फिल्म समीक्षा
बुर्के में ख़्वाहिशों का दम घोंटने की कहानी को प्रस्तुत करती फ़िल्म ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’
‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’ पहली ऐसी फिल्म है, जिसका ट्रेलर रिलीज होने से लेकर फ़िल्म रिलीज़ होने के बीच कई विवाद हुए तथा एक लंबे समय बाद आख़िरकार यह रिलीज हो ही गई। इस फ़िल्म का पहला प्रीमियर टॉकियो तथा मुंबई फिल्मोत्सव के दौरान हो चुका है। जहाँ इस फ़िल्म ने ‘स्पिरिट ऑफ़ एशिया’ पुरस्कार तथा लैंगिंक समानता पर आधारित फिल्म होने पर ‘ऑक्सफेम अवार्ड फ़ॉर बेस्ट फ़िल्म (Oxfam Award for Best Film on Gender Equality) से भी नवाजी गई और इसके विवादों में रहने का मूल कारण हमारे समाज में महिलाओं की आज़ादी को जकड़ने वाली बेड़ियों पर किस हद तक वार करती है, था।
इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पहली बार फिल्म देखने के बाद सेंसर बोर्ड ने इसे सेंसर सर्टिफिकेट देने से ही इनकार कर दिया था। उसके बाद अपीलेट ट्राइब्यूनल से इस फिल्म को जैसे-तैसे कुछ कट्स और ‘ए’ सर्टिफिकेट के साथ रिलीज़ की मंजूरी मिली। फ़िल्म की डायरेक्टर अलंकृता श्रीवास्तव ने फिल्म में दिखाया है कि हमारे समाज में औरतों के दुखों की कहानी एक जैसी ही है, फिर चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाली हो, चाहे कुवांरी हो, शादीशुदा हो या फिर उम्रदराज़। कोई जींस और अपनी पसंद के कपड़े पहनने की लड़ाई लड़ रही है, कोई उसे सेक्स की मशीन समझने वाले पति से अपने पैरों पर खड़ी होने की लड़ाई लड़ रही है, कोई अपनी मर्ज़ी से सेक्स लाइफ जीने की आज़ादी चाहती है, तो कोई उम्रदराज़ होने पर भी अपने सपनों के राजकुमार को तलाश रही है।
दरअसल, वे सब अपनी फैंटसी को सच होते देखना चाहती हैं। फिल्म के एक सीन में एक लड़की कहती है, “हमारी ग़लती यह है कि हम सपने बहुत देखते हैं।” यह फिल्म लड़कियों और महिलाओं को उन सपनों को हकीकत में तब्दील करने का हौसला देती है, फिर नतीजा चाहे जो हो।
अलंकृता श्रीवास्तव निर्देशित तथा कोंकणा सेन शर्मा, रत्ना पाठक तथा आहना कुमरा आदि अभिनीत ‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’ फ़िल्म सीधे-साधारण अर्थ में मुस्लिम धर्म की और संकेत करती दिखाई देती है। किन्तु अगर आप इसे दूसरे परिप्रेक्ष्य में देखें तो पाएंगे कि उन सभी बालिग़ और जवानी से होती हुई बुजुर्गावस्था तक पहुंचती तमाम उम्र की महिलाओं के भीतर दबे-छुपे भावों को भी यह फ़िल्म अभिव्यक्ति प्रदान करती है। औरतों की खुशी, उनकी ख्वाहिशें, उनकी कल्पनाएं, जुनून तथा महत्वाकांक्षाओं को बिना लाग-लपेट के पेश किया गया है। ठीक वैसा, जैसा सआदत हसन मंटो तथा इस्मत चुगतई की कहानियों में होता है। फिल्म की कथाभूमि भोपाल की है, जो पुरानी और आधुनिक संस्कृतियों के बीच तालमेल बिठाने की कोशिश कर रहा है और बुआजी उर्फ ऊषा, शिरीन असलम, लीला तथा रिहाना वहाँ के पुराने व तकरीबन खंडहर बन चुकी इमारत (हवा महल) में रहती हैं। बुआजी वहां की मालकिन हैं, बाकी उनकी किरायेदार। वहाँ के माहौल में ही घुटन है। खासकर औरतों के लिहाज से।
