आलेख
भ्रमरगीत परम्परा- विविध आयाम: अंकिता लोहनी
‘भ्रमरगीत’ प्रसंग श्रीमद्भागवत से संकेत रूप में ग्रहण किया गया है। सूर ने भागवत में आये इस प्रसंग के संक्षिप्त स्वरूप को वृहदाकार प्रदान कर दिया है। इस प्रयास में सूर ने अनेक मौलिक उद्भावनाएँ की हैं, श्रीमद्भागवत के 46वें अध्याय में भ्रमरगीत प्रसंग की पृष्ठभूमि तैयार हुई है। श्रीमद्भागवत के निम्नलिखित श्लोक में भ्रमरगीत की भूमिका तैयार हुई है-
वृष्णीनां प्रवरो मंत्री कृष्णास्य दयितः सखा।
शिष्यो बृहस्पतेः साक्षादुदभवो बुद्धिसत्तमः।।
इस प्रकार श्रीकृष्ण के मंत्री एवं सखा ‘उद्धव’ ब्रज में जाते हैं और श्रीकृष्ण के माता-पिता और गोपियों को उनका कुशल समाचार देते हैं।
गच्छोद्धव ब्रज सौम्य पित्रौ नौ प्रतिभावह।
गोपीनां मद्वियोगाधि मत्सन्देशैर्विमोचय।।
उद्धव ब्रज में गोपियों को ज्ञान योग का उपदेश देने के लिए पहुँचते हैं। वह जब पहुँचते हैं, तभी एक भौंरा उड़ता हुआ उधर आ जाता है। उद्धव के ज्ञानोपदेश की स्थिति और ‘भ्रमर’ के अचानक उड़कर आ जाने वाली स्थिति से गोपियों का हृदय और मस्तिष्क एक चमक से भर उठता है। गोपियाँ भ्रमर को कोसती हैं, किन्तु उनके कोसने और उपालम्भ व व्यंग्य की शैली ऐसी है कि सारी बातें, सारे उलाहने उद्धव पर बैठ जाते हैं। यहीं से भ्रमरगीत प्रसंग आरंभ होता है। यदि भ्रमरगीत के शाब्दिक अर्थ पर ध्यान दंे तो इसका अर्थ है ‘भ्रमर का गुंजन’। गोपियों ने उद्धव के ज्ञानोपदेश को भी भ्रमर का गुंजन ही माना है। इसलिए भ्रमरगीत प्रसंग रोचक बन पड़ा है।
सूरदास का भ्रमरगीत यद्यपि भागवत के आधार पर लिखा गया है, किन्तु फिर भी उसकी अपनी विशेषताएँ हैं। ‘‘सूर ने अपने भ्रमरगीत में न केवल गोपियों के उपालम्भों और उनकी विरह-वेदना का वर्णन किया है, बल्कि नंद और यशोदा के वात्सल्यपूरित हृदय की अद्भुत और मनोरम झांकी भी प्रस्तुत की है। सूर का भ्रमरगीत गोपियों की विरह व्यथा के साथ-साथ उनके द्वारा किए गए व्यंग्य, विनोद, हास-परिहास और उपालम्भ आदि को सरस और वक्रतापूर्ण शैली में प्रस्तुत करता है।’’
सूर के भ्रमरगीत में अभिधा की अपेक्षा व्यंजना शब्द-शक्तियों का विशेष उपयोग हुआ है। भ्रमरगीत की तो उद्भावना ही व्यंजना की करामात का परिणाम है। इसमें अनेक व्यंजनापूर्ण मार्मिक वर्णन मिलते हैं। भ्रमरगीत का संपूर्ण उपालम्भ व्यंजना के द्वारा ही अभिव्यक्त हुआ है। इसीलिए इसका प्रत्येक पद अत्यंत मार्मिक बन पड़ा है। उद्धव की गंभीर बातों का उत्तर भी सूर ने गोपियों द्वारा सरल व्यंग्यपूर्ण उक्तियों से दिलाया है।
ऊधो! भली करी तुम आए।
ये बातें कहि कहि या दुख में ब्रज के लोग हंसाए।।
