आलेख/विमर्श
भारतीय मुक्ति-संग्राम में प्रेमचंद साहित्य का योगदान
– नीरज कृष्ण
किसी काल-विशेष के साहित्य में उस युग की विशेषताएँ प्रतिबिंबित होती रहती है। उसमें मूल मानवीय प्रवृत्ति और जातीय सांस्कृतिक स्थितियों एवं सामाजिक-राजनीतिक संघर्षों के चित्र भी देखे जा सकते हैं। यदि साहित्य समाज का दर्पण है तो इसमें देश तथा समाज की राजनीतिक स्थिति का विवरण, विवेचना तथा आलोचना रहेगी ही ऐसा इतिहासकारों का मानना है।
पूर्व में भी वाल्मीकि लिखित ‘रामायण’, महर्षि वेदव्यास लिखित ‘महाभारत’, गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लिखित ‘रामचरित मानस’, कालिदास द्वारा रचित ‘मानविकाग्निमित्र’, विशाखदत्त रचित ‘मुद्राराक्षस’ जैसे कई महत्वपूर्ण ग्रंथों में तत्कालीन राजनीतिक और ऐतिहासिक स्थिति का बड़ा ही यथार्थ वर्णन हुआ है। साहित्य में राजनीतिक और ऐतिहासिक घटनाओं के चित्रण से जन-जन में राष्ट्रीय चेतना जागृत होती है।
भारतीय मुक्ति संग्राम के काल में प्रेमचन्द ने भी राष्ट्रीयता की भावना को अपनी लेखनी के द्वारा जगाने का कार्य किया है।
प्रेमचन्द एक उच्च कोटि के कथाकार माने जाते हैं। उन्होंने अपने संपूर्ण साहित्य की रचना भारतीय मुक्ति-संग्राम के दौर में की। आजादी का संघर्ष जैसे जैसे तीव्र से तीव्रतर होता गया वैसे-वैसे उनके विचार भी परिवर्तित होते गए और उनकी तुलिका का तेवर भी बदलता गया। टाँसटाप की भांति ही उन्होंने अपने कथा-साहित्य के केन्द्र में देश के प्रमुख मुक्ति संग्राम को रखा। यही कारण है कि उनके प्रायः उपन्यासों और अधिकतर कहानियों में किसी न किसी रूप में भारतीय मुक्ति-संग्राम की झलक मिलती है।
अंग्रेजों की दासता का दंश झेलने वाले भारतीयों के समक्ष अनेक प्रकार की कठिनाइयाँ थी। अंग्रेजों द्वारा उन पर तरह-तरह के दमन चक्र चलाये जा रहे थे। किसानों, मजदूरों की और अधिक बुरी स्थिति थी। महाजन लोग बुरी तरह उनका शोषण कर रहे थे। सूद, लगान, नजराना के चलते उनका जीवन अत्यंत ही नारकीय हो चला था। जमींदारों, उनके कारिन्दों, पुलिस, दारोगा, अफसर, सूदखोर, महाजनों सबके द्वारा किये गये अत्याचारों के कारण उन्होंने उनका जीवन दूभर हो गया था। यह सब देख प्रेमचन्द का भावुक हृदय अत्यंत ही आंदोलित हो उठा था। तभी तो उनके साहित्य में इन सबका बड़ा ही स्वाभाविक और सजीव चित्रांकन हुआ है। गाँव की जनता से उनका बड़ा ही गहरा लगाव था, विशेषतः मेहनतकश किसानों और मजदूरों के प्रति उनके हृदय में बड़ी ही अधिक सहानुभूति थी। यही कारण है कि स्वतंत्रता आंदोलन के बुजुर्धा नेतृत्व की तुलना में लोकतांत्रिक मूल्यों की उनको परिकल्पना कहीं अधिक पैनी थी। यह कारण है कि इन सबके अंकन में उन्हें बहुत अधिक सफलता मिली है। मुंशी प्रेमचन्द के कथा साहित्य में आये अनेक प्रसंगों, वातावरण और कथोपकथनों में मुक्ति संग्राम की जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष झलक दृष्टिगोचर होती है उससे प्रेरित होकर बहुत अधिक संख्या में लोग स्वातंत्र्य-संग्राम में कूद पड़े।
