आलेख
भिखारी ठाकुर की रंग शैली- बिदेसिया के संदर्भ में: राकेश डबरिया
भारत में लोकसंस्कृति की एक लम्बी परम्परा रही है और इसमें लोकनाट्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। लोकजीवन और लोकमंच की प्राणवान धारा के परिणामस्वरूप विकास की वल्लरी नया जीवन पाती रही है। देशों और समूहों की रूचियों की भिन्नता के बावजूद भारतीय नाट्य साहित्य अपने लोक से जुड़ा है। जो नाट्यशैलियां लोकजीवन की स्वाभाविकता से सीधे जुड़कर उसकी सामूहिक आवश्यकताओं एवं प्रेरणाओं से निर्मित होने के कारण लोकवार्ता के कथानकों, धार्मिक-सामाजिक लोकविश्वासों तथा अन्य लोकतत्वों को समेट कर चलती है, उन्हें हम लोकनाट्य कहते हैं। लोकजीवन के सहज संस्कार लोकनाटकों के स्रोत होते हैं।
हमारे लोकनाट्य रूपों में क्षेत्रीय विविधता मिलती है और ये क्षेत्रीय भाषाओं में रचे जाते हैं। इनका जन्म और विकास परंपरागत संस्कृति के मध्य होता है और उसी परिवेश में संस्कृति के नये-नये तत्वों को ग्रहण करते हुए पोषित होता है। हमारे लोकनाट्य रूप प्रमुखतः दो धाराओं में विकसित हुए हैं- एक, धार्मिक और पौराणिक लोकनाट्य (जैसेः- रामलीला, रासलीला, नल-दमयंती आदि)। दूसरा, सामाजिक एवं राजनैतिक लोकनाट्य (जैसे- बिदेसिया, जाट-जाटिन, नौटंकी आदि)। लोकजीवन में धार्मिक एवं पौराणिक नाटकों की तरह ही सामाजिक एवं राजनीतिक नाटकों की परम्परा रही है और इसमें भोजपुरी क्षेत्र का लोकनाट्य ‘बिदेसिया’ अत्यधिक प्रसिद्ध रहा है। ‘‘ ‘बिदेसिया’ बिहार का संगीत, नृत्य और नाट्य मिश्रित सर्वाधिक लोकप्रिय लोकनाट्य रूप रहा है। मूलतः इसके प्रवर्तक गुद्दर राय माने जाते हैं लेकिन इसे अखिल भारतीय स्तर पर प्रतिष्ठित करने का श्रेय भिखारी ठाकुर को जाता है।’’1
भिखारी ठाकुर भोजपुरी संस्कृति के अन्यतम गायक ही नहीं, भोजपुरी जनता की अस्मिता और उसके स्वाभिमान के प्रवक्ता भी थे। ‘‘सांस्कृतिक योद्धा भिखारी ठाकुर अपने जीवन काल में ही ‘लीजेंड’ बन चुके थे। वे एक लोकप्रिय गीतकार एवं नाटककार के रूप में प्रतिष्ठित है। गँवई संस्कारवश भिखारी ठाकुर बहुदेववादी भक्ति भावना से ओतप्रोत थे और जातिगत पेशे के कारण शृंगार और करुण भाव भी उन्हें सहज ही हासिल था। गाना-बजाना और नाचना तो गायों की चरवाही में उन्होंने खेल-खेल में ही सीख लिया था। अपने इस पूर्व ज्ञान के साथ जब वे बंगाल और ओडि़शा की यात्रा करते हैं तो वहाँ की रामलीला, रासलीला के साथ जातीय ‘जात्रा’ के शनैः शनैः बदलते स्वरूप को भी हृदयंगम करते हैं।’’2 पिछले सौ वर्षों के इतिहास में किसी भी भारतीय भाषा और संस्कृति का इतना बड़ा उन्नायक न हुआ जितनी महत्ता भोजपुरी संस्कृति में भिखारी ठाकुर की है। भिखारी ठाकुर ने अनेक स्तरों पर भोजपुरी जनता के लोकाचार, संस्कार, स्वाभिमान, संघर्ष और उसकी मनस्विता को प्रभावित किया तथा हिन्दी की सबसे बड़ी भाषिक इकाई भोजपुरी को उसके स्वत्व से जोड़ा। ‘‘भिखारी ठाकुर के भोजपुरी सांस्कृतिक जीवन में प्रवेश करने के पूर्व इस क्षेत्र का रंगमंचीय स्वरूप क्या था, वह अपने-आप में शोध का विषय है। नेटुआ का नाच और जोगीड़ा के मूल में निश्चय ही कोई मूल परंपरा होगी। उसी को बीज रूप में ग्रहण कर बंगाल की यात्रा से प्रेरणा प्राप्त कर भिखारी ठाकुर ने रंगमंच को पुनरुज्जीवित किया है।’’3
