धरोहर
भारतेंदु हरिश्चंद्र : हिंदी साहित्य के महान ‘अनुसंधानकर्ता’!
(जन्म 9 सितम्बर 1850 – मृत्यु 6 जनवरी 1885)
भारतेंदु हरिश्चंद्र, हिंदी साहित्य के इतिहास की निरंतर प्रवहमान सिन्धु यात्रा में किसी सिद्धस्त सागारिक की तरह उस घाट पर खड़े मिलते हैं जहाँ से हिंदी भाषा अपभ्रंश के संकरत्व और ब्रजभाषा के मिलाप के बोहित का मोह त्याग कर साहित्यिक खड़ी बोली की सुन्दर नौका में सवार हो रही थी। 6 सितम्बर,1850 ई. को भारतेंदु ने वाराणसी के एक वैश्य परिवार में जन्म लिया और प्रखर बुद्धि मालिक ने मात्र 6 वर्ष की आयु में एक दोहा सुनाकर ‘होनहार बिरवान के होत चिकने पात’ की उक्ति को चरितार्थ कर दिया। भारतेंदु का परिवार केवल धन-सम्पदा से ही नहीं, अपितु ज्ञान-सम्पदा से भी संपन्न था। भारतेंदु और कशी नरेश, दोनों का परिवार उस समय के जाने माने लेखकों और संगीतकारों की आश्रयस्थली था जहाँ हर समय ज्ञान-विज्ञान, काव्य पाठ और गीत-संगीत निनादित रहता था। भारतेंदु अपनी रचनाओं के वैविध्य के कारण जल्दी ही लोकप्रिय हो गए। भारतेंदु के काव्य में ब्रज और कड़ी बोली दोनों ही भाषा रूप मिलते हैं।
भारतेंदु हरिश्चंद्र का हिंदी साहित्य को सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने सर्वप्रथम हिंदी भाषा एवं साहित्य को एक नई दिशा प्रदान की। भारतेंदु के प्रादुर्भाव के पहले हमारे यहाँ हिंदी भाषा के दो प्रमुख शैली का प्रभाव था एक राजा लक्ष्मण सिंह की संस्कृतनिष्ठ हिंदी और दूसरा राजा शिवप्रसाद ‘सितारेहिंद’ की फारसीनिष्ठ शैली का। दोनों ही शैलियां अपनी अति को छू रही थीं। एक हिंदी भाषा में संस्कृत के शब्दों को चुन-चुनकर डाल रही थी तो दूसरा फारसी के शब्दों को। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने इन दोनों प्रवृत्तियों का एक में जोड़ने का प्रयास किया।
सन 1873 में हरिश्चंद्र ने अपनी पत्रिका “हरिश्चंद्र मैगजीन” में पहली बार पुरानी परंपरागत एवं उस समय प्रचलित संस्कृत एवं फारसी शब्दों से प्रभावित हिंदी लेखन शैली से अलग मिश्रित हिंदी का प्रयोग प्रारंभ किया जिसमे खडी बोली के साथ उर्दू के प्रचलित शब्दों का प्रयोग करना शुरू किया जिसमे तत्सम और उससे निकले उनसे पहले तद्भव शब्दों का खूब प्रयोग हुआ साथ ही कठिन और अबूझ शब्दों का प्रयोग कम से कम करना शुरू किया। भाषा के इसी रूप को ‘हिंदुस्तानी शैली’ कहा गया, जिसे बाद में प्रेमचंद जैसे साहित्यकारों ने और ज्यादा परिष्कृत किया। हालांकि कविता में वे खड़ी बोली के बजाय ब्रज का ही इस्तेमाल करते थे। अल्पायु में ही उन्होंने 21 काव्य ग्रंथ, 48 प्रबंध काव्य और कई मुक्तकों की रचना की।
भारतेंदु हरिश्चंद्र के भीतर पेशेवर लेखकीय भाव कूट-कूट कर भरा हुआ था। पेशेवर का अर्थ धन कमाना नहीं बल्कि लेखन के प्रति निष्ठा,पूर्व तैयारी, लेखकों को संगठित करना़, ज्ञान की अपडेटिंग रखना, सत्य का आग्रह और ईमानदारी। भारतेन्दु के लेखन पर काशी की संस्कृति की गहरी छाप थी।
