मूल्याँकन
भावों की दृष्टि से विविधता ‘101 महिला ग़ज़लकार’ की सबसे बड़ी विशेषता है
– डॉ. शुभा श्रीवास्तव
किताबगंज प्रकाशन से प्रकाशित संपादक के. पी. अनमोल की ‘एक सौ एक महिला ग़ज़लकार’ ग़ज़लों की एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। इतनी बड़ी संख्या में एक स्थान पर इन महिला ग़ज़लकारों का आना अपने आप में महत्वपूर्ण उपलब्धि है। जब हम पूरे हिंदी साहित्य के इतिहास लेखकों पर दृष्टि डालते हैं तो महिला रचनाकारों की परंपरा उपेक्षित दिखाई देती है, फिर ग़ज़ल विधा पर पुस्तक लिखना, ग़ज़ल विधा पर महिला रचनाकारों को इतनी बड़ी संख्या में एक साथ लेकर आना एक साहस ही है। ऐसे समय में जब महिला लेखन पर अब लोगों का ध्यान केंद्रित हो आया है तो ग़ज़ल विधा पर महिला लेखन की चर्चा अपने आप में सराहनीय कार्य है। पुस्तक में सम्मिलित ग़ज़लकारों के क्षेत्र पर जब मेरा ध्यान गया तो मैंने गौर किया कि इसकी पहुँच ज़्यादा से ज़्यादा प्रदेशों तक गयी है। कुछ प्रदेश छूट गए हैं पर इतना व्यापक फ़लक़ प्राप्त करना भी आसान नहीं रहा होगा। उत्तरप्रदेश, पंजाब, बिहार, नई दिल्ली, उत्तराखण्ड, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, बेंगलुरु, महाराष्ट्र, हरियाणा, यूनाइटेड किंगडम इत्यादि स्थानों से महिला रचनाकारों की प्रमुख रचनाओं का यह संग्रह बड़ा ही अनुपम व अद्भुत है।
महिला लेखन पर अब तक सिर्फ सवाल ही पूछे जाते रहे हैं पर डॉ. अंजना सिंह सेंगर का कहना है कि
चले भी आइए मिलकर जनाब ढूँढेंगे
कई सवाल हैं जिनके जवाब ढूँढेंगे
महिला ग़ज़लकारों की पीड़ा दोहरी है। पहली तो हिंदी में अपना स्थान बनाना, दूसरे ग़ज़ल की विधा को पूर्णरूपेण प्रतिष्ठित करना। हिंदी की ग़ज़ल सिर्फ दुष्यंत कुमार को याद करती है पर अब महिलाओं के लिए नज़रों को बदलना होगा, इसीलिए अंजली गुप्ता ‘सिफ़र’ कहती हैं-
नज़र कुछ लिखा इस पे आता नहीं है
मगर दिल का काग़ज़ ये कोरा नहीं है
इन महिला ग़ज़लकारों ने स्त्री, माँ, बेटी हर रूप में अपनी लेखनी चलायी है। माँ संसार का सबसे ख़ूबसूरत शब्द है, जिसे कोई उपमान नहीं बता सकता है। माँ से ही बचपन और उसी से जीवन के पंख हैं, जिससे उड़ान भरी जाती है। सिफ़र कहती हैं-
आज भी जब माँ पुकारे प्यार से
लौट आए बचपना खोया हुआ
तब हुआ एहसास पंखों का ‘सिफ़र’
एक परिंदा देखा जब उड़ता हुआ
माँ एक श्रद्धा है और हमारी रगों में दौड़ता हुआ प्रेम है, उसके बिना जीवन की कल्पना ही नहीं है। हेमा चंदानी के शब्दों में माँ का कर्ज इंसान बनकर ही उतारा जा सकता है, वह कहती हैं-
फितरत को इंसानी रख
आँखों में कुछ पानी रख
माँ ही काशी-का’बा है
चरणों में पेशानी रख
हर स्त्री में माँ का अक्स दिखाई देता है। इन ग़ज़लकारों ने माँ का स्वरूप ही नहीं, माँ की हर संवेदना को अपनी रचनाओं में उकेरा है। माँ से अलग अपना अस्तित्व ही उन्हें स्वीकार नहीं है। चारु अग्रवाल कहती हैं-