भिखारी ठाकुर ने कवि, नाटककार, गायक, अभिनेता, समाजसुधारक और एक भक्त के अनेकों रूपों में अपनी भूमिका का निर्वाह किया है। भिखारी के ग्रंथों की संख्या 30 से अधिक है जिसमें नाटक, गीत, भक्तिपद तथा खण्डकाव्य शामिल है। ‘बिदेसिया’ नाटक अपनी प्रसिद्धि, व्याप्ति और समकालीन प्रासंगिकता के कारण एक महत्त्वपूर्ण लोकनाट्य बन गया है।
‘बिदेसिया’ नाटक पूरबिया समाज के जीवन के यथार्थ को अभिव्यक्त करता है। एक दृष्टिकोण से वह भोजपुरी समाज को समझने का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सामाजिक दस्तावेज है। इसमें भाषा सशक्त अभिव्यंजना शैली देखने लायक है। संस्कृत की नाट्यपरम्परा से बहुत कुछ ग्रहण करते हुए भी भिखारी नये लगते हैं तो इसलिए कि उन्होंने उसे लोकरस से सरोबार कर दिया। विवाह भारतीय समाज की सबसे महत्त्वपूर्ण संस्था है और ‘बिदेसिया’ उसकी महत्ता को रूपायित करता है। नायक के कलकत्ता प्रवास के बाद की नायिका की स्थिति हमारे समक्ष जिन सामाजिक प्रश्नों को रखती है, वह आज भी पुराने नहीं हुए हैं।
‘‘नाटक में एक व्यक्ति विदेश जाकर किसी स्त्री के चंगुल पड़कर अपनी पत्नी को छोड़ देता है। उसके परदेश चले जाने पर उसकी नवपरिणीत उसके विरह में व्याकुल होकर अपनी मनःस्थिति का बडा ही मार्मिक वर्णन प्रस्तुत करती है यहाँ ‘विदेश’ का अर्थ कलकत्ता और ‘बिदेसिया’ का अर्थ पति है। यह नाटक इतना लोकप्रिय हुआ कि कालान्तर में भिखारी ठाकुर द्वारा प्रदर्शित अन्य नाटक भी ‘बिदेसिया’ नामक स्वतंत्र शैली में प्रचारित हुए।’’4
चूँकि ‘बिदेसिया’ में भोजपुरी समाज को अपनी सच्चाई दिखाई दी। इसलिए इसे प्रबुद्ध समाज का भी सहयोग मिला। इसकी शैली ने तो इसे लोकप्रिय बनाया ही है। विशेषतः इसकी प्रस्तुतिकरण की शैली की नवीनता ने इसे जन-जन के बीच पहुंचा दिया।
‘‘बिदेसिया नाट्य-शैली की प्रस्तुति के लिए भिखारी ठाकुर ने समाज के उपेक्षित एवं दलित-शोषित वर्ग से कलावंत व्यक्तियों का चयन किया। क्योंकि भोजपुरी प्रदेश में बिदेसिया जन समाज के बीच ‘बिदेसिया नाट्य’ (सम्मानसूचक कला) के रूप में नहीं, बल्कि ‘बिदेसिया का नाच’ (हीनतासूचक कला) के रूप में प्रचलित था और आज भी है।’’5
‘बिदेसिया’ की रंगशैली में मंच का विशिष्ट स्थान रहा है। ‘बिदेसिया’ की रंग शैली लोकप्रचलित संसाधनों के बेहतर प्रबन्धन को लेकर भी खासी चर्चित रही। मंच मुक्ताकाशी के रूप में प्रायः गांव के किसी चैराहे या मन्दिर के किसी प्रांगण में बाँस के खम्भों से दस-बारह पुफट उफँचा बनाया जाता है। यह मंच चैकियों को जोड़कर बनाया जाता है जो चारों ओर से खुला होता है। मंच साधारण सज्जा वाला होता है और इसकी व्यवस्था में बैकग्राउफंड व सिनयरी नहीं होते। ग्रीन रूम के रूप में कोई अलग तंबू (टैन्ट) मिल जाता है तो ठीक है, वरना तथाकथित मंच या रंगभूमि पर ही रूपसज्जा और परिधान परिवर्तन हो जाता है। पेट्रोमैक्स और डे-लाइट जलाकर स्थान-स्थान पर टांग दिये जाते हैं। यही खुला मंच भोजपुरी लोकनाट्य बिदेसिया की नींव रखता है।