भारतेन्दु हरिश्चंद्र का जन्म एक ऐसे परिवार में जन्म हुआ था जिसका अंग्रेजों के साथ गहरा ताल्लुकात था। इनके पिता ‘बाबू गोपाल चन्द्र’ भी एक कवि थे। इनके घराने में वैभव एवं प्रतिष्ठा थी। जब इनकी अवस्था मात्र 5 वर्ष की थी, इनकी माता चल बसीं और दस वर्ष की आयु में पिता जी भी चल बसे। भारतेन्दु जी विलक्षण प्रतिभा के व्यक्ति थे। इन्होंने अपने परिस्थितियों से गम्भीर प्रेरणा ली। इनके मित्र मण्डली में बड़े-बड़े लेखक, कवि एवं विचारक थे, जिनकी बातों से ये प्रभावित थे। इनके पास विपुल धनराशि थी, जिसे इन्होंने साहित्यकारों की सहायता हेतु मुक्त हस्त से दान किया। इस संबंध को भारतेन्दु आलोचनात्मक नजरिए से देखते हुए कहते थे “इस धन ने मेरे पूर्वजों को खाया है, अब मैं इसे खाऊँगा।”
हरिश्चंद्र बाल्यकाल से ही परम उदार थे। यही कारण था कि इनकी उदारता लोगों को आकर्षित करती थी। इन्होंने विशाल वैभव एवं धनराशि को विविध संस्थाओं को दिया है। इनकी विद्वता से प्रभावित होकर ही विद्वतजनों ने इन्हें ‘भारतेन्दु’ की उपाधि प्रदान की। अपनी उच्चकोटी के लेखन कार्य के माध्यम से ये दूर-दूर तक जाने जाते थे। इनकी कृतियों का अध्ययन करने पर आभास होता है कि इनमें कवि, लेखक और नाटककार बनने की जो प्रतिभा थी, वह अदभुत थी। ये बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न साहित्यकार थे।
भारतेन्दु के बारे में सही नजरिए से बातें करने वाले कम हैं और उनके दृष्टिकोण का अनुसरण करने वाले और भी कम हैं। मसलन भारतेन्दु को देशाटन का शौक था, घूम घूमकर देश को जानने का शौक था, हिंदी के लेखक -शिक्षक देशाटन कम से कम करते हैं। देशाटन करके देश को जानना और फिर उसके अनुभवों से साहित्य को समृध्द करना, देश की जनता के वैविध्य को सामने लाना। हिन्दी में यह संयोग दुर्लभ होता जा रहा है।
यद्यपि भारतेन्दु जी विविध भाषाओं में रचनायें करते थे, किन्तु ब्रजभाषा पर इनका असाधारण अधिकार था। इस भाषा में इन्होंने अदभुत श्रृंगारिकता का परिचय दिया है। इनका साहित्य प्रेममय था, क्योंकि प्रेम को लेकर ही इन्होंने अपने ‘सप्त संग्रह’ प्रकाशित किए हैं। ‘प्रेम माधुरी’ इनकी सर्वोत्कृष्ट रचना है। कहा जाता है कि ‘अंधेर नगरी’ नाटक की रचना इन्होने एक रात्री में ही कर दिया था। ‘सुलोचना’ इनका प्रमुख आख्यान है तथा ‘बादशाह दर्पण’ इतिहास की जानकारी प्रदान करने वाला ग्रन्थ है।
जिंदगी लंबी नहीं…बड़ी होनी चाहिए…!’ फिल्म ‘आनंद’ का यह चर्चित संवाद (जीवन-दर्शन) हिंदी साहित्य के पितामह भारतेंदु हरिश्चंद्र पर भी सटीक बैठता है। उन्होंने सिर्फ 34 साल चार महीने की छोटी सी आयु में हिंदी साहित्य के क्षेत्र में अपना इतना विपुल योगदान दिया कि हैरानी होती है कि कोई इंसान इतनी छोटी सी उम्र में इतना कुछ कैसे कर सकता है। आज का हिंदी साहित्य जहां खड़ा है उसकी नींव का ज्यादातर हिस्सा भारतेंदु हरिश्चंद्र ने खड़ा किया था। वास्तव में भारतेंदु हरिश्चंद्र हिंदी साहित्य का महान ‘अनुसंधानकर्ता’ थे।
भारतेंदु सामाजिक रूप से काफी सक्रिय थे एवं सार्वजनिक कार्यक्रमों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते थे। भारतेन्दु जिंदादिल इंसान थे। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र अंतिम समय में जब बीमार थे तब लोग उनसे हालचाल पूछने आ रहे थे 6 जनवरी 1850 को सुबह बोले, “हमारे जीवन के नाटक का प्रोग्राम नित्य नया नया छप रहा है- पहले दिन ज्वर की, दूसरे दिन दर्द की तीसरे दिन खांसी की सीन हो चुकी है, देखें लास्ट नाइट कब होती है।” अपने जीवन के अंतिम समय में भी इस तरह की जिंदादिली बनाए रखना बहुत बड़ी बात है।
– नीरज कृष्ण