माँ का हिस्सा लगती हूँ
मैं भी सादा लगती हूँ
ओढे हूँ ख़ामोशी को
सागर गहरा लगती हूँ
स्त्री का सबसे अहम पक्ष उसका बेटी होना है। बेटी का हर रूप ग़ज़ल संग्रह में हमें दिखाई देता है। रश्मि सक्सेना कहती हैं-
चाहत में रुसवाई है
मिलती बस तन्हाई है
बेटी जन्म जहाँ लेती
होती वहीं पराई है
कितना अद्भुत संयोग है और कितनी बड़ी विडंबना है कि बेटी हमेशा परायी होती है। संवेदनाओं की इन्हीं पर्तों को यह महिला ग़ज़लकार अपनी रचना में बखूबी चित्रित करती है।
स्त्री विमर्श के इस दौर में महिला ग़ज़लकारों ने स्त्री की यथार्थपरक प्रस्तुति की है। स्त्री का प्रबल पक्ष यहाँ देखने को मिलता है। डॉक्टर तारा गुप्ता के शब्दों में-
सती हूँ और राधा भी कभी मीरा कभी शबरी
इकाई हूँ मगर मन से हमेशा मैं दहाई हूँ
स्त्री की एक बड़ी खूबी है कि वह हर परिस्थिति को पढ़ सकती है। ज़िन्दगी की किताब स्त्री की आँखों से बच नहीं सकती है। गीता विश्वकर्मा ‘नेह’ फ़रमाती हैं-
अनपढ़ हूँ मगर आँख तो हर इक को पढ़ रही
वो किस तरह के चाल-चलन की किताब है
ज़िन्दगी यहाँ दर्द बन कर आई है तो दवा बनकर भी आई है। हर ग़ज़लकार की ज़िन्दगी के प्रति अपना नज़रिया है पर ज़िन्दगी का हर रेशा इन ग़ज़लों में हमें दिखाई देता है। आरती अशेष कहती हैं-
सुना है गर तलाशो इस जहां में क्या नहीं मिलता है
हज़ारों लोग मिलते हैं कोई तुमसा नहीं मिलता है
जिसे हम ज़िन्दगी कहते हैं अक्सर बेख़ुदी में
नहीं कुछ वो, फ़क़त कुछ हादसों का सिलसिला है
ज़िन्दगी के फूल और काँटे धूप और छाया जैसे विरोधी भाव इन ग़ज़लों में अपनी छाप छोड़ते हैं। कहीं दर्द है तो कहीं पर तारों पर पाँव रखने की इच्छा है। इसी ज़िन्दगी के लिए असमा सुबहानी कहती हैं-
खिलखिला कर हँसे मौत के सामने
मौत के यूँ पर कतरती है पर जिंदगी
तेरे क़दमों तले सिर्फ काँटे रहे
अब तू तारों पे कुछ पाँव धर जिन्दगी
इन महिला ग़ज़लकारों ने ज़िन्दगी के फ़लसफ़े को इस तरह गुनगुनाया है कि यहाँ दर्द भी दवा की तरह असर करता है। इन ग़ज़लों में ऐसा असर है कि पढ़ने वाला अपना दर्द भूल जाता है और ग़ज़ल गुनगुनाने लगता है। कल्पना रामानी कहती हैं-
है ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा, ज़रा-सा मुस्कुराइए
बनेगा दर्द भी दवा, ज़रा-सा मुस्कुराइए
इन महिला ग़ज़लकारों की रचनाओं में ज़िन्दगी की हर शय देखने को मिलती है। सच की पर्त, सियासत के रंग भी इन ग़ज़लों में बड़ी सहजता से समाए हुए हैं। आशा पाण्डे ओझा के शब्दों में कहे तो-
चलो देखें ज़रा हँसकर हुई इक आरज़ू दिल को
हँसी की इस तमन्ना में हज़ारों ग़म भुला बैठे
सियासत की हथेली पर गुनाहों के निशां देखे
रही ग़लती हमारी ये कि उनका सच बता बैठे