शिरीन पति को बिना बताए सेल्स गर्ल का काम करती है और लीला का ब्यूटी पार्लर है, पर वह बाहर जाकर अपने सपनों को साकार करना चाहती है। रिहाना कॉलेज में पढ़ने वाली युवती है। वह माइली साइरस जैसी लोकप्रिय सिंगर बनना चाहती है, पर परिजनों ने उसे बुर्का सिलना सीखने में लगा दिया है। बेशक उसके पिता ने उसे शहर के सबसे बेहतर कॉलेज में दाखिला करवाया है, पर अस्ल में अपने ख्वाबों को साकार करने की छूट उसे नहीं है। लीला की माँ कर्ज तले दबी है। वह चाहती है कि लीला उसकी पसंद के लड़के से शादी करे न कि सड़कछाप फोटोग्राफर अरशद से, जिसके प्यार में लीला पागल है। फ़िल्म का समाज और परिदृश्य ऐसा है, जहाँ औरतों की इच्छाओं को टैबू यानी वर्जित माना जाता है। वे महत्वाकांक्षी बनने की कोशिश भी करें तो उनके चरित्र पर ही ऊंगलियां उठने लगती हैं। अलंकृता ने वैसी महिलाओं की कुंठा को उनकी शारीरिक ज़रूरतों के ज़रिए ज़ाहिर किया है। इस ढर्रे की फिल्मों में प्रयोग भी कम ही हुए हैं।
फ़िल्म का सार यह है कि जब घर की दीवारों से लेकर ‘सुरक्षित’ बेडरूम तक स्त्रियों की मर्जी का ख्याल नहीं रखा जाता तो उनके दुनिया जीतने के सपने की तो बात ही छोड़ देना बेहतर है। लेकिन रिहाना जैसी लड़कियां उस किस्म के परिवेश में रहते हुए माइली साइरस जैसा बनने की बात रखती है तो लगता है जैसे यह मंगल ग्रह पर जाने सरीखी माँग है। जिस पर उसके ‘अपने’ ही चकित-विस्मित होते हैं। दूसरी ओर शिरीन असलम को उसके हमसफर ने महज बच्चे पैदा करने की मशीन समझ रखा है। विधवा बुआजी ऊर्फ ऊषा 55 की हैं। उनके लिए शारीरिक ज़रूरत की बात करना भी ‘पाप’ है। यह हवा महल जहाँ वे रहती हैं, लगता है जैसे इस माहौल के ‘मर्दों’ को व वहाँ के समाज को आईना दिखाने का प्रयास करती भी दिखाई देती हैं। किन्तु जब वे चारों अपने सपनों को जीने के लिए निकलती हैं तो उनके पर कतर दिए जाते हैं और कथित मर्दवादी अहम की बेड़ियां उनके पांवों में डाल दी जाती हैं और वे वहाँ विरोध नहीं कर पातीं। यहाँ उनकी आवाज उस मोड़ पर दम तोड़ती दिखाई देती हैं।
फिल्म का यह पहलू फ़िल्म को एपिक बनने से रोक देता है। फ़िल्म में कुछ कमियां भी हैं मसलन आज के आधुनिक युग में हम लोग फ़िल्म सेलेब्रेटी या अन्य को ही आदर्श मानने-मनवाने की प्रथा में जी रहे हैं। यही रिहाना के चरित्र में भी देखने को मिलता है। फिल्मकारों को ऐसे पात्रों या चरित्रों से दूरी बरतनी चाहिए तथा उसकी जगह आईएएस, आईपीएस बनने का मकसद दिखाया जाना चाहिए ताकि तेजी से बदलते समय में युवा पीढ़ी को एक सकारात्मक संदेश दिया जा सके। फ़िल्म की दूसरी नायिका लीला के साथ भी यही समस्या है कि खुले विचारों की लीला को नहीं मालूम कि वह जो पाना चाहती है, उसके लिए ज़रूरी संसाधन क्या हैं। वह बस अपने प्यार अरशद के साथ ज़िंदगी बिताने को ख्वाहिशमंद है, जिसमें खुद ठहराव और परिपक्व सोच की कमी झलकती है। हो सकता है यह ‘मर्दवादी समाज’ का साइड इफेक्ट हो।
बुआजी ‘लिपिस्टिक वाले सपने’ नामक किताब की कायल हैं, जो उन्मुक्त ख्वाबों-ख्यालों के किस्सों से अटी पड़ी हैं। उसकी नायिका रोजी है, जो बुआजी, लीला, रिहाना, शिरीन की आदर्श स्थिति हो सकती है। हालांकि वह आदर्श स्थिति वे चारों हासिल तो नहीं कर पाती हैं। कोशिश ज़रूर करती हैं। तो रोजी की कहानी के ज़रिए चारों किरदारों की ज़िंदगी के उन पड़ावों की गहन पड़ताल की जाती है, जो अब ‘जवानी’ की दहलीज़ पर हैं। वह जवानी काँटों की तरह चुभने लगी है। यहाँ ‘जवानी’ से अभिप्राय इच्छाएं हैं। फिल्म की शुरूआत किताब पढ़ती बुआजी से होती है। समाप्ति उन किताबों के टुकड़े हो चुके बिखरे पन्नों पर जाकर होती है।
