यात्रा-वृत्तान्त
भूतिया धरोहर नहीं हूँ मैं: ककनमठ
वर्ष 2015, मास- अक्टूबर, अकस्मात् ही कुछ पारिवारिक कारणों की वजह से मध्यप्रदेश में ज़िला मुरैना जाना हुआ। गुड़गाँव से अपनी ही कार से 2 अक्टूबर की अलसुबह 4 बजे ब्रह्म मुहूर्त में निकलना हुआ। गुड़गाँव से सोहना, पलवल, मथुरा, आगरा, धौलपुर से होते हुए चंबल के बीहड़ और अंतत: मुरैना। लगभग साढ़े चार-पाँच घण्टों का रास्ता तो है ही। बहुधा मेरी आदत रही है कि पर्याप्त जल व भोजन सफ़र में होना चाहिये तो पानी की पर्याप्त बोतलों के साथ सूखे आलू और मैथी की पूड़ियाँ बनाकर रख लीं आम के अचार के साथ। रास्तें में रोली-पोली बनाकर खाई भी। मथुरा रोड पर मैकडोनाल्ड से बेटी को चॉकलेट आइसक्रीम दिलाई और टाँगे सीधी की। ज़रा आगे एक ढाबा खुला था, वहाँ से कड़क फीकी चाय डिस्पोजेवल में ले, निकल पड़े सफ़र पर पुन:।
काम निपटा कर वापिस हरियाणा आने से पहले सोचा कि यहाँ तक आना हुआ ही है तो क्यूँ न लगे हाथ ककनमठ घूमकर आया जाये! हमने तो कई बार देखा है पर बेटी के लिये नया अनुभव संजोया जाये। बस फिर 5 अक्टूबर तय हुआ। सुबह की नीमी ठंड शुरू हो जाती है इन दिनों पर उस समय अच्छी गर्मी दिन में सूरज देवता निगाह तरेरे हुए हों जैसे। पर जाना तो तय था। बस फिर मस्त ब्रंचकर के निकले घर से क्यूँकि मुरैना के आगे कोई अच्छा ढाबा या भोजन की व्यवस्था नहीं है, सो खाकर निकलें या लेकर घर से तभी सही रहेगा। मुरैना सदर चौराहे से पुल से निकल लिये, जो सीधा मुरैना के बाहरी क्षेत्र बडोखर माता पर ख़त्म होता है। निकलते बढ़ते थोड़ी देर में सिंहोनिया तक आये और ककनमठ मंदिर की तरफ रास्ते पर गाड़ी काट ली। मुख्यमार्ग से सटे रास्ते में भीतर छोटे-छोटे घर, खेत सब देखते जा रहे थे तभी कुछ बड़े खेतों पर निगाह गई कि टीन के-से पीपे और उन पर जाल लगे एवम् वहाँ खड़े लोगों ने मास्क-रबड़ के दस्ताने पहन रखे हैं, समझ न आया पहले पहल तब माँ ने बताया कि ये शहद की खेती है और इन पीपों में मधुमक्खियों के छत्ते पनपाये जाते हैं, छोटी-छोटी कालोनियाँ हों जैसे। सरसों के खेत लहलहा रहे थे तो सरसों का मधु ले कर जाना बोलीं।
कभी सही सड़क, कभी दचके रस्ते पर चलते पँहुचे मंज़िल पर ‘ककनमठ’।
जी हाँ, हिन्दुस्तान के दिल मध्य प्रदेश के ग्वालियर शहर से करीब सत्तर किलोमीटर दूर मुरैना ज़िले के सिहोनिया क़स्बे में भुरभुरी रेतीली मिट्टी वाले खेतों के बीच स्थित है ‘ककनमठ मंदिर’। यह मंदिर देशी-विदेशी पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है। मुरैना-भिंड हाईवे के नज़दीक ही है सिहोनिया। कभी सिंहपाणि नगर कहा जाने वाला सिहोनिया, मुख्य रूप से विश्व पर्यटन के मानचित्र में ककनमठ मंदिर के कारण जाना जाता है।
