आलेख
भारतीय सिनेमा में महिलाओं की भूमिका- तेजस पूनिया
हिंदी साहित्य के महान साहित्यकार आचार्य शुक्ल का कहना है- “साहित्य समाज का दर्पण है।” यक़ीनन साहित्य समाज का दर्पण होता है परंतु उसी के साथ-साथ जब हम समाज के एक अन्य पहलू सिनेमा पर बहस करते हैं तो सिनेमा को भी समाज एवं साहित्य का दर्पण माना जाना चाहिए। चूँकि सिनेमा का मूल उद्देश्य जनता का मनोरंजन करना होता है। अत: साहित्यिक कृतियों के ज़रिये दर्शकों की अपेक्षाओं को पूरा करना कठिन हो जाता है। फिल्म एक ऐसा माध्यम है जो जन-जन से जुड़ा हुआ है। इसलिए फिल्मकारों ने साहित्यिक कृतियों को फिल्माने में थोड़ी बहुत छूट भी ली है लेकिन इस पक्ष का दूसरा पहलू यह भी है कि फिल्म के माध्यम से साहित्यिक रचनाओं को बड़े पैमाने पर पहचान भी मिलती रही है। भारतीय सिनेमा के एक शताब्दी वर्ष पूर्ण हो जाने के बाद इस बात का महत्व और भी अधिक बढ़ गया है।
सिनेमा हमेशा से संस्कृति का परिचायक रहा है क्योंकि सिनेमा ने संस्कृति के विषयों को उठाकर पर्दे के माध्यम से हमेशा से चित्रित किया है। इसने नए जीवन के उल्लास को और बीतते पलों को समेट पर्दे पर ज़िंदगी जीने की हमेशा कोशिश की है। इन्हीं कोशिशों में सिनेमा ने ममता, महिमा, भावनात्मक बहन, प्यारी पत्नी और जीवन को न्योछावर कर देने वाली स्त्री के चरित्र को चित्रित किया है। आजादी के 70 सालों बाद भी हम पाते हैं कि एक समतामूलक समाज बनाने में भारत की प्रगति धीमी और निराशाजनक है और महिलाओं के प्रति भेदभाव फल-फूल रहा है। तब हमें लगता है कि हम सब अपने अंदर अतीत का बोध लिए चलते हैं, जो हमने कई सालों में पौराणिक कथाओं, आम मान्यताओं, पराक्रम की गाथाओं, लोकसाहित्य तथा विचारों के मिश्रण के रूप में मिला और ये अतीत ही महिलाओं की हैसियत को लेकर हमारी समझ का आधार बना। भारतीय सिनेमा के आरंभिक दशकों में जो फिल्में बनती थीं, उनमें भारतीय संस्कृति की महक रची-बसी होती थी तथा विभिन्न आयामों से भारतीयता को उभारा जाता था। हमारी भारतीय संस्कृति मानव जाति के विकास का उच्चतम स्तर कही जा सकती है, तभी इसकी परिधि में वसुधैव कुटुम्बकम् के सारे सूत्र आ जाते हैं। जिसका परिणाम हमें समाज में तथा सिनेमा में महिलाओं की समस्याओं को दृष्टिगत रखते हुए कुछ फिल्मों का नाम याद आता है। जिनमें महिलाओं की समस्याओं को प्रदर्शित किया गया है। एक समय था जब हमारे पास देविका रानी थीं और पहली भारतीय महिला फिल्म निर्देशक फातिमा बेगम थीं, जिन्होंने ‘बुलबुल-ए-परिस्तान’ बनाई थी। दुर्गा खोटे थीं जो एक ब्राह्मण स्त्री, जिन्होंने फिल्मों में अभिनय करने का असाधारण फैसला उस समय लिया, जब उसे संदिग्ध पेशा माना जाता था। मदर इंडिया में नरगिस ने जो भूमिका निभाई, वह संभवत: भारतीय सिनेमा के इतिहास में सबसे प्रतिष्ठित महिला किरदार है, वहीं मुगले-आज़म में दूसरी यादगार महिला मधुबाला मुख्य भूमिका में थीं।
