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भ्रमरगीत परंपरा- विविध आयाम: शबनम तब्बसुम
भक्तिकालीन काव्यधारा में कृष्णकाव्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। सगुण भक्ति के आराध्य देवताओं में भगवान श्रीकृष्ण सर्वोपरि हैं। श्रीकृष्ण भारतीय पुराण और इतिहास में सर्वाधिक रूप से वर्णित हुए हैं। कृष्णकाव्य का आधार ग्रन्थ भागवत् पुराण और महाभारत को माना जाता है। कृष्ण-गोपी चरित विषयक काव्य प्रत्येक युग में साहित्यकारों को आह्लादित करता रहा है। यह काव्य भ्रमरगीत, भंवरगीत, भ्रमरदूत, उद्धवशतक आदि नामों से अभिहित किया जाता है।
हिंदी काव्य में भ्रमरगीत परम्परा का मूल स्रोत श्रीमद्भागवत पुराण है, जिसके दशम स्कन्ध के 46 वें तथा 47 वें अध्याय में ‘भ्रमरगीत प्रसंग’ है। ‘जिस काव्य में उद्धव-गोपी संवाद के माध्यम से ज्ञान-योग का खंडन तथा प्रेम-भक्ति का समर्थन किया जाता है, उसे भ्रमरगीत कहते हैं।’’1 भ्रमरगीत से तात्पर्य उस उपालम्भ काव्य से है, जिसमें नायक की निष्ठुरता एवं लम्पटता के साथ-साथ नायिका की मूक व्यथा तथा विरह वेदना का मार्मिक चित्रण है। इस काव्य का उद्गम स्रोत भागवत पुराण के मात्र दस पद रहे हैं, पर सूरदास की अद्भुत प्रतिभा ने उसे विस्तार देकर एक परम्परा का सूत्रपात किया और उन्होंने हिंदी काव्य में ‘भ्रमरगीत परम्परा’ के प्रणेता बनकर एक नया मार्ग प्रशस्त किया।
ब्रजभाषा काव्य में ‘भ्रमरगीत परम्परा’ के कई ग्रंथ लिखे गए हैं। कुछ विद्वान भ्रमरगीत परम्परा का प्रारम्भ विद्यापति के पदों से मानते हैं, पर विधिवत् रूप से इसका प्रारंभ सूरदास से ही हुआ है। ‘‘इस परम्परा को आगे बढ़ाने वालों में नन्ददास, परमानंददास, हितवृन्दावन दास, हरिराय, रसखान, मुकुन्द दास और घासीराम कृष्ण भक्त कवियों के नाम लिए जा सकते हैं। भक्तिकाल के पश्चात् रीतिकालीन कवियों में देव, पद्माकर, ग्वालकवि आदि ने कतिपय फुटकर छंदों में इसकी चर्चा की है।’’2
श्रीमद्भागवत् पुराण के ‘भ्रमरगीत प्रसंग’ में श्रीकृष्ण गोपियों को छोड़कर जब मथुरा चले जाते हैं तो गोपियां विरह में विकल हो जाती हैं। कृष्ण मथुरा में लोकहितकारी कार्यों में व्यस्त होने के कारण अपने प्रिय मित्र उद्धव को संदेशवाहक के रूप में गोकुल भेजते हैं ताकि उनका विरह कुछ कम हो सके। जब गोपियों के साथ उद्धव का वार्तालाप हो रहा था, तभी एक भ्रमर उड़ता हुआ आ गया। गोपियां इसी ‘भ्रमर’ को प्रतीक बनाकर अन्योक्ति के माध्यम से कृष्ण और उद्धव पर व्यंग्य करते हुए उपालम्भ देती हैं, उसी को ‘भ्रमरगीत’ कहा गया। इसमें निर्गुण का खंडन और सगुण का मंडन तथा ज्ञान एवं योग की तुलना में प्रेम और भक्ति को श्रेष्ठ ठहराया गया है।
भक्ति की श्रेष्ठता के प्रतिपादन में श्रीभागवत् के भ्रमरगीत के अपेक्षा सूर के भ्रमरगीत का अधिक महत्त्व है, क्योंकि सूर की गोपियां उद्धव के ज्ञानोपदेश को सुनकर विरुद्ध प्रतिक्रिया करती है, जबकि श्रीमद्भागवत् की गोपियां विरुद्ध प्रतिक्रिया नहीं करती हैं।
‘‘निर्गुण कौन देस को बासी?
