आलेख/विमर्श
भिखारी ठाकुर का लोकनाट्य: एक अनुशीलन
लोकनाटक लोकचेतना के अंग हैं, लोक-जीवन की घटनाएं एवं व्यवहार लोक नाटक के आधार कहे जाते हैं। तात्कालिक जीवन के चित्र को लोकनाटक अपने में समेटे रहता है। लोकनाटक लोकजीवन की रंग-बिरंगी छवियों को प्रस्फुटित करता रहता है। जीवन के विविध चित्रों को अपने अंदर समेट कर रखता है। इसमें प्रकृति के विविध रूप दिखाई पड़ते हैं। लोक सीधा, सादा और सरल होता है। यह जन सामान्य का प्रतिनिधित्व करता है। इसमें सम्प्रेषणीयता अधिक होती है। लोक का अर्थ यह नहीं कि वह जनपद या ग्राम तक ही फैला है बल्कि नगरों एवं गाँवों की वह समूची जनता को लोक कहा जाता है, जिनमें व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियाँ नहीं हैं। हजारी प्रसाद द्विवदी के अनुसार, “ये लोग नगर में परिष्कृत रूचि, सम्पन्न तथा सुसंस्कृत समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा अधिक सरल और अकृत्रिम जीवन में अभ्यस्त होते हैं और परिष्कृत रूचि वाले लोगों की समूची विलासिता और सुकुमारिता को जीवित रखने के लिए जो भी वस्तुएं आवश्यक होती हैं, उनको उत्पन्न करते हैं।”1
लोक को विशिष्ट अर्थ में सामान्य जन समूह के लिए प्रयुक्त किया जाता है, किन्तु व्यापक अर्थ में लोक संपूर्ण संसार और उसमें अवस्थित मानव समुदाय के अर्थ में प्रयोग किया जाता है। मनुष्य के कल्पना की उड़ान सोच एवं वृद्धि वहाँ तक जा सकती है, जहाँ तक लोक का विस्तार है। इसका न कोई आदि है न अंत, यह अनंत है। लोक के संदर्भ में रामचंद्र तिवारी का कहना है कि “लोक पूरे देश की धरती से जुड़ा हुआ वह जन समुदाय है, जो पुस्तकीय, वैज्ञानिक एवं तार्किक ज्ञान से अलग विश्वास-केन्द्रित सरल अकृत्रिम जीवन का अभ्यासी है और जो पर्व, त्यौहार, व्रत, उत्सव, नाट्यसंगति, कथा-वार्ता आदि के माध्यम से न केवल हमारी सौन्दर्य-चेतना को अभिव्यक्ति देता है, वरन हमारे जीवन में जो कुछ श्रेष्ठ और वरेण्य है, उसका आधार भी प्रस्तुत करता है। यह लोक ही हमारी अस्मिता और तेजस्विता का मूल उत्स भी है।”2
लोकनाट्य की परंपरा चिरंतर से चली आ रही है। लोकनाट्य के प्रणेता के रूप में भरतमुनि को माना जाता है, उनका ‘नाट्यशास्त्र’ लोकधर्मी नाट्य परंपरा का सहज सृजन है। लोकनाट्य की सरलता का आधार उसका लोकात्मक एवं लोकसिद्ध होना है क्योंकि लोक से यह प्रमाणित होता है कि भरतमुनि ने लोकधर्मिता और नाट्यधर्मिता में अन्तर स्पष्ट किया है-
लोकधर्मी भवेत्वन्या नाट्यधर्मी तथा परा
स्वभावो लोकधर्मी तु विभावो नाट्यमेव हि।3
यानी जो स्वाभाविक है, वह लोकधर्मी, जो विभाव है कला द्वारा कृत्रिम है, वह नाट्यधर्मी। लोकनाट्य नाट्यशास्त्र के नियमों में नहीं बंधा होता। यह रंग प्रसाधनों एवं
