स्मृति
जाने माने साहित्यकार और पूर्व सांसद आदरणीय बालकवि बैरागी जी का जन्म मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले की मनासा तहसील के रामपुरा गाँव में 10 फरवरी 1931 को हुआ था। उनके जन्म का नाम नंदराम दास बैरागी था। 1952 में कैलाशनाथ काटजू जी ने मनासा में एक चुनावी सभा में इनके गीत सुन कर ‘बालकवि’ नाम दे दिया, उसी दिन से नंदराम दास बैरागी ‘बालकवि बैरागी’ बनकर पहचाने जाने लगे। बैरागी जी ने विक्रम विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. किया था। उन्होंने राजनीति में भी अहम भूमिका निभाई और हिंदी फिल्मों में 25 से ज्यादा गानें लिखे हैं।
गीत, दरद दीवानी, दो टूक, भावी रक्षक देश के, आओ बच्चों, गाओ बच्चों आदि उनकी कुछ प्रमुख कृतियाँ थीं। इनकी मृत्यु 13 मई 2018 को इनके गृह नगर मनासा में हुई।
‘हस्ताक्षर’ परिवार की ओर से श्री बालकवि बैरागी जी को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि।
बैरागी जी की कविताएँ –
सारा देश हमारा
केरल से कारगिल घाटी तक
गोहाटी से चौपाटी तक
सारा देश हमारा
जीना हो तो मरना सीखो
गूंज उठे यह नारा
सारा देश हमारा
केरल से कारगिल घाटी तक…
लगता है ताजे कोल्हू पर जमी हुई है काई
लगता है फिर भटक गई है भारत की तरुणाई
कोई चीरो ओ रणधीरो !
ओ जननी के भाग्य लकीरों !
बलिदानों का पुण्य मुहूरत आता नहीं दुबारा
जीना हो तो मरना सीखो गूंज उठे यह नारा
सारा देश हमारा
केरल से कारगिल घाटी तक…
घायल अपना ताजमहल है ,घायल गंगा मैया
टूट रहे हैं तूफानों में नैया और खेवैया
तुम नैया के पाल बदल दो
तूफानों की चाल बदल दो
हर आंधी का उतार हो तुम,तुमने नहीं विचारा
जीना हो तो मरना सीखो गूंज उठे यह नारा
सारा देश हमारा
केरल से कारगिल घाटी तक…
कहीं तुम्हें परवत लड़वा दे ,कहीं लड़ा दे पानी
भाषा के नारों में गम है ,मन की मीठी वाणी
आग दो इन नारों में
इज्ज़त आ गई बाजारों में
कब जागेंगे सोये सूरज ! कब होगा उजियारा
जीना हो तो मरना सीखो गूंज उठे यह नारा
सारा देश हमारा
केरल से कारगिल घाटी तक…
संकट अपना बाल सखा है इसको कंठ लगाओ
क्या बैठे हो न्यारे-न्यारे मिलकर बोझ उठाओ
भाग्य भरोसा कायरता है
कर्मठ देश कहाँ मरता है
सोचो तुमने इतने दिन में कितनी बार हुंकारा
जीना हो तो मरना सीखो गूंज उठे यह नारा
सारा देश हमारा
केरल से कारगिल घाटी तक…
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अपनी गंध नहीं बेचूँगा
चाहे सभी सुमन बिक जाएं
चाहे ये उपवन बिक जाएं
चाहे सौ फागुन बिक जाएं
पर मैं गंध नहीं बेचूँगा- अपनी गंध नहीं बेचूँगा
जिस डाली ने गोद खिलाया जिस कोंपल ने दी अरुणाई
लक्षमन जैसी चौकी देकर जिन कांटों ने जान बचाई
इनको पहिला हक आता है चाहे मुझको नोचें तोडें
चाहे जिस मालिन से मेरी पांखुरियों के रिश्ते जोडें
ओ मुझ पर मंडरानेवालों
मेरा मोल लगानेवालों
जो मेरा संस्कार बन गई वो सौगंध नहीं बेचूँगा
अपनी गंध नहीं बेचूँगा- चाहे सभी सुमन बिक जाएं।
मौसम से क्या लेना मुझको ये तो आएगा-जाएगा
दाता होगा तो दे देगा खाता होगा तो खाएगा
कोमल भंवरों के सुर सरगम पतझारों का रोना-धोना
मुझ पर क्या अंतर लाएगा पिचकारी का जादू-टोना
ओ नीलम लगानेवालों
पल-पल दाम बढानेवालों
मैंने जो कर लिया स्वयं से वो अनुबंध नहीं बेचूँगा
अपनी गंध नहीं बेचूँगा- चाहे सभी सुमन बिक जाएं।
मुझको मेरा अंत पता है पंखुरी-पंखुरी झर जाऊंगा
लेकिन पहिले पवन-परी संग एक-एक के घर जाऊंगा
भूल-चूक की माफी लेगी सबसे मेरी गंध कुमारी
उस दिन ये मंडी समझेगी किसको कहते हैं खुद्दारी
बिकने से बेहतर मर जाऊं अपनी माटी में झर जाऊं
मन ने तन पर लगा दिया जो वो प्रतिबंध नहीं बेचूंगा
अपनी गंध नहीं बेचूंगा- चाहे सभी सुमन बिक जाएं।
मुझसे ज्यादा अहं भरी है ये मेरी सौरभ अलबेली
नहीं छूटती इस पगली से नीलगगन की खुली हवेली
सूरज जिसका सर सहलाए उसके सर को नीचा कर दूं?
ओ प्रबंध के विक्रेताओं
महाकाव्य के ओ क्रेताओं
ये व्यापार तुम्हीं को शुभ हो मुक्तक छंद नहीं बेचूँगा
अपनी गंध नहीं बेचूँगा- चाहे सभी सुमन बिक जाएं
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झर गये पात
झर गये पात
बिसर गई टहनी
करुण कथा जग से क्या कहनी ?
नव कोंपल के आते-आते
टूट गये सब के सब नाते
राम करे इस नव पल्लव को
पड़े नहीं यह पीड़ा सहनी
झर गये पात
बिसर गई टहनी
करुण कथा जग से क्या कहनी ?
कहीं रंग है, कहीं राग है
कहीं चंग है, कहीं फ़ाग है
और धूसरित पात नाथ को
टुक-टुक देखे शाख विरहनी
झर गये पात
बिसर गई टहनी
करुण कथा जग से क्या कहनी ?
पवन पाश में पड़े पात ये
जनम-मरण में रहे साथ ये
“वृन्दावन” की श्लथ बाहों में
समा गई ऋतु की “मृगनयनी”
झर गये पात
बिसर गई टहनी
करुण कथा जग से क्या कहनी ?
– बालकवि बैरागी