किरदारों को बड़ी खूबी से निखारा और स्थापित किया है, पर उनके ज़रूरत से ज्यादा वर्णन के चलते क्लाइमैक्स सतही हो गया है। घुटन भरे माहौल में जीने को मजबूर चारों महिलाएं आखिर में भी घुट कर रह जाती हैं। वह अंतर्विरोध के रूप में रह गया है। शायद कथित ‘समाज’ की सोच पर तमाचा जड़ने के लिए। शिरीन का वैवाहिक बलात्कार, लीला और अरशद के बार-बार संभोग दृश्य ज़रा थोपे हुए लगते हैं। उनका दोहराव रोका जा सकता था या प्रतीकात्मक तरीके से वह और प्रभावी बनाया जा सकता था।
फ़िल्म में चार अलग-अलग ज़िंदगियाँ हैं। लेकिन चारों अपनी आज़ादी, अपनी शारीरिक ज़रूरतों और इमोशनल नज़दीकियों के लिए तड़प रही हैं। फिल्म के क्लाइमेक्स में दीवाली का मेला है। हर तरफ बम और पटाखों का शोर है और इन चारों की ज़िंदगियाँ पूरी तरह से उथल-पुथल हो चुकी हैं। जैसा की ‘रोजी’ ने कहा था, “आज की रात बहुत कुछ होने वाला था।” हर तरफ से मुसीबतों से घिरी हुई ये चारों जब फटे हुए कपड़ों और किताबों के बीच बैठी हैं, तब भी इनकी आंखों में होते हैं, ‘नाउ ऑर नेवर वाले सपने’, ‘प्रेम और हवस वाले सपने’, ‘लिपस्टिक वाले सपने’। उषा, शीरीन, लीला और रिहाना की आज़ादी फिल्म देखने वालों को अपनी आज़ादी लगती है।
लेकिन कहीं-कहीं आप जब तक एक किरदार से जुड़ने लगते हैं, एक नई कहानी शुरू हो जाती है। लीला की माँ का किरदार बहुत कम समय का था लेकिन उसके बारे में और बात की जानी चाहिए थी। शीरीन जब अपने पति की गर्लफ्रेंड के घर जाकर उसे हड़काकर आती है तो मन में तालियां तो बजती हैं लेकिन एक अफसोस रह जाता है कि काश शीरीन ने ये सब अपने धोखेबाज पति से कहा होता।
इन सब कमियों के बाद भी रत्ना पाठक शाह, कोंकणा सेन, अहाना कुमरा और प्लाबिता बोरठाकुर ने दमदार अदायगी की है। बुआजी, शिरीन, लीला व रिहाना को उन्होंने जीवंत बनाया है। अरशद के रोल में विक्रांत मेस्सी व शिरीन के पति के रोल में सुशांत सिंह ने भी कथित ‘मर्दवादी अहम’ को बखूबी पेश किया है। अलंकृता श्रीवास्तव ने जो रॉ दुनिया गढ़ी है, उसे देखने को जो दर्शक आदी नहीं हैं, उनके लिए यह एक अलग अनुभव होगा।
फिल्म की लेखक और निर्देशक अलंकृता ने एक काल्पनिक किरदार ‘रोजी’ के ज़रिए उन ज़िंदगियों में झांकने की हिम्मत की है, जिनका समाज की नज़रों में ना तो कोई अस्तित्व है और ना ही कोई इच्छाएं। इस ‘फीमेल ओरिएंटेड’ फिल्म ने सेंसर बोर्ड तक की कुर्सियों को हिला कर रख दिया क्योंकि वहाँ जो लोग भी बैठे हैं वे सभी इस पुरुषसत्तात्मक समाज का हिस्सा हैं।
इस फिल्म में वो सब कुछ है, जो आपको असहज कर सकता है। मस्टरबेट करती लड़कियां, सेक्स के लिए पहल करती लड़कियां, गाली देती, डबल मीनिंग बातें करती, अपनी आज़ादी की माँग करती लड़कियां और पति के रवैये से थककर सेक्स के लिए मना करती लड़कियां। लेकिन इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो मनगढ़ंत हो। ये समाज की हकीकत है, ये वो सबकुछ है जो लड़कियां देखना, कहना और करना चाहती हैं। अगर आप असहज होकर सच्चाई को देखने लिए तैयार हैं तो फिल्म देखें वरना अपनी सोच के विकसित होने का इंतज़ार करें।
लेकिन तब तक जेबुनिसा बांगाश और मंगेश धाधके ने जो अच्छा म्यूजिक दिय़ा है फिल्म में उसे सुना और देखा जा सकता है।
समीक्ष्य फिल्म- लिपस्टिक अंडर माई बुर्का
मुख्य कलाकार: कोंकणा सेन शर्मा, रत्ना पाठक, आहना कुमरा आदि
निर्देशक: अलंकृता श्रीवास्तव
निर्माता: प्रकाश झा
– तेजस पूनिया