उभरते स्वर
बेशरम का फूल
माली नहीं, मालिक नहीं
खिला है, अपने दम पर
जिया है, सदा अपनी ही शर्तों पर
प्रसिद्ध न हो सका, तो क्या?
पर सिद्ध हूँ
देव चरणों में स्थान न मिला
प्रेमी ने प्रेमिका के लिए मुझे न चुना
पर मैं शुद्ध हूँ,
अपने चिंतन में प्रबुद्ध हूँ
मैं बेशरम का फूल हूँ
संघर्षरत रहा हूँ, रहूँगा
न चाटुकारिता की, देव-देवियों की
न ही दानव से डरूँगा
संघर्षरत रहा हूँ, रहूँगा
संघर्ष वो आग है,
संघर्ष ही कुंभ है, प्रयाग है,
हित है, त्याग है
प्रसिद्ध न हो सका तो क्या?
विचार शील हूँ, सिद्ध हूँ,
झूठे रीति-रिवाज़ों से क्रुद्ध हूँ
प्रबुद्ध हूँ ,
एक संघर्षरत युद्ध हूँ,
तिरस्कृत है मेरा इतिहास
पर मैं अपने आप में पुरस्कृत हूँ
मैं बेशरम का फूल हूँ
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बूँद
बूँदा-बाँदी, चाँद-चाँदनी,
राग-रागिनी, सब में तुम हो
खोये से हो ,कहाँ गुम हो?
कोपल कोमल में निखार-सा
हरी-भरी पत्तियों पे श्रृंगार-सा
अधरों से लिपटकर
कभी ओस की बूँद बनकर
कभी बुलबुले की तरह जीऊँ
कहाँ से रस लाऊँ?
वह नाद, वह स्वाद, कहाँ से पाऊँ?
नदी के मीठे जल में, मरुस्थल के सूखे स्थल में,
समुद्र के तल में या, गर्भ के अतल में,
छोटी हूँ, अस्तित्वहीन, खुद में लीन
कई बार यूँ ही मिट गई, कृपण बनकर
अब मिलना चाहूँ तुम संग अर्पण बनकर ,
समाहित हो, प्रवाहित हो, जीवन पाऊँ
बिखरकर अल्प , समाकर कल्प बन जाऊँ
शून्य है, शून्य में ही अंत हो जाए,
बूँद है, सागर से मिलकर अनंत हो जाए
बूँद है नन्ही कोई
– दोलन राय