ज़िन्दगी के इन्हीं गलियारों से गुज़रते हुए अपने बचपन, अपनी ख़ुशियों की याद एक सहज प्रवाह की तरह इन ग़ज़लकारों ने सामने रखी है। बचपन का भोलापन, उसकी शरारतें और मीठी-मीठी यादें इन ग़ज़लों में बड़ी ख़ूबसूरती से उभर कर आयी हैं। आश्कारा खानम ‘कश्फ़’ कहती हैं-
करते थे खेलने को बहाने किधर गए
बचपन के वो हसीन ज़माने किधर गए
सुनते-सुनाते जिनको गुज़रती थी ज़िन्दगी
एह्बाब अब वो किस्से पुराने किधर गए
इन्हीं पुराने किस्सों में प्रेम का प्रसंग दिल को छू जाता है। प्रेम की अपनी ही दुनिया है और इसकी अनुभूति हर दिल की अनुभूति है। प्रेम के संदर्भ में यह संग्रह बहुत ही रूमानी और दिल के क़रीब रहने वाला संग्रह बन पड़ा है। प्रेम के हर पहलू का एहसास इन ग़ज़लों के माध्यम से पाठक को होता है। आरती आलोक वर्मा के साथ ही पाठक भी मुहब्बत की ग़ज़ल गाने लगता है और कहता है-
मुहब्बत के, वफ़ा के, प्यार के हम गीत गायेंगे
मिलें कितने ही ग़म हमको मगर हम मुस्कुरायेंगे
हमारा साथ दे कोई न दे दौरे-तग़य्युर में
मुहब्बत का सभी से फिर भी हम रिश्ता निभायेंगे
पर मुहब्बत में अगर दर्द न हो तो मुहब्बत का किस्सा मुकम्मल नहीं होता है पर यही दर्द दवा बन जाता है। आभा सक्सेना के लिए-
दिए हैं दर्द मुझे और ज़ख़्म दे डाले
कभी-कभार मुझे दर्द ही दवा है लगे
कहीं हुई कोई दस्तक है तेरे आने की
क़रार दिल को मेरे अब तो आ गया है लगे
प्रेम वर्णन में इन महिला ग़ज़लकारों ने यथार्थ की ज़मीन को नहीं छोड़ा है। वर्णन चाहे जैसा भी हो सच और यथार्थ कहना इनका काम है और यह बाखूबी इस काम को जानती हैं। सभी ग़ज़लकारों ने प्रेम में रूमानियत को कम और यथार्थ को ज़्यादा महत्व दिया है पर प्रेम का सहज और कोमल रूप इन ग़ज़लों में रचित हुआ है। अलका मिश्रा के शब्दों में कहें तो-
बातों में महारत नहीं हासिल जिसे होती
अक्सर वही हो जाता है नाकाम मुकम्मल
दिल में है मगर उससे कभी कह नहीं पाए
आने से तेरे होती है ये शाम मुकम्मल
जहाँ तक यथार्थ चित्रण का प्रश्न है, यह यथार्थ सिर्फ प्रेम का ही नहीं बल्कि साहित्य के संसार का भी है। यथार्थ, उसकी बुनावट और ज़िन्दगी की पर्तों का भी मिलना इन ग़ज़लों में है। यथार्थ की इन्हीं पर्तों को खोलने के लिए अतिया नूर कहती हैं-
दौलत ने इस क़दर उसे मग़रूर कर दिया
अपने पराए सबसे बहुत दूर कर दिया
गुमनाम रह गया कोई दीवान लिख के भी
दो-चार शेर ने तुझे मशहूर कर दिया
इन ग़ज़लों में ज़िन्दगी है, प्रेम है, प्रकृति है। इन ग़ज़लों में जो भी चित्रण है, वह ज़मीनी धरातल पर है न कि आसमानी सोच पर टिका हुआ है। यह संग्रह अपने प्रकृति वर्णन के लिए मुझे विशेष रूप से आकर्षित करता रहा है। इसमें प्रकृति का हर रूप है। आचार्य शुक्ल ने भी कहा है, “जो अपने देश की प्रकृति से प्रेम करता है, वह अपने देश से भी प्रेम करता है।” इसी देशप्रेम का मधुर उदाहरण आशा शैली जी अपने शब्दों में प्रस्तुत करती हैं-