‘‘सूर का भ्रमरगीत एक निश्चित उद्देश्य में बना हुआ है। इसके पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने निर्गुण के ऊपर सगुण की, ज्ञान के ऊपर भक्ति की और मस्तिष्क के ऊपर हृदय की विजय चित्रित की है। निश्चत ही सूर का लक्ष्य यह रहा है कि वह एक सरस रचना हिन्दी जगत को भेंट करें।’’
सूरदास के भ्रमरगीत के पश्चात् ‘नंददास’ का ‘भंवरगीत’ एक उल्लेखनीय रचना के रूप में सामने आता है। इनके भ्रमरगीत का प्रारंभ ‘उद्धव कौ उपदेश सुनौ ब्रजनागरि’ से होता है। गोपियों से मिलने की पूर्व की कथा को नंददास ने किंचित् भी महत्व नहीं दिया है। निर्गुण, सगुण तथा ज्ञान और भक्ति पर तर्क-वितर्क होता है और नंददास उद्धव की पराजय चित्रित करते हैं।
जो उनके गुन नाहिं और गुन भये कहाँ ते
बीज बिना तरू जमै मोहि तुम कहो कहाँ ते।
‘‘भँवरगीत में भागवत का ही प्रसंग वर्णित है। इसमें भावना तथा विचार दोनों की ही प्रधानता है। प्रसंग को परम्परागत बनाए रखने के निमित भ्रमर प्रवेश का भी उल्लेख किया गया है। अंत में पुष्टिमार्गीय होने के कारण तथा पूर्ववर्ती परम्परा के अनुसार नंददास ने भी ज्ञान के सम्मुख भक्ति तथा निराकार की अपेक्षा साकार उपासना को ही श्रेष्ठ बताया है।’’
कृष्ण काव्यधारा के जिन कवियों ने भ्रमरगीत की परम्परा को आगे बढ़ाया, उनमें परमानंददास का नाम भी उल्लेखनीय है। इनके परमानंदसागर में भ्रमरगीत विषयक प्रसंग बहुत सरस और उत्कृष्ट रीति से नियोजित किया गया है। ‘‘चैपाई और साखी छंदों के सहारे ही इन्होंने संपूर्ण भ्रमरगीत की रचना की है। ‘भ्रमर’ को कहीं भी स्थान प्राप्त नहीं हो सका है। ‘मधुकर’ मिलता अवश्य है किन्तु वह सही भावना का प्रतिनिधि बनकर नहीं आ सका है। ‘सूर’ और ‘नंददास’ की भाँति ही इन्होंने भी ज्ञान के खण्डन और प्रेम-मार्ग या भक्ति के मण्डन को अपना विषय बनाया है।’’ परमानंददास की गोपियों के पास तर्क नहीं है केवल विवशता है।
ऊधौ यह दुख छीन भई।
बालक दशा नंदनंदन सो बहुरि न भेंट भई।
परमानंददास ने सूर की भाँति यह भी दिखाया है कि उद्धव गोपियों के प्रेम-प्रभाव में आकर मथुरा लौट जाते हैं। वहाँ जाकर कृष्ण से गोपियों की प्रेमजनित विवशता का बखान बड़े मार्मिक शब्दों में इस प्रकार बताते हैं-
ऐसी मैं देखी ब्रज की बात।
तुम बिन कान्ह कमल दल लोचन जैसे दुल्ह बिन जात बरात।।
परमानंददास के पश्चात भ्रमरगीत परम्परा में कृष्णदास का नाम लिया जाता है। कृष्णदास के भ्रमरगीत को लेकर अभी तक विद्वान संदेह की स्थिति में हैं। कारण यह है कि कुछेक समीक्षक इनकी इस रचना को संदिग्ध मानते हैं और यह संकेत करते हैं कि ये भ्रमरगीत संबंधी पद किसी दूसरे कवि द्वारा लिखे गए हैं। दूसरे पक्ष में ऐसे विद्वानों की भी कमी नहीं है जो यह मानकर चलते हैं कि ये कृष्णदास ने ही लिखे हैं।