साज-सज्जा के औपचारिक नाट्य आडम्बरों से निर्लिप्त होता है। शास्त्र की जकड़न से यह दूर होता है। नाट्यशास्त्र का कोई उपादान लोकनाट्य की समता नहीं कर सकता। लोकनृत्य, गीत, संगीत की जो रसेदार चासनी लोकनाट्य में देखने को मिलती है, वह दूसरी जगह नहीं। लोकनाट्य जीवन के मांगलिक कार्यों एवं धार्मिक अनुष्ठानों पर लोकमंच पर अभिनीत होकर लोगों में आनंद का अनुभव कराता है। इसमें जीवन का खुलापन एवं सहज स्वाभाविकता विद्यमान होती है। यह जीवन में समग्र रूप को लेकर चलता है। यह अपने को मुक्त रखता है। इसे बंधन स्वीकार नहीं। यह “शास्त्र की सीमाओं को तोड़कर जीवन की असीमता के बीच से निकलता है इसलिए वहाँ अभिनय की सहजता और मानवीय भावों का घना संसार है। इसलिए खुले आकाश के नीचे, जनजीवन के बीचों-बीच अपनी जगह बनाता है- आँगन, चौपाल, मंदिर गली-गलियारा, सड़क कहीं भी।”4
भिखारी ठाकुर लोकनाट्यकर्मी कलाकार थे। वे भोजपुरी भाषी क्षेत्र के थे। उनका जन्म बिहार में सारन जिले के एक पिछड़े गाँव कुतुबपुर में 18 दिसम्बर 1887 को हुआ था। चंद्रशेखर लिखते हैं कि- “बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में भोजपुरी क्षेत्र में बिदेसिया नामक गीति-नाट्य रूप का जन्म हुआ। मौखिक परम्परा के मुताबिक इस गीति-नाट्य रूप के संस्थापक भिखारी ठाकुर थे। बिदेसिया संस्कृति अभिव्यक्ति का ‘लोकप्रिय’ रूप था। ऐसा माना जाता है कि भिखारी ठाकुर के नाटक देखने के लिए बीस-बीस हजार लोग जुटते थे। हो सकता है कि दर्शकों की संख्या थोड़ा बढ़ा-चढ़ाकर बताई गई हो लेकिन गीति या चौपाई आदि में पदों की कम-से-कम चार बार आवृत्ति से इसके प्रति
व्यापक उत्साह का संकेत मिलता है।” 5
भिखारी ठाकुर लोकनाट्य के प्रति बहुत रूचि रखते थे। बचपन में गुल्ली डंडा, नाच, कबड्ड़ी जैसे खेल खेलते थे। इससे नाट्य के प्रति उनका रूझान बढ़ता गया। नाच-गाना उन्हें बहुत अच्छा लगता था। इसलिए नाच के प्रति उनकी इच्छा और तीव्रतर होती गई। नाच-गाने के प्रति उसका मन जितना लगता था, उतना विद्या अध्ययन में नहीं। गाय चराने में उनका मन रमता था, क्योंकि वहाँ खुलापन और स्वतंत्रता थी। एक वर्ष तक विद्या अध्ययन करने विद्यालय गये लेकिन ‘रामगति’ तक लिखने नहीं आया। वे लिखते हैं, “जब मैं नौ वर्ष का हुआ, तब विद्या पढ़ने के लिए पाठशाला गया। एक वर्ष तक रामगति लिखने नहीं आया, तब पढ़ना छोड़ दिया।” 6 वे पढ़ाई छोड़ने के बाद
हजामत का कार्य करने लगे। वही उनका पैतृक पेशा था। हजामत बनाते-बनाते उनमें विद्या अध्ययन की लालसा जगी। भगवान नाम के बनिये के लड़के से उन्होंने ककहरा सीख लिया। अब उनमें पढ़ाई-लिखाई की समझ आने लगी थी। घर पर बैठे-बैठे रामचरित मानस का अध्ययन करने लगे। वे रामायण की कथा भी खूब सुनते थे। रामायण में दोहा चौपाइयों के तर्ज पर वे स्वयं रचना करने लगे। रामलीला के व्यासजी का उपदेश उन्हें बहुत अच्छा लगता था। वे भी उसी तरह उपदेश देना चाहते थे। उन्होंने स्वयं रामलीला के मंचन करने का मन बनाया। अपने बारे में वे स्वयं बताते थे कि ‘‘रामलीला में व्यास जी उपदेश देते थे। सुनकर मेरा मन हुआ कि इसी तरह से मैं भी उपदेश देता, अपने साथियों से सलाह करके कागज के क्रीट-मुकुट बनाकर गाँव में रामलीला करना शुरु कर दिया, साथ-ही-साथ मैं ‘सरधापूर्वक’ उपदेश देने लगा। उस समय मेरी उमर तीस बरस की थी। तब नाच का गिरोह बनाकर सट्टा लिखाकर में कुछ दाम कमाने लगा।” 7