मधुरक! हँसि समझाय, सौंह के बुझति साँच न हाँसी।’’3
अर्थात् गोपियां कहती हैं, “कसम है, हम ठीक-ठीक पूछती हैं, हँसी नहीं की तुम्हारा निर्गुण कहाँ का रहने वाला है?”
भक्तिकाल हिंदी साहित्य का ‘स्वर्णयुग’ माना जाता है और सूरदास उसके एक शिरोमणि रत्न। कृष्ण भक्ति की पावन सरिता प्रवाहित करने के कारण सूर का महत्त्व अद्वितीय है। सूर की उद्भावना में जहाँ एक ओर कल्पना का चमत्कार है, तो दूसरी ओर उनकी योजना में काव्य कौशल है। सूरसागर के अन्तर्गत ’भ्रमरगीत’ सूर की सर्वोत्कृष्ट रचना है। सूर ने जितनी निपुणता एवं रसिकता के साथ संयोग शृंगार का वर्णन किया है, उतनी ही दक्षता एवं मग्नता के साथ विप्रलम्भ का भी। सूर के हृदय की जो तड़पन एवं धड़कन, विप्रलम्भ के वर्णन में हुई है, उसमें समस्त विश्व का हृदय गोपियों के साथ रो रहा है। सूर के समान विरह-वेदना का इतना व्यापक एवं गम्भीर अनुभूति करने वाला कोई दूसरा कवि दिखाई नहीं पड़ता। सूर विप्रलम्भ शृंगार के अद्वितीय कवि हैं। ‘‘भ्रमरगीत सूर के अन्तर्मुखी कवि की स्वच्छंद उड़ान ही नहीं वरन् उसमें एक नियोजित कथा भी है। इसमें कवि पात्रों की मर्यादा और स्थितियों का पूरा ध्यान रखता है।’’3
कृष्ण भक्त कवियों ने रागानुगा या मधुरा भक्ति को ही अपने प्रेम की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया और प्रेम की तीव्रता प्रकट करने के लिए परकीया प्रेम का समावेश किया। सभी आचार्यों एवं भक्त कवियों को विश्वास है कि प्रेम की अभिव्यक्ति जितनी मर्मस्पर्शिनी जारभाव या परकीया भाव में हो सकती है, उतनी स्वकीया में नहीं। इसलिए सभी कृष्ण भक्त कवियों ने भ्रमरगीत परम्परा में राधा के साथ गोपियों को भी अपनी भावनाओं का आधार बनाया है। इसीलिए कृष्ण की निष्ठुरता एवं भ्रमर समान रसिकता से गोपियां क्षुब्ध हो उठती हैं। वे कृष्ण को बार-बार इसके लिए उलाहना देती हैं कि कृष्ण हमारे प्रेम का उचित आदर नहीं देते हैं। गोपियां कृष्ण को अपना अराध्य देव मानती हैं-
‘‘हमरी सुरति विसारी वनवारी हम सरबस है दारी।
पै न भयेे अपने स्नेह बस, सपनेहु गिरधारी।
बै मोहन मधुकर समान सखि, अनगत बेली चारी।
व्याकुल विरह व्यापि दिन हम नीर जु नैननि ढ़ारी।।’’5
भ्रमरगीत परम्परा में सूरदास के उपरान्त नंददास ही सर्वाधिक शक्तिशाली कवि माने जाते हैं। ‘भवंरगीत’ भ्रमरगीत परम्परा का उत्कृष्ट ग्रंथ है जिसमें नंददास उद्धव-गोपी संवाद के माध्यम से गोपियों की विरह-दशा का निरूपण किया है। इसमें दार्शनिकता का पुट है। यह ग्रंथ परिपक्व ज्ञान एवं विवेक बुद्धि के साथ-साथ भक्ति-भावना का भी परिचायक है। नंददास की गोपियां तर्कशील अधिक है। उद्धव जैसे ज्ञानी जब गोपियों को ज्ञान की गरिमा को समझाने के लिए ब्रज पहुँचते हैं तो, वह भी गोपियों के पे्रम से संबंधित तर्कों से अभिभूत होकर प्रेम के रस रूप को समझने लगते हैं-
