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भारतेन्दु हरिश्चन्द्र- आधुनिक युगीन कृष्ण काव्य परम्परा के अग्रदूत: शिखा शर्मा
भारत की महान विभूतियों में भगवान श्री कृष्ण का नाम अत्यन्त आदरपूर्वक लिया जाता है। ऐसी मान्यता रही है कि वह भगवान विष्णु के अवतार है, जिस कारण उन्हें लीला पुरूषोत्तम के रूप में भी जाना जाता है। लोक जीवन के साथ-साथ साहित्य संगीत कला, राजनीति, अर्थनीति इत्यादि क्षेत्रों में भगवान श्रीकृष्ण लोगों के प्रेरणा स्रोत रहे हैं। साहित्य के क्षेत्र में भी कृष्ण भक्ति का यह रूप हमें लगभग सभी भाषाओं में देखने को मिल जाता है। अगर हम हिन्दी साहित्य की बात करें तो यहाँ कृष्ण भक्ति की काव्य-परम्परा बड़ी लम्बी रही है जिसमें विद्यापति, मीराबाई, हितहरिवंश, स्वामी हरिदास से लेकर अष्टछाप के कवियों में सूरदास, नंददास, कृष्णदास, कुंभनदास, परमानंददास, छीतस्वामी, चतुर्भुजदास, गोविन्दस्वामी एवं रीतिकालीन कवियों में रहीम, रसखान, घनानन्द, बिहारी, देव तथा आधुनिक कवियों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, जगन्नाथदास ’रत्नाकर’, सत्यनाराण ’कविरत्न’, अयोध्या सिंह उपाध्याय ’हरिऔध’ तथा धर्मवीर भारती आदि कृष्ण काव्य परम्परा के प्रसिद्ध कवि हैं। इन कवियों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का नाम अत्यन्त प्रसिद्ध है।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल के जनक माने जाते हैं। उन्होंने साहित्य के विभिन्न क्षेत्रों जिसमें काव्य, नाटक, अनुवाद, धर्म, इतिहास, महात्म्य साहित्य, निबन्ध यात्रा वृतांत आदि में अपनी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय दिया है। भारतेन्दु का काव्य-साहित्य बहुत विशद ओर विभिन्न है। ’वे भक्त थे और उनमें पूजा-भाव की प्रधानता थी। वे भक्त साहित्य का अध्ययन बराबर करते रहे। उनका यह नियम था कि कुछ न कुछ भक्त-काव्य दिन भर में अवश्य लिखते।’1
भारतेन्दु पुष्टि सम्प्रदाय के कृष्णभक्त थे। वह वल्लभाचार्य के शुद्धद्वैतवादी दर्शन से प्रभावित थे जिसका प्रभाव उनके साहित्य में भी मिलता है। आधुनिक काल में जब भक्ति-भावना कुछ क्षीण होती जा रही थी उस समय भारतेन्दु ने कृष्णभक्ति काव्य की रचना कर प्रचलित परम्परा को पुनः आगे बढ़ाया। उनसे प्रेरणा प्राप्त कर अन्य कवियों ने भी कृष्णकाव्य की रचना की। ’रामरतन भटनागर’ लिखते हैं कि – ’भारतेन्दु के गीति काव्य की श्रेणी में लगभग डेढ़ हजार पद आते हैं। इतने सुन्दर पद इतनी संख्या में अष्टछाप के कवियों के बाद नहीं बने। इन पदों में राधाकृष्ण लीला है, कृष्ण काव्य के सभी अंग इन डेढ़ हजार पदों में आ जाते हैं। बाल लीला, राधाकृष्ण प्रेमविलास, मान रूपवर्णन वंशी, दान विरह, मिलन, भ्रमरगीत के पद इनमें विशेष महत्वपूर्ण हैं।’2
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भगवान कृष्ण की भक्ति करने वाले मुसलमान कवियों की प्रशंसा करते हुए ’उत्तरार्द्ध भक्तकाल’ में कहा है-
इन मुसलमान हरिजनन पै कोटिन हिन्दु वारियै।
अलीखान पाठान सुता-सह ब्रज रखवारे।
सेख नबी रसखान मीर अहमद हरि प्यारे।3
‘वेणुगीत’ एक छोटा सा पद संग्रह है जिसमें 13 पद हैं। पदों का विषय रूप वर्णन, वंशी और यमुना-वर्णन है। कृष्ण के विरह में ब्रजवासी बेसुध बेहाल बैठे हैं, उन्हें एक क्षण सौ युगों की प्रतीति कराने वाला हो गया है:-
कृष्ण चन्द्र के विरह में बैठि सबै ब्रजबाल
एहि विधि बहु बातें करत तन सुधि बिगत बिहाल
जब लौ प्यारे पीय को, दरस होत नहिं नैन
इक छन सों जुग लौ कटत, परत नहीं जिय चैन।4
भारतेन्दु ने श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का सुन्दर वर्णन करते हुए सूर की याद दिला दी है। उदाहरण द्रष्टव्य है:-
सखी री देखहु बाल विनोद
खेलत राम कृष्ण दोऊ आंगन, किलकत हंसत प्रमोद
कबहु घुटुरूअन दौरत दोउ मिलि घूर घूसरित गात
देखि-देखि यह बाल चरित छवि जननी बलि बसि जात।