भिखारी का नाचना-गाना परिवार वालों को अच्छा नहीं लगता था क्योंकि परिवार की मर्यादा साख पर थी। नाच-गाना परम्परागत भारतीय समाज में निम्न दृष्टि से देखा भी जाता था। नचनियों-बजनियों की कोई कीमत नहीं होती थी। परिवार वालों को भिखारी ठाकुर का नाचना-गाना अच्छा न लगना स्वाभाविक था। समाज में तरह-तरह की बातें उठती थी कि ‘भिखरिया’ समाज को बर्बाद कर रहा है, लौंडेबाजी को बढ़ावा दे रहा है, बेटियों बहुओं को बहका उकसा रहा है। भिखारी ठाकुर को इन सारी बातों की कोई परवाह नहीं थी। वे अपनी धुन के आगे किसी का विरोध विनम्रता से स्वीकार कर लेते थे। उन्होंने कड़ा संघर्ष कर अपने ‘नाच’ को समाज में स्थापित कर दिया। नाच के प्रति लोगों में जो नकारात्मक भावना थी, भिखारी ने उन्हें दूर कर दिया। वे घर, परिवार, समाज के चहेते बन गये क्योंकि उन्होंने नाट्यकला का विषय मनोरंजन के साथ घर परिवार समाज की समस्याओं को बनाया। उन्हें ‘बिहार गौरव’, बिहार-भूषण’, नट-सम्राट’, भोजपुरी के शेक्सपीयर, भोजपुरी के भारतेन्दु आदि आलंकारिक नामों उपनामों से विभूषित किया गया।
ज्ञानप्रकाश चौबे भिखारी ठाकुर के लोकनाट्य के संदर्भ में लिखते हैं कि “लोकसाहित्य की अन्य विधाओं की ही तरह लोकनाट्यों में सामाजिक जीवन के सहज और स्वाभाविक चित्र लोकनाटककारों द्वारा रचे गये हैं, भिखारी ठाकुर अपने नाटकों में सामाजिक जीवन के ऐसे-ऐसे दृश्य खींचते हैं कि पाठक और दर्शक दोनों ही आश्चर्यचकित रह जाते हैं। उन्होंने पारिवारिक संबन्धों के अनदेखे दृश्य सहित अनमेल विवाह, दहेज प्रथा, अवैध संबंध आदि के साथ ही अनेक सामाजिक बुराइयों को अपने नाटकों में दर्शाकर उनसे होने वाली विकृतियों को उजागर कर पाठकों और दर्शकों को चेताने का कार्य भी किया है।”8
भिखारी ठाकुर के लोक-नाट्य कला को सराहा गया। ऐसे कार्यक्रम को आगे बढ़ाने की अनुशंसा की गई। जगदीश चन्द्र माथुर ने उन्हें भरतमुनि की परम्परा का अनूठा अधिनायक घोषित किया। उन्होंने माना कि भिखारी ठाकुर मंच और दर्शक के बीच जैसे तालमेल मिलाकर चलते थे वैसा कोई दूसरा नहीं। ऐसा कलाकार जिसके नाटक पचास वर्षों से भोजपुरी समाज के सुख-दु:ख का सहभागी रहा, वह ऐसे ग़रीब परिवार से आता था, जिसे औपचारिक शिक्षा तक नहीं मिली थी। उनके क्षेत्र में जो लोकनाट्य प्रचलित था उसी की जानकारी सिर्फ उन्हें थी। इसके अतिरिक्त उन्हें भारतीय रंगमंच परम्परा का ज्ञान नहीं था। यह एक प्रकार का संयोग ही था कि युवावस्था में भिखारी ठाकुर को रोजी-रोटी के लिए जूझना पड़ा था। इसी संदर्भ में उन्हें खड़गपुर जाना पड़ा। वहाँ पर उन्होंने नाटकों में कुछ नये ढंग के चलन का नाटक देखने को मिला होगा। रामलीला और रासलीला लोकनाटकों की परम्परा में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। ज्ञानप्रकाश चौबे के अनुसार ‘‘बंगाल में आज भी यात्रा और ‘कीर्तन’ का प्रचलन है, भारत के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न नामों से लोकनाटक प्रचलित है। ब्रज और हरियाणा के ‘स्वांग’, ब्रज की ‘रासलीला’, भोजपुरी की ‘रामलीला’, आसाम की ‘अंकिया’, हिमालय का
