5. आचार्य रामचंद्र शुक्ल, भ्रमरगीत सार, आस्था प्रकाशन, जयपुर
6. राजकुमार शर्मा, सूरदास और उनका भ्रमरगीत, विश्वभारती पब्लिकेशंस
7. डाॅ. हरिचरण शर्मा, भ्रमरगीत सार, श्याम प्रकाशन
– मीनू पारीक