अब सिहोनिया के बारे में इतिहास की गार से दो मुहाने निकलते हैं मान्यताओं के। कैसे? चलिये आगे बताती हूँ-
प्रथम मान्यता यह है कि सिहोनिया या सिहुनिया कुशवाहों की राजधानी थी। कुशवाह (राजावत) साम्राज्य की स्थापना 11 वीं शताब्दी में 1015 से 1035 के मध्य हुई थी। कुशवाह राजा ने यहाँ एक शिव मंदिर बनवाया था, जिसे काकनमठ नाम से जाना जाता है। माना जाता है कि मंदिर का निर्माण कछवाहा वंश (कच्छप घात) के राजा कीर्तिराज ने रानी काकनवती की इच्छा पूरी करने के लिए करवाया था। उनकी रानी ककनावती भगवान शिव की अनन्य भक्त थी, उसी के कहने पर इस शिव मंदिर का निर्माण कराया था। इसका नाम ककनमठ रखा गया।
द्वितीय मान्यता यह है कि इस भव्य ‘शिव मंदिर’ को तोमर राजवंश के राजा सोनपाल तोमर ने ग्यारहवीं सदी में बनवाया था। कहा जाता है कि इस मंदिर को भूतों ने एक रात में बनाया था लेकिन जब निर्मित होते-होते सुबह का उजाला फैल गया तो शिव के भूत-गणों ने निर्माण कार्य वहीं रोक दिया इसलिए यह मंदिर अधूरा रह गया। आज भी इस मंदिर को देखने पर यही लगता है कि जल्दबाजी में बनाये बिना गारे-चूने के इस कलात्मक कृति में अधूरापन है।
आश्चर्यजनक अद्भुत कला शैली-
ककनमठ मंदिर उत्तर भारतीय शैली में बना है। उत्तर भारतीय शैली को नागर शैली के नाम से भी जाना जाता है। आठवीं से ग्यारहवीं शताब्दी के दौरान मंदिरों का निर्माण नागर शैली में ही किया जाता रहा है। ककनमठ मंदिर इस शैली का उत्कृष्ट नमूना है। इसे खजुराहो मंदिर की शैली में बना हुआ भी बताया जाता है। यह मंदिर 115 फीट ऊँचा है।
नागर शैली में बना कलात्मक सुंदरता व अद्भुत कार्य-यंत्रिका का परिचायक ‘ककनमठ’ मंदिर का वास्तु अंचंभित कर देने वाला है। पूरी एक 300 फीट ऊँची चट्टान पर उत्कीर्ण कर क्विंटलों वजनी पत्थरों को एक के ऊपर एक रखते हुए बिना किसी चूने या गारे के ऐसे रखा गया है कि आज सालों बाद भी जस का तस भवन खड़ा सुशोभित हो रहा है। पुरातत्वविदों के मुताबिक इन पत्थरों को जोड़ने के लिए पिघला हुआ लोहा, शीशा व चूना मिलाकर गारा बनाया गया था।जबकि बहुत क़रीब से देखने के बाद भी बस यही दिखाई दिया कि भारी भरकम मजबूत शिलायें एक-दूसरे पर टिका कर रखी हुई हैं, जिनके बीच किसी प्रकार का लेपन नहीं है।
सचमुच आश्चर्यजनक बात यह है कि ककनमठ मंदिर के निर्माण में कहीं भी चूने-गारे का उपयोग नहीं किया गया। पत्थरों को संतुलित रखकर मंदिर बनाया गया। इतने लंबे समय से यह मंदिर कई प्राकृतिक आपदाओं, झंझावातों को झेलता आ रहा है। मौसम की मार और देखभाल की कमी के कारण यहाँ बने छोटे-छोटे मंदिर नष्ट हो गए। और बहुत से छोटे कलात्मक खण्ड पर्यटकों द्वारा चुरा भी लिये गये हैं। सोवेनियर के लिये यही सही….हाहा, हिन्दुस्तान है दोस्तों!