‘करिमाल’, मिथिला का ‘कीर्तनिया’, महाराष्ट्र का ‘गोधल’ और ‘तमाशा’, बिहार का ‘बिदेसिया’, उत्तर प्रदेश की ‘नौटकी’, गुजरात की ‘भवाई’ आदि प्रचलित लोकनाट्य है।’’9
अभी तक लोगों के बीच पारसी रंगमंच ही देखने को मिलता था किन्तु अब हिन्दी प्रदेश में एक ऐसा नाट्य दल तैयार हो रहा था जो सबके लिए सुलभ था। पारसी रंगमंच के बाद देशी रंगमंच का दूसरा स्थान था किन्तु लोकप्रियता में यह उससे आगे निकल गया था, पारसी रंगमंच सदैव धनाढ़य और व्यवसायी लोगों के हाथ में था किन्तु यह नाचदल कलाकारों द्वारा संचालित था, इस ‘नाचदल’ में जितने सदस्य थे, वे निर्धन और ग्रामीण परिवार से आते थे। उन कलाकरों के पास अपने श्रम के अलावा आय का कोई अन्य साधन नहीं था। इन सबके ऊपर परिवार की जिम्मेवारी भी थी। रंगमंच में जितने उपकरण लगते थे वह सब उन्हीं को जुटाना पड़ता था। कला-प्रदर्शन
के लिए कलाकारों को दूर-दूर की यात्राएं भी करनी पड़ती थी। रंगमंच के उपकरणों का सारा खर्चा उन्हीं लोगों को उठाना पड़ता था। कलाकरों को उदर पूर्ति और परिवार का भरण-पोषण एक चुनौतीपूर्ण कार्य था। इतनी सारी चुनौतियों के बावजूद भी यह दल एक दो साल ही नहीं छियालिस साल निरंतर प्रगति पर था। हिंदी प्रदेश में पृथ्वीराज कपूर का अपना एक थियेटर भी था, जो संसाधनों से भरपूर था, यह जनसामान्य में अत्यन्त ही लोकप्रिय था। इस थियेटर को देखने के लिए लम्बी-लम्बी कतारें लगती थी किन्तु यह थियेटर अधिक दिनों तक नहीं चल सका, पाँच वर्षों बाद ही यह बंद हो गया। लोकनाट्य कलाकार भिखारी ठाकुर ने अपने नाट्य-कला को कई वर्षों तक
सफलतापूर्वक चलाया।
भिखारी ठाकुर के नाटकों पर बंगाल के सुप्रसिद्ध लोकनाट्य ‘यात्रा’ और उत्तर प्रदेश की ‘रामलीला का प्रभाव देखा जा सकता है। अश्विनी कुमार पंकज का कथन है कि ‘‘नवीन बिरहा, नाई-बहार, राधे- श्याम बहार, घिचोर-बहार, यशोदा सखी संवाद, नंनद-भौजाई संवाद, गंगा- स्नान, पुत्र-वध, कलियुग-प्रेम, बाल-विवाह, विधवा-विलाप, विधवा-विवाह, बेटी-बेचवा, बुढ़साल, कृष्णलीला, भाई-विरोध, भाड़ के नकल एवं बहुचर्चित, बिदेसिया जैसी पद्यमय और गीत प्रधान नाटकों की रचना की। हालांकि जिन्होंने इसे नाट्य रूप में नहीं देखा वे इसे गीतों की पुस्तक ही मान सकते हैं।’’ 10
भिखारी ठाकुर के लोक-नाट्य को नाटक के नाम से बिहार में बहुत कम जाना जाता है। उनके नाट्य विधा को लोग ‘भिखरिया के नाच’ कहकर पुकारते हैं। इतना तो स्पष्ट ही है कि ‘भिखरिया के नाच’ की प्रसिद्धि आम लोगों में अधिक थी। ‘भिखारिया के नाच’ देखने को लोग तरसते थे। लोग यह भी कहते थे कि जिसने ‘भिखरिया का नाच’ नहीं देखा है। वह अभी माँ के गर्भ में है। ऐसा लगता है कि जैसे जीवन की सार्थकता ‘भिखरिया के नाच’ देखने में ही है।