भारतीय सिनेमा के जनक दादासाहेब फाल्के को 1913 में ‘राजा हरिश्चंद्र’ में मुख्य अभिनेत्री की भूमिका के लिए एक पुरुष से संतोष करना पड़ा, क्योंकि समाज के किसी भी तबके से कोई भी स्त्री ऐसे गिरे हुए पेशे में काम करने को तैयार न थी। सिनेमा में महिलाओं की बात करें तो 30 का दशक प्रगतिशीलता का दौर था। इसके विपरीत हाल ही की फिल्मों कि बात करूं तो जिस्म, अस्तित्व , सलाम नमस्ते, चक दे इंडिया, नो वन किल्ड जेसिका, चमेली, लज्जा, चीनी कम, द डर्टी पिक्चर, कहानी, पिंक, पार्च्ड जैसी फिल्मों में औरतों को सेलेब्रेट किया गया है, मगर आगे सोचने पर ‘द डर्टी पिक्चर’ में नायिका के शराबी बन जाने और खुदकुशी कर लेने से क्या दर्शकों को उस चरित्र को पीड़ित के तौर पर देखने को नहीं कहा गया? या फिर ‘कहानी’ की नायिका को लें, जो अंत में कहती है, उसे संपूर्णता और संतुष्टि का अहसास सिर्फ उसी समय हुआ, जब वह गर्भवती होने का नाटक कर रही थी। उस सीन की कहाँ ज़रूरत थी? इसके अलावा पार्श्व में अमिताभ बच्चन की आवाज़, जिसमें उसकी तुलना दुर्गा से की जाती है- जो फिर सदियों से स्त्री पर थोपी गई पारंपरिक भूमिका है, ये उस मकाम तक खासी मजबूत और अ-स्त्रैण नजर आती नायिका के समक्ष निर्देशक द्वारा स्वयं का बचाव या बीमा था।
फिल्मों ने स्त्री जीवन के पारिवारिक और सामाजिक सवालों को ही नहीं उठाया है बल्कि राजनीतिक सवालों को भी उठाया है। उदाहरण के तौर पर स्त्री जीवन पर केंद्रित कुछ ऐसी फिल्में हैं, जिनका ज़िक्र लाज़मी है– ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’, ‘दामिनी’, ‘बेंडिट क्वीन’, ‘मम्मो’, ‘फायर’, ‘सरदारी बेगम’, ‘मृत्युदंड’, ‘गॉड मदर’, ‘हरी-भरी’, ‘गजगामिनी’, ‘अस्तित्व’, ‘जुबैदा’, ‘क्या कहना’, ‘चांदनी बार’, ‘ज़ख्म’, ‘फिज़ा’ आदि में स्त्री जीवन को महत्वपूर्ण ढंग से अभिव्यक्त किया गया है। आधी आबादी के सशक्तिकरण के बगैर समाज और देश के विकास की कोरी कल्पना ही की जा सकती है। महिलाओं का सशक्तिकरण लंबे समय से चिंता का विषय रहा है और यह आज भी समय की सबसे महत्वपूर्ण ज़रूरत बनी हुई है। यदि हम मुख्यधारा के हिंदी सिनेमा की बात करें तो शुरुआती दौर में महिलाओं को बहुत ही पारंपरिक एवं घरेलू रूप में प्रस्तुत किया गया। ‘श्री चार सौ बीस’ का यह गीत भी सिर्फ एक किरदार का परिचय नहीं बल्कि पूरे मुल्क की कहानी बयान करता है।
छोटे-से घर में ग़रीब का बेटा
मैं भी हूँ माँ के नसीब का बेटा
रंज-ओ-ग़म बचपन के साथी
आंसुओं में जली जीवन बाती।
इसी प्रकार अनेकानेक हिंदी फिल्मों में भारत के विविध स्वरूपों के तथा यथार्थ के दर्शन हमें मिलते हैं। 21वीं सदी के सिनेमा में सेक्स, किस सीन आदि आम बात है और इन सब फूहड़ता के बीच आज भी कई साहित्यिक फ़िल्में बनती तो हैं परंतु उतनी अधिक कमाई नहीं कर पातीं और ना ही ख्यातनाम हो पाती हैं। इन सबके बावजूद भी फिल्मकारों ने समय-समय पर नामी लेखकों की साहित्यिक कृत्तियों व रचनाओं को आधार बनाकर सफल फिल्मों का निर्माण किया है। भारत में समकालीन इतिहास को लेकर सिनेमा निर्माण की परंपरा नहीं रही है। जीवित किरदार, जीवंत घटनाएँ सुरक्षित सिनेमा निर्माण के लिए सही नहीं मानी जाती। जिस तरह मुक्तिबोध कहते हैं-
अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे,
तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब
शायद यही अभिव्यक्ति के खतरे हैं, जिनसे अमित सेनगुप्ता जूझते हैं; जब वे तहलका में ‘मिडिल क्लास को गुस्सा क्यों आता है’ शीर्षक से संपादकीय लिखते हैं। बहरहाल सिनेमा और साहित्य का सम्बन्ध अटूट रहा है और लगभग पूरी दुनिया में सबसे अधिक लोकप्रिय फिल्मों का एक बड़ा हिस्सा साहित्य अथवा साहित्य का आधार ही रहा है। वर्तमान में भारतीय सिनेमा में व्यावसायिक सिनेमा अपनी एक गहरी छाप छोड़ रहा है। भारतीय सिनेमा एक शताब्दी वर्ष की यात्रा पूर्ण कर चुका है, यह एक दरअस्ल चमत्कार ही था जब हिलती, डुलती, दौड़ती, कूदती तस्वीरें पहली बार पर्दे पर आई। भले ही सिनेमा और साहित्य दो पृथक विधाएँ हैं लेकिन दोनों का पारस्परिक सम्बन्ध बहुत गहरा है। जब कहानी पर आधारित फ़िल्में बनने की शुरुआत हुई तो इनका आधार साहित्य ही बना। भारत में बनने वाली पहली फीचर फिल्म दादा साहेब फाल्के ने बनाई जो भारतेन्दु हरिश्चंद्र के नाटक पर आधारित थी।
हिंदी सिनेमा को अप्रतिम ऊंचाइयों पर ले जाने वाली यों तो अनेक स्त्रियां रही हैं। जिन्होंने समय-समय आप अपनी अदाकारी का लोहा मनवाया है तथा सिनेमा में महिलाएँ कुछ नहीं कर सकती और यह उनके लिए बना ही नहीं है; इस मिथक एवं पूर्वाग्रह को उन्होंने तोड़ा। आज के दौर में सिनेमा में महिलाओं ने अपनी एक अलग पहचान बनाई है। एक नया मुकाम स्थापित किया है, जिसके कारण अब 21वीं सदी के दौर का सिनेमा धीरे-धीरे पूर्ण रूप से महिलाओं को ही केंद्र में रखकर उसे सिनेमाई पर्दे पर उतारा जा रहा है। महिलाओं पर केंद्रित कई फिल्में भी बनने लगीं। कांस फिल्मोत्सव की जान एवं उसकी ज्यूरी की सदस्य एवं अंतरराष्ट्रीय अम्बेस्डर तथा ओपरा द्वारा विश्व की सबसे सुंदर महिला खिताब जीतने वाली एवं मैडम तुसाद संग्रहालय में मोम की प्रतिमूर्ति स्थापित होने का गौरव प्राप्त करने वाली अप्रतिम सौंदर्य की मल्लिका भी हमारे भारतीय सिनेमा की ही देन है ऐश्वर्य राय। कपूर खानदान को कैसे भुलाया जा सकता है। जिसके बिना सिनेमा बिल्कुल अधूरा-सा प्रतीत होता है। जैसे राजनीति में गाँधी परिवार का योगदान है, वैसे ही सिनेमा में कपूर खानदान का नाम तथा योगदान है। कपूर खानदान की चौथी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करने वाली करिश्मा कपूर ने हिंदी फिल्मों में न केवल एक सफल अभिनेत्री के रूप में अपनी पहचान दर्ज कराई बल्कि समय-समय पर आलोचकों की प्रशंसा भी बटोरी। करिश्मा, कपूर खानदान की पहली बेटी है, जिसने सामाजिक दायरे की चौखट से बाहर कदम रख सिनेमा को अपना भविष्य बनाया और एक सफल अभिनेत्री के रूप में मुकाम हासिल किया। करीना कपूर अभिनेता और फ़िल्म निर्माता राजकपूर की पोती और पृथ्वीराज कपूर की परपोती हैं तथा प्यार से पूरे भारत में एवं सिनेमा जगत् में बेबो के नाम से ख्याति प्राप्त करीना आज सबके दिलों की धड़कन हैं। फ़िल्म फेयर स्पेशल परफॉर्मेंस अवार्ड (फिल्म फेयर विशिष्ट प्रदर्शन पुरूस्कार) ‘चमेली’ फिल्म के लिए तथा इसके अलावा भी कई अन्य फिल्मों में अपने शानदार अभिनय के लिए कई बार सराही तथा सम्मानित की गई है।