‘‘उधौ को उपदेश सुनौ ब्रजनागरी।
रूप सील लावण्य सबै गुन आगरी।
प्रेम धुजा रस रूपिनी उपजावनी सुख पुँज।
सुन्दर स्याम विलासिनी, नव वृंदावन कुँज।
सुनौ ब्रजनागरी।’’6
वस्तुतः गोपियां प्रेम की साक्षात प्रतिमूर्ति हैं। उद्धव के मुख से अपने कृष्ण का नाम सुनकर गोपियां विह्वल हो उठती हैं। प्रेम की यह अवस्था अविस्मरणीय है-
‘‘सुनत स्याम कौ नाम बाम गृह की सुधि भूली।
भरि हृदय रस हृदय प्रेम बेली दू्रम फूली।
पुलक रोम सब अंग भए भरि आए जल नैन।
कंठ घुटे गद्गद् गिरा बोल्यौ जात न बैन।
बिवस्था प्रेम की।7
उद्धव यह देखकर आश्चर्यचकित हो जाते हैं कि कोई अपने प्रेम के सम्मुख लोक-लाज, मर्यादा, कुल-कानि आदि सभी को कैसे त्याग सकता है? धन्य है ये गोपियां-
हौ कह निज मरजाद की ग्यान रू कर्म निरुपि।
ये सब प्रेमासक्त होइ रही लाज कुल लेपि।
धन्य ये गोपिका।8
गोपियों का प्रेम परकीया प्रेम है। परकीया प्रेम में उत्कटता, कसक, मिलनातुरता आदि होती है। ‘‘जैसे-सूफियों ने फलानुभूति को ईश्वर के ‘हुस्नेदीदार’ को ‘शराब’ कहा है, उसी प्रकार वल्लभ भक्तों ने फलानुभूति को ‘मुखामृत’ या अपरामृत कहा है।’’9
गोपियों के प्रेम को सभी भक्तों तथा कवियों ने प्रशंसा की है और उन्हें प्रेम का प्रतीक माना है। ‘भ्रमरगीत’ की कल्पना भी उसी प्रेम की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए किया गया है। भ्रमरगीत परम्परा में गोपियों के माध्यम से नारी-चेतना को भी उजागर करने का प्रयास किया गया है। सबसे बड़ी बात यह है कि गोपियां बिना किसी डर के अपनी भावनाओं, प्रेम तथा तर्क को उद्धव अर्थात् पूरे विश्वजगत के सामने रखती हैं तथा निर्गुण की नीरसता और सगुण की सरलता को भी उजागर करती हैं।
ऊनो कर्म कियो मातुल बधि मदिरा-मत प्रमाद।
सूर स्याम एते अवगुन में निर्गुन तें अति स्वाद।10
ज्ञान मार्ग का गोपियों ने तिरस्कार तो किया, पर उद्धव का अपमान तथा उनका जी दुःखी करने का कोई इरादा नहीं था। अतः वह उद्धव को समझाते हुए कहती हैं कि हम ज्ञान-मार्ग को बुरा नहीं कहती हैं। वह अत्यन्त श्रेष्ठ मार्ग है, पर अपनी रुचि को हम क्या करें? वह हमारी अनुकूल नहीं पड़ती।
ऊधो! तुम अति चतुर सुजान।
द्वै लोचन जो विरद किये स्रुति गावत एक समान।
भेद चकोर कियो तिनहू में बिधु प्रीतम रिपु भान।।