भक्तिकाल के अन्य कवियों में ‘चाचाहित वृंदावनदास’ ने 109 पदों तथा अन्य नौ दोहों में इस प्रसंग को लेकर भ्रमरगीत विरह-काव्य की रचना की है। विद्वानों की दृष्टि में यह काव्य सामान्य कोटि का ही है। ‘चतुर्भुजदास’ के विषय में भी मतभेद हैं। इनके कीर्तन संग्रहों में केवल एक दो पद ही ऐसे हैं जो भ्रमरगीत से संबंधित हैं।
रामभक्ति शाखा के कवियों में महाकवि तुलसीदास का नाम लिया जा सकता है। इन्होंने श्रीकृष्ण गीतावली की रचना की है। इसमें जहाँ उन्होंने कृष्ण की बाल-लीलाओं का वर्णन किया है, वहाँ गोपी उद्धव संवाद से सम्बद्ध पदों की रचना भी की है। विरह की विविध दशाओं तथा गंभीर भाव-व्यंजनाओं के अभाव में भी तुलसी के द्वारा रचित पद उनके सरल हृदय और गोपियों की सहज भावना का परिचय अवश्य देते हैं।
सुनत कुलिस सम वचन तिहारे।
चित दै मधुप सुनहु सोउ कारन जातें जात न प्रान हमारे।।
भक्तिकाल के बाद रीतिकाल में भी भ्रमरगीत परम्परा प्रवाहित होती रही है ‘‘रीतिकालीन कवियों ने भ्रमराख्यान संबंधी कथानक को लेकर अपना आचार्यत्व प्रदर्शित किया है।….. निर्गुण, सगुण ब्रह्म के वाद-विवाद में ये कवि नहीं पड़े बल्कि अपने आश्रयदाताओं को प्रसन्न करने के लिए अलंकार तथा नायिका भेद के चमत्कार दिखने लग गए। उक्ति वैचित्र्य को विशेष स्थान मिला। केवल ‘मधुप’, ‘मधुकर’ शब्द पदों में जोड़कर भ्रमरगीत बना डाला गया।’’
डाॅ. उपाध्याय ने रीतिकालीन भ्रमरगीतों को तीन कोटियों में रखा है-अलंकारवादी, भावुक और समन्वयवादी। इस काल में मतिराम, देव, घनानंद, पद्माकर, सेनापति, भिखारीदास की कुछेक पंक्तियाँ ऐसी हैं जिनसे भ्रमरगीत की रचना का सा आभास होता है। मतिराम की गोपियों में भोलापन है, किन्तु मूर्खता नहीं है। वह इस बात से पूर्णतः परिचित हैं कि योग और नारी का कोई संबंध ही नहीं है।
पगी प्रेम नंदलाल के, हमैं न भावत जोग।
मधुप राजपद पाय के भीख न भोगत लोग।।
देव अलंकारवादी कवि हैं। इन्होंने भ्रमरगीत को लेकर कोई स्वतंत्र रचना नहीं की है। देव ने उद्धव के आगमन पर गोपियों की मानसिक स्थिति का बड़ा मार्मिक चित्रण किया है। देव की गोपियों की वचनावली में व्यंग्यवक्रता और उपहासपरक उक्तियाँ पर्याप्त मात्रा में विद्यमान हैं।
कुंजन में हेरि है जु स्याम को सुमिरिनी के।
हाथ लैन फेरि हैं सुमिरिनी के मन का।।
पद्माकर ने भी भ्रमरगीत प्रसंग से जुड़े कुछ पद और कवित्त लिखे हैं-
ऊधो यह सूधो सो संदेसो कहि दीजो भलो।
हरि सों हमारे ह्याँ न फूले बन कुंज हैं।।