अचंभित कर जिज्ञासु बना देने वाली बात यह थी कि क्विंटलों वजनी ऊबड़-खाबड़ पत्थरों को उठाकर 300 फीट की ऊँचाई तक कैसे पहुँचाया होगा और आज सालों बाद भी मौसमी चक्रव्यूहों से गुज़रकर ये शिलायें कैसे बिना किसी जोड़ के अडिग खड़ी हैं और भवन के अंदर नीमी-नीमी ठंडक में शिवलिंग के रूप में भोले बाबा सुकून से विराजमान हैं।
अति विशिष्ट बात दोस्तो! मंदिर की शिलायें जिन शिला-स्तंभों पर खड़ी हैं वो अपनी गिनती हर बार बदल लेते हैं। यक़ीन नहीं होता पर सच है ये सौ प्रतिशत।
स्तंभों की गिनती की शुरूआत के लिये एक स्तंभ पर निशान लगाया जाये या किसी मित्र को खड़ाकर दिया जाये। हर बार गिनती में एक स्तंभ घट या बढ़ जाता है ये भी विस्मय में डालने वाली बात है। हमने कर के देखा है। आप जाएँ तो आप भी गणना करियेगा ज़रूर।
बहरहाल गर्मी थी बाहर पर जगह की उत्सुकता ने गर्मी को हरा दिया था। सभी ने जमकर छाया चित्र लिये भाँति-भाँति तरीक़े से। सीढ़ियों से नीचे आकर टूटी पड़ी खंडित शिलाओं पर पीपल के नीचे थोड़ा सुस्ता कर मंदिर के ओर पास का प्रांगण देख डाला, तस्वीरें लीं। कई जगह पुरातत्व विभाग ने लोहे के सरिये व एंगल टिका रखे थे, जिस से कोई शिला गिरे न अकस्मात् ही। पर देखरेख से आँखें मूँदी हुई हैं विभाग ने, बस एक औपचारिकता भर है प्रशासन की नज़र व दस्तावेज़ों पर।
इतिहास की गार से निकला ये नमूना ईश कृपा से ज्यों का त्यों बना हुआ है और एकांत में होने से यहाँ ग़ज़ब का सुकून बरपा हुआ है। आस-पास पीपल, नीम, बरगद, शीशम, तेंदू आदि पेड़ आच्छादित हैं तो अलग ही बयार व ताज़गी महसूस होती है यहाँ। मंदिर की घंटी कभी किसी पल भी बजकर अपने गौरव की गाथा कह देती है। प्रचंड ग्रीष्म में भी पत्थरों के भवन में स्थित शिव-मंदिर में बहुत ठंडक है। शिलाओं के बीच ख़ाली जगहों में ना-ना पक्षियों के घोंसले बने हैं। कुछ माइग्रेट्री चिड़ियाँ यहीं की होकर रह गयीं और चहुँओर खेतों की फ़सलों के ग्रामीण बिंब कुछ सोचने, लिखने को मजबूर कर ही देते हैं।
कहते हैं कि ईसा से 200 साल पहले का है आज का सिहोनिया गाँव। ईसा के जन्म से दो सौ साल पहले बल्कि उससे भी पुरानी समृद्ध नगर सभ्यता थी यहाँ।सिहोनिया कभी भारत के प्रमुख व्यापारिक केंद्रों में गिना जाता था।
आसन, सोन व चंबल नदियों के मार्ग से व्यापारिक काफिले यहाँ से गुजरते थे। ककनमठ मंदिर के परिसर में चारों और कई अवशेष रखे दिखाई देते हैं अपनी पुरातन कथा कहते हुए। मंदिर सिहोनिया कस्बे से कुछ कि०मी० दूर एकदम एकांत में खेतों के बीचों-बीच स्थित है इसलिये ख़ुद के वाहन से ही जाना ठीक रहेगा। मंदिर परिसर में ही घने पेड़ों की छाया में बैठकर आप अपना खाना-पीना भी बनाकर पिकनिक मना सकते हैं लेकिन सामान आपको स्वयं लेकर जाना पड़ेगा क्यूँकि आसपास कोई घर या दुकान नहीं है हालांकि मंदिर परिसर में खाना बनाने के साधन हैं। पुरातत्व विभाग के कर्मचारी के अलावा एक दो ग्रामीण भी रहते हैं वहाँ कमरे में, पानी की व्यवस्था भी है।
ककनमठ मंदिर की देखरेख अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) कर रही है। अफसरों को भय रहता है कि यदि मंदिर को छेड़ा गया तो यह गिर सकता है, क्योंकि इसके पत्थर एक के ऊपर एक रखे हैं। इस कारण उन्होंने इसके संरक्षण कार्य से दूरी बना ली है जो कि अत्यंत निराशाजनक बात है। ऐतिहासिक धरोहर के पतन की ओर प्रस्थान करती हुई मानसिकता।
बहरहाल शहर की दौड़-धूप,आपाधापी से दूर कुछ पल एकांत में प्रकृति की गोद में बिताने के लिये ककनमठ मंदिर मनोहारी जगह है। हाइवे से अंदर जाते हुए कई जगह आपको शहद की खेती अर्थात् मधुमक्खी पालने वाले किसानों की बात बताई थी, आते हुए ताज़ा, शुद्ध और सस्ता मधु ज़रूर लेते आईयेगा। बाज़ार के मधु में वो मिठास कहाँ साहब? ये तो हमारी जाँची परखी बात है, तो करिये आप सब भी यहाँ एक भ्रमण।
– प्रीति राघव प्रीत