जिन दिनों संपूर्ण यूरोप में महायुद्ध की तैयारी जोर-शोर से चल रही थी, उन्हीं दिनों प्रेमचन्द ने लेखक नवाब राय के नाम से ‘सोजे-वतन’ कहानी संग्रह का प्रकाशन कराया। सन् 1907 ई. में प्रकाशित इस कहानी संग्रह में पाँच कहानियाँ थी। ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’, ‘शेख महमूद’, ‘यही मेरा वतन है’, ‘शोक का पुरस्कार’ तथा ‘सांसारिक प्रेम’ और ‘देश प्रेम’ इन कहानियों में निहित राष्ट्रीय भावना से अंग्रेज शासक तिलमिला उठे। उन्हें यह लगा कि इसका प्रभाव भारत में व्यापक पडेगा तथा यहाँ की जनता भी स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए विद्रोह कर सकती है। कहानी संग्रह ‘सोज-वतन’ की प्रतियाँ जब्त कर ली गयी और इसके लेखक को कड़ी चेतावनी देकर छोड़ दिया गया। इससे प्रेमचन्द को बड़ी हताशा हुई। मगर मुंशी दयानारायण निगम ने उन्हें अब ‘प्रेमचन्द’ नाम से अपनी रचना करने को कहा और नवाब राय अब सदा-सदा के लिए प्रेमचन्द बन गए।
जिस समय प्रेमचन्द अपने साहित्य की रचना कर रहे थे उस समय देशवासियों में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए कुलबुलाहट थी। चाहकर भी देशवासियों को सफलता नहीं मिली। कारण मुक्ति संग्राम में समस्त देश के नागरिकों की सहभागिता या भूमिका नहीं थी। 1857 की क्रांति की असफलता से लोग मायूस हो गये थे। कालांतर में राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना ने लोगों को जगाने का कार्य प्रारंभ किया। गांधी जी के आगमन के पश्चात् तो मुक्ति-संग्राम का स्वरुप व्यापक हो गया। गांधी ने सभी को इससे जोड़ने का प्रयास किया। प्रेमचन्द ने दो विश्व-युद्धों के बीच चलने वाले राष्ट्रीय आन्दोलनों की झलक अपने विभिन्न उपन्यासों में दिखलाई है। उन्होंने अपने उपन्यासों के पात्रों के माध्यम से भारतीय जनता को यह संदेश दिया कि वह लाठी, गोली, डंडे आदि की परवाह न कर निर्भीकतापूर्वक मुक्ति-संग्राम में डटे रहें।
प्रेमचन्द ने सबसे बड़ा काम यह किया कि उन्होंने उपन्यास को जासूसी और तिलस्मी कटघरे से निकालकर जीवन के ठोस धरातल पर प्रतिष्ठित किया। उन्होंने अपने कथा-साहित्य में देवी- देवताओं और भूत-प्रेतों को स्थान न देकर, राजा-रानियों को स्थान न देकर समाज के दलितो, पतितों भिखारियों, अनाथों, किसानों-मजदूरों और कामगार स्त्रियों को प्रतिष्ठित किया। शहर गाँव की ओर अग्रसर हुए और गाँव ने शहर का स्वागत किया। प्रेमचन्द के कथा-साहित्य के अध्ययन से विदित होता है कि उन्होंने जान-बूझकर अपनी विभिन्न कहानियों और अपने विभिन्न उपन्यासों में ऐसे-ऐसे प्रसंगों को उद्भावना की है जिनसे भारतीय जनता में स्वाभिमान की भावना जाग्रत हो सके और उनमें राष्ट्रभक्ति की भावना का उद्रेदीकरण हो सके।
प्रायः साहित्य इतिहास और राजनीति से प्रभावित होता है, मगर साहित्य से इतिहास और राजनीति प्रभावित हो जाय पर कुछ विचित्र सा मालूम पड़ता है। मगर इसमें कोई आश्चर्य नहीं क्योंकि अपने कथा-साहित्य के माध्यम से प्रेमचन्द ने ऐसा कर दिखाया है। प्रेमचन्द के साहित्य पर भी उनके युग का प्रभाव दिखता है। उनके साहित्य का भी प्रभाव युग पर पड़ा जिससे भारतीय मुक्ति-संग्राम को काफी बल मिला। इस साहित्य को स्वयं महात्मा गांधी ने भी स्वीकारा है – “मुंशी जी की लेखनी से आजादी की लड़ाई को एक नयी गति और दिशा मिली हैं। उनकी कहानियों ने भारत की गुलाम जनता को आजादी के लिए जगाया है।“
