जो दिल कहे
बुलंदशहर
(एक ऐसा नाम, जिसे सुनकर मेरा बचपन फिर से जीवित हो जाता है लेकिन पिछले दिनों यहाँ घटी एक घटना ने ये सब लिखने पर मजबूर किया।)
वो बुलंदशहर जो मौजूद चारों ओर रहा
जिसकी खुशबू से रोम रोम सराबोर रहा
वो बुलँशहर जो उँगली पकड़ के चलता था
वो बुलँशहर जो मुझमें कहीँ मचलता था
जिसकी गलियां मुझे घर सा सुकून देती थीं
जिसकी पगडंडियां जोशो-जुनून देती थीं
जिसकी नहरों ने मुझे गोद में समेटा था
जिसके खेतों ने अपनी धूल में लपेटा था
वो बुलंदशहर जो गंगा के किनारों वाला
सुरमयी शाम में दिलकश से नजारों वाला
वो बुलंदशहर जिसने बोलना सिखाया था
हाँ, कलम दे के शब्द तौलना सिखाया था
वो बुलंदशहर जो माथे का मेरे ताज रहा
मेरे जज़्बात मेरी धुन मेरी आवाज़ रहा
ऐ बुलंदशहर तूने आज ये क्या कर डाला
मेरे दावों को एक पल में हवा कर डाला
तेरे खेतों में आबरू का खेल होता रहा
और तू ओढ़ के खामोशियां ही सोता रहा
तेरे होते हुए आखिर ये हुआ तो कैसे
कुछ दरिंदो ने बेटियों को छुआ तो कैसे
तेरी फसलें, तेरी नहरें, तेरी नदियाँ चुप थीं
तेरी पगडंडीयां ओ तेरी वो गलियां चुप थीं
तेरे कानों की बर्फ क्यों नहीं पिघली ये बता
तेरे ज़र्रो से आग क्यों नहीं निकली ये बता
गंध फैला गया तू मेरे घर के आँगन में
खून छिटका गया गंगा के पाक दामन में
एक बेटी के ग़मों का हिसाब दे मुझको
होंठ क्यों सिल के पड़ा है जवाब दे मुझको
तूने खुद को ग़म-ए-जिल्लत में डुबोया क्यों नहीं
ऐ बुलंदशहर तू ये देख के रोया क्यों नहीं???????
तुझे मालूम नहीं हैकि ये हुआ क्या है
मेरे यूँ टूट के बिखरने की वजा क्या है
मैं इन धिक्कारती नज़रों को सहुँगा कैसे
मैं बुलँशहर का हूँ अब ये कहूँगा कैसे
मुझपे तेरा खुमार था उतार डाला है
मेरे भीतर का बुलंदशहर मार डाला है
मैं इतने ज़ुल्मों सितम देख के भी जिंदा हूँ
मैं बुलंदशहर हूँ साहब और शर्मिंदा हूँ
– आकाश नौरंगी