भक्त रसखान को रीतिकाव्य के समीक्षकों ने रीतिमुक्त कवियों की श्रेणी में स्थान दिया है। इन्होंने ‘सुजान रसखान’ में भ्रमरगीत विषयक छंदों की रचना की है। रसखान ने अपने इन छंदों को शीर्षक तो भ्रमरगीत दिया है किन्तु भ्रमर शब्द का प्रयोग कहीं नहीं किया है। हाँ भ्रमर के स्थान पर उद्धव शब्द का प्रयोग अवश्य हुआ है।
ऊधो सों को रसखान कहै जिन चित्त धरौ तुम ऐते उपाइ कै।
कारे बिसारे को चाहंै उतारयौ अरे विष बावरे राखलगाइ कै।
घनानंद ने भी स्वतंत्र रूप से भ्रमरगीत पर कुछ नहीं लिखा है। कुछ पद अवश्य ऐसे हंै, जो ‘भ्रमरगीत’ से संबंध रखते हैं। घनानंद की गोपियाँ सूर की तरह भावुक हैं। उनमें चतुराई अधिक नहीं है।
रीतिमुक्त कवियों में घनानंद के पश्चात आलम का नाम आता है। इनके भ्रमरगीत विषयक छंद इनकी प्रसिद्ध कृति ‘आलमकेलि’ में देखने को मिलते हैं। भावुकता की दृष्टि से इनके छंद उल्लेखनीय हैं। इनकी रचना में एक ओर यशोदा-विरह और गोपी विरह चित्रित है और दूसरी ओर लगभग 19 छंदों में भ्रमरगीत से संबंधित भाव व्यक्त हुए हैं।
ब्रजनिधि ने 29 छंदों में ‘प्रीति पचीसी’ की रचना की है। उद्धव का निर्गुण ज्ञान वर्णित है किन्तु गोपियाँ उसका निर्भय होकर खण्डन करती हैं। इसके अलावा रीतिकालीन कवियों में आलम के कवित्त, नागरीदास का गोपी प्रेम प्रकाश, रसरूप का उपालंभ शतक, प्रेमदास का प्रेमसागर, ब्रजवासीदास का ब्रजविलास, रसरासि का रसिक पचीसी, ग्वाल का गोपी पचीसी, संतदास का गोपी सनेह बारहखड़ी, हरिदास बेन का गोपी स्याम संदेश, गंगादत्त का लीला सागर, रत्नसिंह नटनागर का नटनागर विनोद और ठाकुर के स्फुट पदों में भ्रमरगीत प्रसंग की चर्चा हुई है।
रीतिकाल के पश्चात् आधुनिक काल में भी भ्रमरगीत की परम्परा दिखाई देती है। भ्रमरगीत विषयक कुछ स्फुट पद काव्य के रूप में भारतेन्दु ने लिखे हैं। ब्रजागमन के पश्चात् गोपियाँ उद्धव का स्वागत करती हैं। उनको यह जानकर अपरिमित वेदना होती है कि कृष्ण ने केवल योग का ही संदेश भेजा है। एक ओर तो वह योग को अस्वीकार करती हैं और दूसरी ओर प्रियतम की आज्ञा का उल्लंघन करना भी उन्हें अभीष्ट नहीं है।
हरि संग भोग कियो जा तन सो, तासों कैसे जोग करें।
जा शरीर हरि संग लिपटानी, वापै कैसे भस्म धरैं।।
‘‘‘प्रेमधन’ ने भी इस विषय पर कलम चलाई है। इन्होंने मुक्तक छंदों में इस विषय पर लिखा है।’’ ‘सत्यनारायण कविरत्न’ ने जिस भ्रमरगीत की रचना की है उसमें गोपियाँ और उद्धव दोनों का ही अभाव है। यहाँ तक कि सगुण-निर्गुण की चर्चा भी नहीं है। माता यशोदा ही अनपढ़ के रूप में सामने आती है। कृष्ण ही माता को दुखी देखकर ‘भ्रमर’ के रूप में आ उपस्थित हुए हैं।
