उभरते-स्वर
बुढ़ापे की कराह
सौंदर्य खो रहा हूँ
मन मार जी रहा हूँ
कमज़ोरियाँ बहुत हैं
आँसू बहा रहा हूँ।
तराशा जिसे जन्म से
उपदेश सुन रहा हूँ
जिस अन्न को उगाया
उसको तरस रहा हूँ।
जिसमें गयी जवानी
उससे ही घुट रहा हूँ
तक़दीर था बनाया
उस पर ही रो रहा हूँ।
जिसको उठाया गिरकर
उससे ही गिर रहा हूँ
रिश्तों से चोट खाकर
रिश्ता बचा रह हूँ।
सम्मान की जगह
अपमान सह रहा हूँ
हक़ीकत की चोट खाकर
अक़ीदा बदल रहा हूँ।
जिस रास्ते चला था
काँटा हटा रहा हूँ
संघर्ष से शुरू था
संघर्ष कर रहा हूँ।।
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नैतिकता का देवदूत
क़लम के दुकान पर मजमा देख रुका
एक महाशय से चुटकी लेते हुए पूछा-
“सभी क़लम के सिपाही बनना चाहते हैं?”
महाशय ने जवाब दिया- “जी नहीं जनाब!
बस आलीशान महल की तमन्ना लिए
ईंट, रेत और सीमेंट बनकर
अस्तित्व की सार्थकता को
कर्तव्यों की आधार शिला पर
मातृत्व-पितृत्व के प्रकाशपुंज से
क़लम रूपी हल चलाकर
संतान को बंजर से उपजाऊ बनाने का
निःसंदेह प्रयास कर रहे हैं,
नैतिकता का देवदूत बनाकर
क़लम के सिपाहियों का
राज्याभिषेक करना चाहते हैं,
मुल्क की जागीर की हिफ़ाज़त चाहते हैं,
ऐसा पुल बाँधना बनाना चाहते हैं
जो मर्यादा के आधार स्तम्भ पर टिका हो
जिस पर जागीर और ज़मीर एकजुट होकर
वैमनस्यता और व्याभिचार पर ठहाका लगा रहे हों।
– ज़हीर अली सिद्दीक़ी