प्रेमचंद इस बात को अच्छी तरह समझ चुके थे कि समाज सुधार के बिना स्वतंत्रता प्राप्ति का स्वप्न ही व्यर्थ है। उन्होंने मध्य वर्गीय और निम्न वर्गीय समाज में ऐसे गुण देखे जिनके बिना समाज में परिवर्तन लाया ही सा नहीं जा सकता। उन्होंने ऐसे गुणों से युक्त पात्रों को जान बूझकर अपने उपन्यासों और कहानियों का पात्र बनाया, क्योंकि उन पात्रों की ऐतिहासिक भूमिका को उन्होंने पहचाना था। जनतंत्र की उठती आंधी को देखते हुए प्रेमचन्द ने जमींदारों और पूंजीपतियों को अपने में सुधार लाने की सलाह दी जिससे शोषक और शोषित वर्ग के बीच की खाई पाटी जा सके तथा समाज में ऊँच-नीच का भाव मिट सके।
प्रेमचन्द्र की राष्ट्रपिता गांधी से मुलाकात 1920 में होती है तथा उनके आरंभिक उपन्यासों और कहानियों पर गांधी की राजनीति का प्रभाव दिखता है। कर्मभूमि, प्रेमाश्रम और रंगभूमि में औपनिवेशिक गांवो के प्रति गांधीजी के मानवीय दृष्टिकोण की ओर संकेत किया गया है। घोर बाद के उपन्यासों ‘कायाकल्प’, ‘गोदान’ आदि में तथा कहानियों में साम्यवादी से व्यवस्था का समर्पण दिख पड़ता है। प्रेमचन्द का साहित्य विभिन्न काल चरणों की सुदीले यात्रा का प्रतिफल है और यही यात्रा भारतीय मुक्ति-संघर्ष की भी यात्रा है।
प्रेमचन्द ने मुक्ति आंदोलन में क्रांतिकारी मोड़ की आवश्यकता भी महसूस की थी, इसीलिए यदा-कदा उनके विचार गांधीजी के विचार से मेल नहीं खाते थे। सरकारी नौकरी के जमाने में उन्होंने अपने घर में खुदीराम बोस का चित्र लगा रखा था। मगर उग्रपंथी आतंकवाद में उनका विश्वास नहीं था। मुक्ति–संग्राम के लिए उन्होंने वर्गीय संगठन पर अधिक जोर दिया था इसीलिए उन्होंने इस प्रकार की प्रतिगामी, राष्ट्रविरोधी, संकीर्णतावादी और कुत्सित विचारधारा का जोरदार विरोध किया। उन्होंने मध्यवर्गीय तथा निम्नवर्गीय किसानों और मजदूरों के महत्व से लोगों को परिचित कराया और प्राचीन मिथकों को तोड़ने का प्रयास किया। उन्होंने पूंजीवाद और हिंसा के वीभत्स रूप को देखते हुए अपने द्वारा संपादित ‘हंस’ पत्रिका के अक्टूबर-नवम्बर ( 1932) के अंत में लिखा था कि समय बदल रहा है और अब अधिक शोषण की गुंजाइश नहीं है। यही कारण है कि यथार्थ की गहरी पकड़ ने अविचलित अवस्था दी और उन्हें कलम का सिपाही तथा मेहनतकशों का पक्षधर बना दिया। प्रेमचन्द का जीवन संघर्ष हमारी आजादी का संघर्ष है। उन्होंने भारतीय जीवन के उन सभी पहलुओं पर विचार किया। जो हमारे मुक्ति-संग्राम के मार्ग में बाधक थे।
प्रेमचन्द्र का काल संक्रांति का काल था। परतंत्र भारत में सबसे बुरी स्थिति मजदूरों और किसानों की थी क्योंकि महाजनों द्वारा सर्वाधिक शोषण उन्हीं वर्गों का हो रहा था। सरकारी अधिकारियों द्वारा भी उन्हीं पर सबसे अधिक अत्याचार किये जा रहे थे। प्रेमचन्द लिखित ‘गोदान’ उपन्यास में महाजनों का एक बड़ा दल दिखाई पड़ता है। मंगरू साह, झिंगुरी सिंह, दुलारी सहुआइन लाला पटेश्वरी, दातादीन आदि ऐसे ही महाजन हैं।