यशोदा कृष्ण के लिए प्रार्थना करते हुए उनकी दीर्घायु की कामना करती है:-
चिरजीवो मेरो कुंवर कन्हैया
इन नैनन हौं नित नित देखौं राम कृष्ण दोउ भैया
अटल सोहाग लहो राधा मेरी दुलहिन ललित ललैया
‘हरिचंद’ देती सों माँगत आँचर छोरि जसोदा मैया 5
भारतेन्दु के काव्य में राधा-कृष्ण की प्रेम लीलाओं से सम्बन्धित पद भी मिलते हैं। कृष्ण राधा को देखकर मार्ग रोककर खड़े हो जाते हैं और उनका नाम पता पूछते हैं। जिसका वर्णन भारतेन्दु इस प्रकार करते हैं:-
मारग रोकि भयो ठाढ़ो जान न देत मोहि पूछत है तू को री
कौन गाँव कहा नाँव तिहारो, ठाढि रहि नेक गोरी।6
राधिका श्रीकृष्ण के पास अपना संदेश पहँुचाना चाहती है। वह अपनी व्यथा किन शब्दों में व्यक्त करती है इसका वर्णन ’प्रेम मालिका’ में इस प्रकार किया है:-
मेरे प्यारे सो संदेसवा कौन कहै जाये
उर की वेदन हरे वचन सुनाय
कोऊ सखी देई मोरी पाती पहुँचाय
जाई कै बुलाय लावै बहुत मनाय 7
राधा के रूठ जाने पर राधा की सखी कृष्ण से विनय करती है कि वह स्वयं जाकर राधा का मनायें, क्योंकि मैं तो मनाते-मनाते हार गयी तुम्हारी राधा बड़ी हठीली है। ‘प्रेममालिका’ में इसका सजीव वर्णन किया गया है:-
प्यारे जू तिहारी प्यारी अति ही गरब भरी
हठ की हठीली ताहि आपु ही मनाइए
नैकहू न मानै सब भांति हैं मनाय हारी
आपुहि चलिए ताहि बात बहराइए
जैसे बने तैसे ताहि पग पिर लाइए। 8
भारतेन्दु की कृष्ण काव्य परम्परा में विरह के भी मार्मिक चित्रों की प्रस्तुति मिलती है। श्रीकृष्ण के बिना विरहिणी गोपिका को वर्षा कितनी कष्टदायी प्रतीत हो रही है इसका सुन्दर चित्रण भारतेन्दु ने ’वर्षा-विनोद’ के पद में इस प्रकार किया है:-
हरि बिन बरसात आयो पानी
चपला चमकि चमकि डरपावत, माहि अकेली जानी
कोयल कूक सुनत जिय फाटत यह बरषा दुखदानी
‘हरिचंद’ पिय श्याम संुदर बिनु बिरहिनि भई है दिवानी।9
उद्धव-गोपी संवाद प्रसंग का चित्रण भी भारतेन्दु के काव्य में इतीन सजीवता से किया गया है जिसको पढ़कर सूरदास के ’भ्रमरगीत’ का स्मरण हो उठता है। गोपियाँ ऊधौ से कहती है कि अगर अनेक मन होते तो हम सब एक मन स्याम को दे देते और अन्य मन अन्य कार्यों में लगा लेते:-
ऊधौ जौ अनेक मन होते
तौ इक स्याम संदर को देते, इक लै जोग संजोते
इक सों सब गृह कारज करते इक सों धरते ध्यान
इस सो स्याम रंग रंगते तजि लोक लाज कुल कान। 10
भारतेन्दु का अधिकांश वैष्णव काव्य ब्रजभाषा में है और कृष्ण से सम्बन्धित है। भाव, भाषा-शैली की दृष्टि से वह सूर की काव्य परम्परा में आता है। भारतेन्दु के पद साहित्य में राधाकृष्ण चरित्र, भक्ति, विनय, होली, बसन्त, फाग, वर्षा आदि का वर्णन मिलता है। निष्कर्षतः कह सकते हैं कि भारतेन्दु कृष्ण भक्त कवियों की परम्परा का विकास करते है। जिसमें इनको इतनी सफलता मिली है कि वह अन्य कवियों की अपेक्षा सूर के काव्य के निकट खड़े प्रतीत होते हैं। भारतेन्दु के पद व सूर के पदों में इतनी समानता है कि यदि भारतेन्दु के पदों में से ’हरीचन्द’ निकाल दिया जाये तो सूर व भारतेन्दु के पदों में अन्तर करना मुश्किल है। भारतेन्दु आधुनिक युग के कृष्ण काव्य परम्परा के अग्रदूत कहे जा सकते हैं।
संदर्भ-
1. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र: रामरतन भटनागर, किताब महल, इलाहाबाद, द्वितीय संस्करण, जनवरी 1950, पृ0 178
2. वही पृ0 179
3. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र: डाॅ0 लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय, साहित्य भवन प्राइवेट लिमिटेड, इलाहाबाद, द्वितीय संस्करण 1956, पृ0 310
4. वही, पृ0 310
5. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र: रामरतन भटनागर, पृ0 43
6. भारतेन्दु ग्रंथावली भाग-3, सं0 ओमप्रकाश सिंह, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, सं0 2008, पृ0 23
7. वही, पृ0 24
8. वही, पृ0 24
9. वही पृ0 231
10. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र: रामरतन भटनागर, पृ0 304
– शिखा शर्मा