इससे ज्ञात होता है कि कृष्ण भक्ति काव्य के ‘भ्रमरगीत परम्परा’ मंे गोपियों ने अपनी स्वतंत्र अभिव्यक्ति के कारण नारी-चेतना का उत्कृष्टता प्रदान की है।
अतः कहा जा सकता है कि सूर की गोपियों में जहां बुद्धि की प्रखरता है, वहां भावुकता भी है, साथ ही मानवीयता एवं अलौकिकता भी है। उनमें समर्पन की भावना सबसे उच्च आदर्श की है। उद्धव जैसे ज्ञानमंडित को वाक्य रूपी बाणों से दंडित करना सूरदास की गोपियों का कौशल है।
प्राचीन हिंदी काव्य में जो ‘भ्रमरगीत’ लिखे गए हैं, वे प्रायः मुक्तक या गीतात्मक ही कहे जाएंगे, पर आधुनिक कवियों ने इस प्रसंग को गीतों के माध्यम से व्यक्त किया है। प्रवृत्ति की दृष्टि से भक्तिकालीन भ्रमरगीत दर्शन और भक्ति का परिचायक है। रीतिकालीन भ्रमरगीत शृंगारपरक दृष्टिकोण से लिखे गए तो आधुनिक कालीन भ्रमरगीत परम्परा में युगीन चेतना व नवीन भावनाओं के साथ जुड़े हुए होने के कारण समसामयिक संदर्भों में लिखा गया है। आधुनिक काल को भ्रमरगीत परम्परा के लिए ‘पुनरुत्थान-युग’ के रूप में देखा जाना चाहिए। इस काल में फुटकर एवं स्वतंत्र-दोनों ही रूपों में ‘भ्रमरगीत’ लिखे गए।
आधुनिककाल में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने रीतिकालीन विशिष्टताओं को ग्रहण कर उसमें मौलिकता का समन्वय किया तथा इस परम्परा का विकास भी किया। सूर के ही भांति भारतेन्दु ने भी उद्धव को ब्रज गोपियों के पास भेजा। वहाँ उद्धव का सत्कार हुआ, पर योग उपदेश सुनकर गोपियां क्रोधित हो उठती हैं। भारतेन्दु की अभिव्यक्ति पारम्परिक ही रही है। इनकी गोपियां भाग्यवादी आस्था से ग्रस्त हैं।
भारतेन्दु के उपरान्त बद्रीनारायण चैधरी ‘प्रेमघन’ ने भी इस परम्परा का निर्वाह किया। इनके पदों में कुब्जा के प्रति व्यंग्योक्ति को भी स्थान मिला है, क्योंकि भ्रमरगीत परम्परा में कुब्जा का नाम भी बार-बार आया है। कुब्जा के माध्यम से ‘असूया’ भाव के कारण ‘वक्रतापूर्ण व्यंजनाएं हुई हैं।
सत्यनारायण, कविरत्न ने इसी परम्परा का निर्वाह करते हुए ‘भ्रमरदूत’ में नवीनता एवं मौलिकता का परिचय दिया है। यह वात्सल्य वियोग का एक सुंदर काव्य है, जिसमें यशोदा भ्रमर को दूत बनाकर कृष्ण के पास भेजती है। कविरत्न जी ने यशोदा को भारतमाता के रूप में चित्रित किया है। ‘भ्रमरदूत’ में युगीन समस्याओं के साथ-साथ राष्ट्रीय भावनाओं का भी समावेश किया गया है तथा यशोदा के माध्यम से स्त्री-शिक्षा का भी उल्लेख है-
नारी-सिक्षा निरादरत जो लोग अनारी।
ते स्वदेस-अवनति-प्रचंड-पातक अधिकारी।
निरखि हाल मेरो प्रथम, लेउ समुझि सब कोइ।
विद्या, बल लहि मति परम अबला सबला होइ।