‘हरिऔध’ ने भ्रमरगीत प्रसंग को ‘प्रियप्रवास’ में विस्तारपूर्वक स्थान दिया है। इसमें स्वदेश प्रेम की और संकेत किया गया है। भ्रमरगीत का प्रारंभ कृष्ण की दुखित स्थिति से होता है। प्रियप्रवास की राधा लोकहित और समाजसेवा की भावना से ओतप्रोत है। इनकी राधा और गोपियाँ प्रेम के उच्च आदर्श से प्रेरित है इसलिए इसमें उद्धव को व्यंग्योक्तियों का सामना नहीं करना पड़ता। स्वयं राधा का स्वर आदर्शवादी है।
मैं ऐसी हूँ न निज दुःख से कष्टिता शोकमग्ना
हा! जैसी हूँ व्यथित ब्रज के वासियों के दुःखों से।
‘मैथिलीशरण गुप्त’ ने ‘द्वापर’ के माध्यम से कुछ भ्रमरगीत विषयक पद लिखे हैं। ‘द्वापर’ में उद्धव न तो क्रूर है और न कर्कश है, बल्कि वे एक सहृदय मानव के रूप में सामने आते हैं। हाँ इतना अवश्य है कि सगुण की महत्ता के प्रतिपादन में गोपियों के कथन बुद्धि-प्रेरक अधिक लगते हैं।
ज्ञानयोग से हमें हमारा
यही वियोग भला है।
जिसमें आकृति, प्रकृति, रूप, गुण
नाट्य कवित्त कला है।
आधुनिक युग में ‘जगन्नाथदास रत्नाकर’ द्वारा रचित ‘उद्धव शतक भ्रमरगीत परम्परा में एक उल्लेखनीय कड़ी के रूप में सामने आया है। रत्नाकर जी ने अपने ‘उद्धव शतक’ में पूर्ववर्ती सभी भ्रमरगीत काव्यों की विशेषताओं का समन्वय करने का प्रयत्न किया है। ‘उद्धवशतक’ 118 कवित्तों का पुंज है। रत्नाकर की गोपियों में सूर की गोपियों का हृदय, नंद की गोपियों की बुद्धि और आधुनिक नारी की सी चपलता है।
आवौ एक बार धरि गोकुल गलि की धूरि।
तब इहि नीति की प्रतीति धरि लै हैं हम।
मन सौ, करे जो सौं, सावर सिर आँखिन सौं।
ऊधव तिहारी सीख भीख करि लैहैं हम।
रत्नाकर जी के उद्धवशतक में बौद्धिकता, सहृदयता और स्पष्ट कथन पद्धति का संुदर समन्वय है। इनकी गोपियों में बुद्धितत्व की प्रधानता दिखाई देती है। वह ज्ञान-मार्ग के ऊपर प्रेम मार्ग को प्रतिपादित करती है।
निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि भागवत से प्रारंभ होने वाली भ्रमरगीत परम्परा आज तक काव्य में किसी न किसी रूप में आती रही है। भिन्न-भिन्न युगों की भिन्न-भिन्न परिस्थितियों के प्रभाव को समेटती हुई यह परम्परा निरंतर आगे बढ़ती रही है। इससे स्पष्ट है कि ‘भ्रमरगीत’ एक अत्यन्त प्रिय और रोचक विषय रहा है। आज के कवियों के मोह से यह बात और भी अधिक प्रमाणित हो जाती है।
संदर्भ-
1. डाॅ. हरिचरण शर्मा, भ्रमरगीत एक मूल्यांकन, अंकित पब्लिकेशंस, जयपुर, प्रथम संस्करण, 2001
2. प्रो. राजकुमार शर्मा, सूरदास और भ्रमरगीत, विश्वभारती पब्लिकेशंस, नई दिल्ली, संस्करण, 2011
3. डाॅ. स्नेहलता श्रीवास्तव, हिन्दी में भ्रमरगीत काव्य और उसकी परम्परा, भारत प्रकाशन मंदिर, अलीगढ़
4. डाॅ. विश्वंभरनाथ उपाध्याय, सूर का भ्रमरगीत: एक अन्वेषण
– अंकिता लोहनी