इसके अलावा फ़िल्म उद्योग के सबसे प्रभावशाली व्यक्ति एवं एंग्री यंग मैन के नाम से मशहूर बिग बॉस अमिताभ बच्चन की धर्मपत्नी जया भादुड़ी हिंदी सिनेमा की लोकप्रिय अभिनेत्रियों में से एक है। अमिताभ बच्चन के साथ अभिमान, शोले, ज़ंजीर, मिली और सिलसिला जैसी फिल्मों में एक साथ काम करने वाली इस कलाकार को सिनेमा में योगदान के लिए पदम् श्री, यश भारती आदि जैसे सम्मानों से भी समानित किया जा चुका है। फिल्म ‘कोरा कागज’ के लिए फिल्म फेयर का बेस्ट एक्ट्रेस अवार्ड, फिल्म फेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड के अलावा समाजवादी पार्टी की सदस्य राज्यसभा की सांसद भी रह चुकी हैं। ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ में हिप्पी की भूमिका और कुर्बानी में नाइट क्लब डांसर से लेकर ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ में सेक्सी देहाती बाला की भूमिका निभाने वाली जीनत अमान को कैसे भुलाया जा सकता है। भारतीय सिनेमा में पश्चिमी रूप, रंग एवं शैली की अभिनेत्री की भूमिका की शुरुआत करने का गौरव तथा फेमिना जैसी मैग्जीन के लिए पत्रकारिता करने का गौरव भी इन्हें हासिल है। 70 के दशक में मिस इंडिया प्रतियोगिता में तीसरा स्थान, 71 में मिस एशिया बनने वाली जीनत फिल्मों में आने से पहले रैंप पर सनसनी मचाया करती थीं। देविका रानी के अपूर्व योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। भारतीय सिनेमा का विकास उस दौर में इन्होंने किया, जब महिलाएँ घर की चारदीवारी के भीतर भी घूँघट में मुँह छुपाए रहती थीं। हिंदी सिनेमा की पहली स्वप्न सुंदरी और ड्रेगन लेडी जैसे विश्लेषणों से अलंकृत देविका को उनकी खूबसूरती, शालीनता धाराप्रवाह अंग्रेजी और अभिनय कौशल के लिए विश्व स्तर पर जितनी लोकप्रियता और सराहना मिली उतनी कम ही अभिनेत्रियों को नसीब हो पाती है। ब्रिटेन के अखबार उस समय उनकी तारीफों से अटे पड़े रहते थे। लन्दन के एक समाचार पत्र ‘द स्टार’ ने उनकी तारीफ में लिखा था। “आप सुश्री देविका रानी की अंग्रेजी सुनिए, आपने कभी इतनी सुरीली आवाज़ नहीं सुनी होगी और न ही इतना खूबसूरत चेहरा देखा होगा। उनकी अद्वितीय खूबसूरती पूरे लंदन को चकाचौंध कर देगी। पदम् श्री सम्मानित एवं सबसे पहले दादा साहेब फाल्के पुरूस्कार प्राप्त यह कलाकार लंबे समय तक याद की जाएँगी।
प्रियंका चोपड़ा की गिनती आज अपने फिल्मी सफर के शुरुआत में ही फिल्म ऐतराज़ में नकारात्मक भूमिका निभाकर फ़िल्मी पंडितों को चौंक़ाकर टॉप हीरोइनों में की जाती है। इस विश्व सुंदरी का सिनेमाई सफर आज उफान पर है और भारतीय सिनेमा से इतर विश्व के सिनेमा, जिसे हम हॉलीवुड के नाम से जानते हैं, तक अपनी पहुँच बनाने में कामयाब हुई हैं। अप्रतिम सौंदर्य की प्रतिमूर्ति और अपनी मनमोहक मुस्कान और दैवीय सुंदरता की बदौलत पूर्व की वीनस कहलाने वाली मधुबाला का मूल नाम मुमताज़ बेगम देहलवी था। बेबी मुमताज़ के रूप सौंदर्य को देखकर मुग्ध हो अभिनेत्री देविका रानी