लखौ अजमाइकै।।11
अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ कृत ‘प्रियप्रवास’ भी भ्रमरगीत परम्परा की प्रवृति का विकास है। इसमें गोपियों द्वारा उपालम्भ नहीं दिए गये, अपितु कृष्ण का ब्रजवासियों की स्मृति में उन्हें विरह-व्यथा से व्याकुल करती है। इसमें उद्धव के समक्ष गोपी के स्थान पर राधा अपने प्रेम को अभिव्यक्त करती है। इसमें राधा लोकहितकारिणी रूप में चित्रित हुई है। राधा ने उद्धव के समक्ष अपने प्रेम, लोक कल्याण, परोपकारिता, विश्वबंधुत्व, परदुख आदि का निरूपण पूरी सजीवता के साथ व्यक्त किया है-
मैं ऐसी हूँ न निज दुख से कष्टिता शोक मग्ना।
हा! जैसी हूँ व्यथित ब्रज के वासियों के दुःखों से।12
मैथिलीशरण गुप्त कृत ‘द्वापर’ में भी भ्रमरगीत परम्परा को स्थान मिला है। ‘द्वापर’ में गुप्तजी का नवीन दृष्टिकोण परिलक्षित हुआ है, जिसमें सहजता के साथ सरसता भी आ गया है। गुप्त जी ने उद्धव को एक सहृदय के रूप में चित्रित किया है, वह न तो क्रूर है और न ही कर्कश। उन्होंने ‘भ्रमर’ के स्थान पर ‘विहंग’ को प्रमुखता दी है। गोपियों के कथन बुद्धिप्रेरित अधिक प्रतीत होते हैं-
ज्ञान योग से हमें हमारा, यही वियोग भला है।
जिसमें आकृति, प्रकृति, रूप, गुण, नाट्य, कवित्व, कला है।13
जगन्नाथ दास रत्नाकर कृत ‘उद्धवशतक’ भ्रमरगीत परम्परा का उल्लेखनीय काव्य है। इस काव्य में भक्तिकालीन आख्यान एवं रीतिकालीन कलेवर का समन्वय किया गया है। इसकी भंगिमा में युगानुरूप नवीनता का समावेश हुआ है। उनकी भाषा में चित्रोपमता, अनुभाव, निबंधन तथा उक्ति-चातुर्य का कौशल अद्वितीय है। ‘उद्धवशतक’ में आध्यात्मिकता, लौकिकता, तर्कशीलता, भावुकता, विनम्रता आदि सहज रूप में देखा जा सकता है। गोपियों के प्रेम में व्याकुल होकर कृष्ण कहते हैं-
बिरह बिथा की कथा अकथ अथाह मह
कहत बनै न जो प्रबीन सुकबीन सौं।
कहै रत्नाकर बुझावन लगे ज्यौं कान्ह
अधो कौं कहन हेत ब्रज-जुवतीनि सौं।।14
आधुनिक युग में इसी परम्परा के डा. रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल’ कृत ‘उद्धवशतक’ (1970), डा. लक्ष्मीशंकर मिश्र कृत ‘श्यामा संदेश’ तथा कवि कमलाकर ‘कमल’ कृत ‘भावात्मक उद्धवशतक’ (1990), महत्वपूर्ण भ्रमरगीत काव्य है। ‘भावात्मक उद्धवशतक’ की राधा भी लोकमंगलकारी है, पर गोपियां विरह की आग में जलती हुई उद्धव को खूब खरी खोटी सुनाती हैं। इस काव्य में ब्रजवासियों तथा गोपियों का उद्धव के साथ संवाद कवि की मौलिक उद्भावना है। वे राष्ट्र के लिए प्राणोत्सर्ग देने के लिए भी तैयार है। कमलाकर ने उद्धव के साथ-साथ, कुब्जा, यशोदा, राधा, गोपियां, नंद बाबा, ब्रजबनिताएं तथा ब्रजवासियों के संवाद प्रस्तुत कर नवीन संदर्भ प्रस्तुत किए हैं। कवि ने ब्रजबनिताओं के मुंह से कृष्ण को उनका भाई कहलवाकर पारम्परिक परम्पराओं को तोड़ नवीन संदर्भ का समावेश किया है-