बिदेसिया की रंगशैली में गीतात्मक शैली खासी लोकप्रिय रही है। संगीत बिदेसिया की प्राण शक्ति है। इसमें आए गीतों में जहाँ लोकछंद-व्यवस्था है, वहीं लोकसंगीत के सुर, ताल, लय और लोकवाद्यों के साथ सह संचरण भी है। बिदेसिया में वियोग और विप्रलंभ की पीड़ा और करुणा को गीतात्मक शैली के द्वारा अत्यंत मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त किया गया है।
एक उदाहरण द्रष्टव्य है जिसमें वासन्ती प्रकृति की पृष्ठभूमि में विरहणी की विरह-दशा का बड़ा ही मार्मिक वर्णन है।
‘अमवा मोजरी गइले लगले टिकोरवा से,
दिन पर दिन पियराला रे विदेसिया।।
कतहूँ ना देखो रामा सैयाँ के सुरतिया से
जियरा गइले मुरझाइ रे बिदेसिया।।’6
‘बिदेसिया’ के रंगशैली में गीतात्मक शैली की तरह नृत्य शैली की भी प्रधानता रही है। इसमें नृत्य शैली का प्रयोग दृश्य-परिवर्तन के अन्तराल के बीच किया जाता है। ढोल-नगाड़ों की धमक के साथ अभिनेता जब मंच पर उछल-कूद करते हैं तो एक अजीब-सी ध्वनि निकलती है, इसीलिए बिदेसिया को क्षेत्रीय बोली में ‘चैकीतोड़ नाच’ भी कहते हैं। यह नाच भिखारी ठाकुर से पूर्व भी प्रचलित था लेकिन भिखारी ने पहली बार पुरुषों द्वारा स्त्री पात्रों का अभिनय करवाया। नृत्य शैली के द्वारा ‘विदेसिया’ का कथाक्रम निरंतर आगे बढ़ता रहता है।
बिदेसिया की रंगशैली में गीतात्मक एवं नृत्यात्मक शैलियों का सम्मिश्रण भी दिखाई देता है। इस शैली में आंगिक क्रियाओं का बहुताय प्रयोग होता है। हस्त एवं मुख मुद्राओं के माध्यम से वियोगात्मक दृश्य को सजीवता प्रदान की जाती है जो इस शैली की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। बिदेसिया अपनी विभिन्न शैलियों को प्रयोग का रूप मानकर चलता है। एक उदाहरण दृष्टव्य है-
पिया गइलन कलकतवा ए हो सजनी!
गोरवा में जूता नइखे, सिरवा पर छतवा ए सजनी
कइसे चलीहें रहतवा, ए सजनी। 7
बिदेसिया की प्रस्तुति में कीर्तनियां शैली का भी प्रयोग किया जाता है। बिदेसिया का प्रारंभ मंगलाचरण से होता है और नाटक का सूत्रधार कीर्तन शैली में पहले तो गांवों में पूज्य सभी देवी-देवताओं की स्तुति करता है, फिर समाज सुधार की बात। भिखारी भोजपुरी समाज की कमजोरी से अच्छी तरह से वाकिफ थे। इसलिए उनकी धार्मिक आस्था को बिना कोई ठेस पहुँचाए उन तक अपनी बात पहुँचाने में सफल रहे। ‘बिदेसिया’ शैली में गाँवों की बहुदेववादी संस्कृति और भिखारी की भक्ति झलकती है, क्योंकि भिखारी जिस हिन्दू-बहुल समाज की बात करते थे, वहां भजन-कीर्तन के माध्यम से ही समाज-सुधार का अमृत पिलाया जा सकता था।
बिदेसिया की रंगशैली में मंच और गीतों की भांति पात्रों की वेशभूषा भी सहज सामान्य होती है। आंचलिकता के अनुरूप पात्रों के परिधान होते हैं जैसे नायक धोती-कमीज पहनता है और नायिका लहंगा, चुनरी। बिदेसिया जब शहर से गाँव लौटता है तो अपने पैरों में जूते पहने होता है जबकि देहाती पात्र नंगे पैर ही चलते हैं। स्त्री पात्रों का अभिनय पुरुषों द्वारा ही किया जाता है। एक ही पात्र कई तरह की भूमिकाओं का निर्वाह करता है- जैसे कहीं वह गायक बन जाता है तो कहीं सहायक तो कभी विशेष भूमिका वाला पात्र। सादगी के बावजूद पात्रों में लोकमंच की यह सूझबूझ कितनी अर्थपूर्ण है।