ने उन्हें मधुबाला नाम दिया। महज 36 वर्ष की आयु तक लगभग 70 फिल्मों में काम करने वाली इस अभिनेत्री की कुछ फ़िल्में ऐसी हैं, जिन्हें देख कभी भी बोरियत महसूस नहीं होती। जैसे की अमर प्रेम, महल, चलती का नाम गाड़ी, हावड़ा ब्रिज, इंसान जाग उठा, हाफ टिकट और सबसे ज्यादा ख्याति प्राप्त मुगल-ए-आज़म। ट्रेजेडी क्वीन के नाम मशहूर मीना कुमारी को कौन भुला सकता है! इनका जादू आज भी लोगों के सर चढ़कर बोलता है। ‘साहब बीबी और गुलाम’ तथा ‘पाकीज़ा’ के गीत ‘न जाओ सैयां छुड़ा के बय्यां, कसम तुम्हारी मैं रो पड़ूँगी’ अथवा ‘यूँ ही कोई मिल गया था सरे राह चलते चलते’। इन दोनों गीतों से उनके दो रूप आँखों के सामने आ जाते हैं। इनकी यादगार फिल्मों में आज़ाद, दिल अपना और प्रीत पराई, आरती, दिल एक मंदिर, फूल और पत्थर और काजल जैसी बेहतरीन फ़िल्में हैं। पाकीज़ा अंतिम फिल्मों में से एक जिसकी अद्भुत सफलता के पीछे इनकी बेवक्त मौत की वजह थी। फिल्मों को लेकर सत्यजीत रे कहते हैं “फ़िल्म छवि है, फिल्म शब्द है, फिल्म गति है, फिल्म नाटक है, फिल्म कहानी है, फिल्म संगीत है, फिल्म में मुश्किल से एक मिनट का टुकड़ा भी इन बातों का साक्ष्य दिखा सकता है।” इसके इतर वर्तमान की फिल्मों में महिलाओं की भूमिका को देखा जाए तो सिनेमा के शुरूआती दौर की फिल्मों की बनिस्बत आज उनका रूप तथा भूमिका वाकई मुखर हुई है। इसका उदाहरण हम 21वीं सदी की वर्तमान की कुछ फिल्मों में देख सकते हैं। उदाहरण के रूप में एन. एच.10, पिंक, पार्च्ड, अकीरा, बेगम जान, नूर, लिपस्टिक अंडर माई बुरखा, मार्गरेटा विद अ स्ट्रो आदि को लिया जा सकता है।
संदर्भ सूचि-
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2. सिनेमा और संस्कृति; डॉ. राही मासूम रजा; संपादन एवं संकलन प्रो. कुंवरपाल सिंह; वाणी प्रकाशन; आवृति 2011
3. भारतीय सिने सिद्धान्त; डॉ. अनुपम ओझा; पहली आवृति; 2009 राधा कृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड नई दिल्ली
4. सिनेमा: फिल्मों में साहित्य गूंथने की कला का जानकार रितुपर्णो घोष; निकिता जैन
5. अपनी माटी पत्रिका, अक्टूबर-दिसम्बर 2014; अंक 16
6. हिंदी सिनेमा बीसवीं से इक्कीसवीं सदी तक; सत्यजीत रे
7. हिंदी समय वेबसाइट- महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा;
8. सिनेमा, साहित्य और हिंदी; दैनिक जागरण; 22 जुलाई 2016
9. साहित्य और सिनेमा: भूमिकाओं का उलटफेर; दैनिक भास्कर 17 मई 2016
10. साहित्य और सिनेमा; दैनिक जागरण पत्रिका; डॉ पुनीत बिसारिया 16 जून 2015
11. पारख, जे. (2011). भूमंडलीकरण के दौर में. समयांतर. फरवरी, पृ.70
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13. पारख, जवरीमल्ल, हिन्दी सिनेमा का समाजशास्त्र, ग्रंथ शिल्पी, दिल्ली, पृ.`-173
14. 27 नवंबर 2013 को द्वारा दिया गया जस्टिस सुनंदा भंडारे स्मृति व्याख्यान ‘रिप्रेजेंटेशन ऑफ वीमेन इन
15. इडियन सिनेमा एंड बियोंड’ (भारतीय सिनेमा और उस से परे महिलाओं का निरूपण)
16. नीरज दुबे. फरवरी 15, 2001, सिनेमा, संस्कृति और नारी
– तेजस पूनिया