भीतर की आतमा, सौं भावना विचारें भलीं,
मंगल की कामना, सदैव करैं भैया की।
गौरव गुणावलि के, गहने हिये पै धरें,
ललिता विसाखादिक, बहिनें कन्हैया की।15
इस प्रकार आधुनिक भ्रमरगीत परम्परा में कमलाकर ‘कमल’ का ’भावात्मक उद्धवशतक’ में आधुनिकता बोध तथा नवीन व मौलिक संदर्भों के साथ एक नया आयाम मिला है।
निष्कर्षतः कृष्ण भक्ति काव्य में ‘भ्रमरगीत परम्परा’ एक महत्वपूर्ण कृति है, जो ‘उपालम्भ काव्य’ का पर्यायवाची बन गया है, जिसमें गोपियों ने भ्रमर के ब्याज से उद्धव पर और उद्धव के ब्याज से कृष्ण पर व्यंग्य किया है। ‘भ्रमरगीत परम्परा के विविध आयाम’ के विवेचन-विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि गोपियों के माध्यम से भक्ति-प्रेम तथा निर्गुण-सगुण का खंडन-मंडन किया गया है तथा इनमें नारी-चेतना का विशिष्ट स्वर भी सुनाई पड़ता है। भक्तिकाल से आधुनिक काल तक आते-आते भ्रमरगीत परम्परा में काफी विस्तार आ चुका है, उसमें आधुनिकता, राष्ट्रीय चेतना, नारी चेतना तथा नवीन उद्भावना का समावेश हो गया है, जिससे आधुनिकता की अवधारणा भी स्पष्ट होती है।
संदर्भ:
1. डॉ. अशोक तिवारी; ‘प्रतियोगिता साहित्य’, कोड-।147 साहित्य भवन, आगरा, पृ. 380
2. डॉ. हरिचरण शर्मा; ‘भ्रमरगीत एक मूल्यांकन’, पृ. 18
3. आचार्य रामचंद्र शुक्ल (संपा.); ‘भ्रमरगीत सार’, चतुर्थ संस्करण 1978-79, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 54
4. डॉ. देवेन्द्र कुमार; ‘भ्रमरगीत और सूर’, ग्रन्थम रामबाग, कानपुर, संस्करण-1967, पृ. 23
5. डॉ. राजकुमारी मित्तल; ‘कृष्ण-भक्ति साहित्य में रीतिकाव्य परम्परा’, संस्करण-1967, विनोद पुस्तक मन्दिर, आगरा, पृ. 98
6. वही, पृ. 95
7. वही, पृ. 96
8. वही, पृ. 96
9. डॉ. दीनदयाल गुप्त; ‘अष्टछाप और वल्लभ सम्प्रदाय’, पृ. 545
10. आचार्य रामचंद्र शुक्ल (संपा.) ‘भ्रमरगीत-सार’, चतुर्थ संस्करण-1978-79, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 55
11. डॉ. हरिचरण शर्मा; ‘भ्रमरगीत एक मूल्यांकन’, पृ. 19
12. सुश्री सीता शर्मा; ‘आधुनिक युगीन भ्रमरगीत परम्परा और कवि कमलाकर ‘कमल’, पंचशील शोध समीक्षा, वर्ष-4, अंक-16, अप्रैल-जून 2012, जयपुर, पृ. 114
13. वही, पृ. 114
14. वही, पृ. 114
15. विष्णुचंद पाठक (संपा.); ‘भावात्मक उद्धवशतक’, पृ. 4
– शबनम तब्बसुम