‘भिखरिया के नाच’ के बिना लोगों को जीवन निरर्थक सा लगता है। भिखारी ठाकुर के नाट्य कलाकरों के प्रदर्शन से जनता लोट-पोट जाती थी। भिखारी ठाकुर के ‘नाच’ के सारे पात्रों की महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी। सुनसरन और लालू जब साड़ी बांधकर मंच पर उतरते थे तो सिनेमा की हिरोइने भी मात खा जाती थी। संजीव ने अपने उपन्यास ‘सूत्रधार’ में भिखारी ठाकुर और उनके साथ काम करने वाले अन्य कलाकरों के अभिनय की भरपूर प्रशंसा की है । वे लिखते हैं ‘‘पंड़ित की भूमिका में लच्छन राय, झाँटुल दुल्हा के रूप में स्वयं भिखारी और बेटी की भूमिका में सुनरसन ने इतना जमकर अभिनय किया कि तमाशा जीवंत हो उठा। सारे दर्शक स्तब्ध, कहीं दूर अँधेरे में सिसकियाँ उभरी, लोगों ने चौककर देखा, औरते थी, जो लोक-लाज के भय से सबसे छुपकर अँधेरे में बैठी थी।’’ 11
भिखारी ठाकुर लोक पारखी दृष्टि के थे। कलाकारों को भांपने में देरी नहीं करते थे। कलाकारों को पढ़ा सिखा कर नाच कला में पारंगत कर देते थे। यह एक प्रकार का लोकनाट्य पर उनका समर्पण ही था। उन्होंने आदिकाल से चली आ रही लोक-नाट्य परंपरा को जीवित रखा। अपने लोकनाट्य के माध्यम से जन जागरण का शंखनाद फूंका। उन्होंने लोगों की सोई हुई चेतना को जागृति किया। आज भिखारी ठाकुर की नाट्य-परम्परा को जीवित रखने की आवश्यकता है। अश्विनी कुमार पंकज लिखते है कि ‘‘भोजपुरी का यह अमर लोक कलाकार भिखारी ठाकुर उपेक्षित हो गया है, आज विस्मृत कर दिया है उसे। शायद हमारा यह समाज आधुनिक समाज उस महान आत्मा को एक साधारण नाई से ऊपर और कुछ मानने को तैयार नहीं। आधुनिक रंगमंच के तथाकथित प्रबुद्ध लोग उन्हें ‘नचनिया’ कहकर भुला देना चाहते हैं।’’ 12
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि भिखारी ठाकुर अपने समय में प्रचलित सभी नाट्य रूपों से बहुत कुछ सीखकर अपना अलग नाट्य दल तैयार किया। अपने नाट्य कला के माध्यम से लोगों को मनोरंजन के साथ उनकी चेतना को उद्देलित किया। अपने कला के माध्यम से समाज की तात्कालिक समस्याओं को लोगों के सम्मुख प्रस्तृत किया। उत्तर भारतीय समाज में फैले, बेमेल विवाह, जाति प्रथा, नशाखोरी आर्थिक सामाजिक विषमता, पाखण्ड आदि का पर्दापाश किया। समाज को स्वच्छ और स्वस्थ दिशा देने की भरपूर कोशिश की।
संदर्भ ग्रंथ-
1. लोक, संपादक पीयूष दइया, भारतीय लोक कला मण्डल, उदयपुर, प्रथम संस्करण 2002, पृष्ठ 384
2. वही
3. लोक नाट्य परम्परा और आधुनिकता, संपादक प्रियंका मिश्र, अनंग प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2016, पृष्ठ 47
4. वही, पृष्ठ 48
5. लोकप्रिय संस्कृति का द्वंद्वात्मक समाजशास्त्र, संदर्भः विदेसिया चंद्रशेखर, इंडियन प्रेस, प्राइवेट लिमिटेड प्रथम संस्करण 2011, पृष्ठ 39
6. भिखारी ठाकुर रचनावली, संपादक मिथिलेश कुमारी मिश्र, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, संस्करण अगस्त 2011, पृष्ठ 323
7. वही
8. नाटककार भिखारी ठाकुर की सामाजिक दृष्टि, ज्ञानप्रकाश चौबे, कला प्रकाशन, प्रथम संस्मरण 2009, पृष्ठ 97
9. वही, पृष्ठ 57
10. रंग विदेसिया, संपादक अश्विनी कुमार पंकज, विकल्प प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2015, पृष्ठ 45
11. सूत्रधार, संजीव, राधाकृष्ण, पेपर बैक्स, प्रथम संस्करण 2004, पृष्ठ 123
12. रंग विदेसिया, संपादक अश्विनी कुमार पंकज, विकल्प प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2015, पृष्ठ 46
– काली सहाय