प्रसिद्ध इतिहासकार रजनी पाल दत्त ने महाजनों के कारनामों की जो विशेषताएँ बताई है वे सभी विशेषताएँ ‘गोदान’ के महाजनों में देखी जा सकती है। ‘कर्मभूमि’ उपन्यास इसका अच्छा उदाहरण है। कर्मभूमि उपन्यास के अंतर्गत मुक्ति संग्राम के क्रम में होने वाले ‘गांधी इरविन पैक्ट’ की समझौतावादी नीति का भी चित्रण हुआ है। ‘प्रेमाश्रम’, ‘सेवा सदन’, रंगभूमि, कायाकल्प, ‘गवन’ ने निश्चित रूप से राष्ट्रीय आंदोलन को प्रभावित किया। एक तरफ जमींदार – महाजन तो दूसरी तरफ किसान-जनता के मध्य जो तनाव था उसका सही चित्रण कर प्रेमचन्द्र ने भारतीय मुक्ति संग्राम को विभिन्न स्वरूपों में प्रभावित किया।
प्रेमचंद ने अपनी विभिन्न कहानियों के माध्यम से किसानों की समस्याएँ उजागर की हैं। ‘पूस की रात’, ‘जुनूस’ ऐसी ही कहानियाँ हैं। प्रेमचन्द ने अपने अधिकतर कहानियों में अन्य वर्गों के चित्रण के साथ-साथ दलित और शोषित वर्ग का भी चित्रण बड़ी ईमानदारी के साथ किया है। ‘हंस’ तथा ‘माधुरी’ पत्रिकाओं में प्रकाशित उनके अनेक निबंधों में भी दलित समस्याओं की राष्ट्रीय राजनीति की झलक मिलती है। दलित समस्या की राष्ट्रीय राजनीति के प्रति महात्मा गांधी का जो दृष्टिकोण था, वही दृष्टिकोण लगभग प्रेमचन्द का था।
प्रेमचन्द की अनेक कहानियों में भी दलित वर्ग की स्थिति और उनकी समस्याएँ देखने को मिलती हैं। ‘ठाकुर का कुआँ,’ ‘सद्गति,’ ‘सवा सेर गेहूँ,’ कहानियाँ इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। प्रेमचन्द अपनी रचनाओं द्वारा दलितों की समस्याओं का ऐसा निदान प्रस्तुत करना चाह रहे थे जिससे संघर्ष तो निरंतर चलता ही रहे और वह संघर्ष ‘मानवतावाद’ पर आधारित हो।
प्रेमचंद ने नारियों के दृष्टिकोण बदलने का आह्वान किया ताकि मुक्ति-संग्राम में नारी की भूमिका सबल हो सके। कर्मभूमि उपन्यास की मुन्नी को मुक्ति संग्राम में भाग लेने के कारण अंग्रेज पुलिस ने उसकी प्रतिष्ठा के साथ खिलवाड़ किया था और पीटा भी था। कर्मभूमि में नैना एक ऐसी ही सजग स्त्री पात्र हैं जो राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम में बड़ी तत्परता के साथ भाग लेती वह आंदोलन का नेतृत्व करती है। उसका पति जो पाशविक प्रवृति वाला तथा क्रूर है उस पर गोली चलाकर उसे मार देता है। मुक्ति संग्राम में नैना का यह बलिदान अवश्य ही प्रशंसनीय और प्रेरणास्पद है। इसी प्रकार से सेवा-सदन की नायिका सुमन तथा गबन में जालपा की भूमिका निश्चित रूप से प्रेरणा का स्रोत है। प्रेमचन्द्र के विभिन्न उपन्यासों में अनेक नारियाँ हैं जिनका मुक्ति संग्राम में योगदान को विस्मंत नहीं किया जा सकता है।
‘सोजे-वतन’, ‘समर पाता’, ‘सुहाग की साड़ी’, ‘रंगभूमि’, ‘जुलूस’, ‘होली का उपहार’, ‘आहूति’, ‘भाड़े का टट्टू’ कहानियों में भी नारियों की सहभागिता मुक्ति संग्राम में दिखाई पड़ती है। वस्तुतः भारतीय मुक्ति संग्राम में प्रेमचन्द के साहित्य का बड़ा ही व्यापक प्रभाव पड़ा। इनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है।
– नीरज कृष्ण