ये हिंदुस्तान की मिट्टी भले चंदन-सी शीतल है
बहुत मुमकिन है इसका वक़्त पर अंगार हो जाना
उठे जब सरहदों से दोस्तो इक शोर ख़तरे का
तो लाज़िम है यहाँ हर एक गुल का ख़ार हो जाना
प्रकृति का हर रूप इन ग़ज़लों की पंक्तियाँ बनकर पूरे संग्रह को महकाता है। यहाँ पर चिड़ियां हैं, खेत हैं, खलिहान हैं, फूल हैं, उनकी खुशबू है और प्रकृति का मधुर संगीत है। इंसान आज इन सब चीज़ों से दूर होता जा रहा है। एक ग़ज़ल ही है, जिसने इन सबको अपने दिल में संजोया है और इन ग़ज़लकारों ने इस पर मधुर ग़ज़लों को गाया है। प्रकृति न हो तो हम भी न हों, यह बात इन महिला ग़ज़लकारों को अंदर तक छूती है इसीलिए शायद प्रकृति और प्रेम की ग़ज़लें इस संग्रह में ज़्यादा है। प्रकृति का किसानी रूप भी यहाँ पर आता है पर आधुनिकता के कारण कैसे वह पीछे हो जाता है, इसे डॉ. कविता विकास बताती हैं और कहती हैं-
खेत, मेघ, दरिया की बात अब पुरानी है
खोई गाँवों ने अस्मत, थम गई रवानी है
गाँव में जो बसता था, वो किधर गया भारत
आधुनिकता की आँधी ला रही वीरानी है
इन ग़ज़लकारों ने आधुनिकता की अंधी दौड़ से पाठक को सचेत भी किया है और उसे बताया है की प्रेम ही शाश्वत है और मनुष्य और प्रकृति दोनों से प्रेम ही इंसानियत को बचाए रखेगा। अगर प्रेम और प्रकृति नहीं है तो मनुष्य भी नहीं है।
भाषा की दृष्टि से यह ग़ज़ल संग्रह सरल व ग्राह्य है। उर्दू शब्दों का प्रयोग तो ग़ज़ल में होता ही है पर यह ग़ज़ल संग्रह हिंदी पाठकों के लिए क्लिष्ट नहीं है। ग़ज़लों में रस का प्रवाह और तारतम्य बना हुआ है। कहीं भी कृत्रिमता की बुनावट नहीं है। भावों की दृष्टि से विविधता इस संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता है। ज़मीनी सच और सामाजिक सरोकार इस ग़ज़ल संग्रह को अन्य संग्रहों से अलग बनाते हैं। दो मिस्रो में भी अपनी पूरी बात कहने का गुण इन ग़ज़लकारों को बाख़ूबी आता है। मुसल्सल और ग़ैर मुसल्सल ग़ज़लें संग्रह में संग्रहित हैं। सभी महिला ग़ज़लकारों ने अपनी दो-दो ग़ज़लों के माध्यम से यह बता दिया है कि ग़ज़ल विधा की संभावनाएँ अपार हैं बस उन पर चलने की आवश्यकता है। संपादक के. पी. अनमोल जी का यह प्रयास बेहद सराहनीय है और ग़ज़ल विधा के क्षेत्र में अपने आप में अनूठा कार्य भी है। जब भी ग़ज़ल का इतिहास लिखा जाएगा तो इस पुस्तक को उसमें शामिल किया जाएगा। इन ग़ज़लकारों को एक ही स्थान पर लाने के लिए के. पी. अनमोल जी बधाई के पात्र हैं। अपने भाव, भाषा और कथ्य की दृष्टि से संग्रह में समिल्लित सभी ग़ज़लकार सफल हैं।
समीक्ष्य पुस्तक- 101 महिला ग़ज़लकार
विधा- ग़ज़ल
संपादक- के. पी. अनमोल
प्रकाशन- किताबगंज प्रकाशन, गंगापुरसिटी (राजस्थान)
संस्करण- प्रथम (दिसम्बर 2018)
पृष्ठ- 208
मूल्य- 350 रूपये (पेपरबैक)
– डॉ. शुभा श्रीवास्तव