उपर्युक्त कथनों के आधार पर निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि ‘बिदेसिया’ बिहार का संगीत, नृत्य और नाट्य मिश्रित सर्वाधिक लोकप्रिय नाट्यरूप रहा है। विदेश गये प्रियतम की राह में पलक बिछाये प्रतीक्षातुर नारी हृदय जब आषाढ़- सावन के मौसम में भरपूर नदी-सा उफनता है, तब बिरहा कजरी के हृदयस्पर्शी बोलों का झरना पूफट पड़ता है, इन्हीं बिरहा कजरी, झूमर, आल्हा आदि भोजपुरी लोकधुनों के आधार पर भिखारी ठाकुर ने ‘बिदेसिया’ की रचना की।
बिदेसिया के प्रस्तुतीकरण में भिखारी ठाकुर ने नये-नये प्रयोग किये। मंचीय व्यवस्था तथा साज-सज्जा संबंधी नाट्यलेखकीय निर्देशों को मंचन-व्यवस्था की स्थानीय सुविधा पर छोड़कर भिखारी ठाकुर ने मुक्त मंचन को प्रोत्साहित किया। खुला मंच का प्रयोग भिखारी ठाकुर ने संभवतः विश्व में पहली बार किया। साथ-साथ प्रस्तुतीकरण के क्रम में जब-तब दर्शकों से अभिनेताओं के सामयिक, विनोदात्मक संवाद भी चलते रहते हैं जो बिदेसिया की प्रस्तुति में दर्शकों की सक्रीय भागीदारी का विरल (अनोखा) उदाहरण प्रस्तुत करता है। भिखारी ठाकुर ने नवयुवक कलाकारों को नारी-वेश में नाटक के नारी पात्रों की भूमिका निभाने का सफल प्रयोग किया। जिससे नाटकों की तत्कालीन मंचीय प्रदर्शन की बहुत बड़ी समस्या का समाधान संभव हुआ। इसके अतिरिक्त काल और स्थान के अन्तर को भी संकेत रूप में प्रदर्शित करने में उन्हें सफलता मिली है। ‘बिदेसिया’ में बिदेसी मंच पर ही एक-दो पेफरे लगाकर गाँव से कलकत्ता पहुँचा जाता है।
सन् सत्तावन के गदर के बाद आए परिवर्तनों के कारण पूरब के लोगों की एकमात्र शरण स्थली कलकत्ता बना। भूख, बदहाली और दरिद्रता के कारण संबंध टूटते गए, परिवार बिखरे और सांस्कृतिक पतन का अध्याय शुरू हुआ। अंग्रेजी वर्चस्व के बढ़ते प्रभाव से दरिद्रता तो बढ़ी ही, संस्कारों में भी क्षय शुरू हुआ। भिखारी ठाकुर ने इस त्रासदी को जिन तथ्यों से जोड़कर अभिव्यक्ति दी है, उसकी मिसाल पारंपरिक नाट्यों में तो क्या, मुख्यधारा में लिखित रचनाओं में भी नहीं मिलती। गेय संवादों के बीच मानवीय करुणा और अपनी संपूर्णता में अभिव्यक्ति देती ‘बिदेसिया’ कालजयी कृति है, इसलिए कि वह अपने समय की संजीदगी से जुड़ी है। हमेशा नई और नित नवीन होती जाती यह रचना भोजपुरी की अनमोल धरोहर है।
संदर्भ-
1. रंग विमर्श- ज्योतिष जोशी, नयी किताब प्रकाशन, प्र.सं. 2011 ई.
2. बिहार के लोक नाटकों की प्रमुख शैलियों का विवेचन- डाॅ. रेखा दास, सन्मार्ग प्रकाशन, प्र.सं. 1994 ई.
3. भारत के लोकनाट्य- शिवकुमार ‘मधुर’, वाणी प्रकाशन, प्र.सं. 1980 ई.
4. हिन्दी रंगमंच की लोकधारा- जावेद अख्तर खाँ, वाणी प्रकाशन, प्र.सं. 2013 ई.
5. भिखारी ठाकुर- तैयब हुसैन ‘पीडि़त’, साहित्य अकादमी, प्र.सं. 2008 ई.
6. लोक साहित्य की भूमिका एवं परंपरा- डाॅ. महेन्द्र भानावत, बाफना प्रकाशन, प्र.सं. 1971 ई.
7. भिखारी ठाकुर रचनावली- प्रो. रामबुझावन सिंह, बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद्, प्रथम सं. 2005 ई.
– राकेश डबरिया