आलेख/विमर्श
बीसवीं सदी के अंतिम दशक का पूर्वार्ध और हिंदी उपन्यास
(सुरेन्द्र वर्मा और प्रभा खेतान के उपन्यास)
– नीरज कृष्ण
बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक के पूर्वार्ध में कथाकारों की जो कई पीढियाँ एक साथ सक्रिय रही है उसमें के साथ महिलाओं ने भी बड़ी संख्या में जारी की है। इन रचनाओं की अंतर्वस्तु भाषा, सरोकार की विविधता से जो परिदृश्य निर्मित होता है उस पर एक साथ विचार करना संभव नहीं है। समाज में स्त्रियों की स्थिति पर केन्द्रित उपन्यास तो आरम्भ से ही महिला और पुरुष कथाकारों ने लिखें, पर बीसवीं सदी के अंतिम दशक के पूर्वार्ध में आयी रचनाओं में स्त्री अपने को नये सिरे से तलाश कर रही है। इन उपन्यासों में आत्मदया, आत्मदान में गौरव के एहसास जैसे अनुभूतियों के लिए जगह नहीं रह गयी है। रिश्तों की, समाज, परिवार और परिवेश में अपनी भूमिका की नये सिरे से व्याख्या कर रही है।
इस दृष्टि से प्रभा खेतान और सुरेन्द्र वर्मा के उपन्यास उल्लेखनीय है। 1993 ई० में सुरेन्द्र वर्मा का बहुचर्चित उपन्यास “मुझे चाँद चाहिए” आया। साहित्य अकादमी पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। उपन्यास कथ्य के धरातल पर एक नई बयार आया और अब तक के अनछुए कथ्य रंगमंच या तथा बम्बई के सिने जगत के मायावी का अपने अन्तर्वाह्य में बड़ी प्रामाणिकता से पहली बार प्रस्तुत करता है। शाहजहाँपुर के निम्न मध्यवर्गीय परंपरावादी परिवार की सामान्य लडकी यशोदा उर्फ सिलबिल, अपने छोटे से कस्बे से लखनऊ और फिर बम्बई तक की जो संघर्षपूर्ण यात्रा कर वर्षा वशिष्ठ की परिणति तक पहुँचती है, उसमें न केवल नये भारत की आधुनिकता का रूप उजागर होता है, अपितु स्त्री-स्वातंत्र्य का स्वर आद्यांत उभरता है। एक अनुगूंज- सा पूरे उपन्यास में परिव्याप्ति पाती है कि आज की नारी किस प्रकार समस्त चुनौतियों को स्वीकार करती हुई अपनी एक नई और पूरी तरह स्वतंत्र डगर अख्तियार करने की अभूतपूर्व क्षमता से युक्त है। दिव्या कात्याल के दिशा-निर्देशों से अपनी नियति का नया निर्माण करनेवाली वर्षा वशिष्ठ समस्त सामाजिक भीतियों तथा पारिवारिक अवरोधों को तोड़ती हुई जिस रूप में अपने प्रेमी हर्ष और उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके बच्चे को अपनाकर अविवाहित मातृत्व को स्वीकारती है, वह प्रायः 25-30 वर्ष पूर्व स्त्री-स्वातंत्र्य का एक तूर्य- नाद सा है। अपने सशक्त शिल्प और समृद्ध भाषा के लिए भी यह एक स्मरणीय उपन्यास है- भाषा में जो नया रचाव और लालित्य है, वह हिंदी गद्य को एक नई ऊर्जा प्रदान करता है। बाद में सुरेन्द्र वर्मा का उपन्यास ‘दो मुर्दो के लिए गुलदस्ता’ (1988 ई०) भी प्रकाशित हुआ, किन्तु वह सामान्यता से ऊपर नहीं उठ पाता है।
प्रभा खेतान के उपन्यास अपनी प्रखर स्त्रीवादी सोच के लिए विशेष रूप से ख्यात है। ‘ आओ पेपे घर चलें ( 1990), तालाबंदी ( 1991 ), छिन्नमस्ता ( 1993 ), अपने-अपने चेहरे (1994) तथा पीली आँधी (1996) उपन्यासों में उन्होंने पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्री की दोयम स्थिति, समाज में उसकी विविध रूपों में प्रताड़ना आदि का चित्रण कर अपनी तालिकाओं के माध्यम से ऐसा नारी चरित्र खड़ा करने का प्रयास किया है, जो प्रदत्त परिस्थितियों में विद्रोह कर आर्थिक स्वावलम्बन प्राप्त कर नारी की स्वतन्त्र अस्मिता के मानक रूप में खड़ी हो सके। उनके सभी उपन्यासों की प्रवृत्ति आत्मकथात्मक रही है। इन उपन्यासों में ‘आओ पेपे घर चलें’ , ‘ छिन्नमस्ता’ तथा ‘पीली आँधी’ विशेषतः उल्लेखनीय बन पड़े हैं। ‘आओ पेपे घर चलें’ में पश्चिम की नारी के जीवन के अन्तर्विरोधों और पीड़ा का मार्मिक साक्षात्कार है, उसके जीवन का अकेलापन और बेचारगी बहुत कारूणिक रूप में कथात्मक प्रस्तुति पाती है। ‘ छिन्नमस्ता कलकत्ता के बंद मारवाड़ी समाज के अंतरंग में बहुत बेबाकी से प्रवेश करती हुई उसके अंतर्विरोधों का खुलासा करती कृति है। सगे बड़े भाई द्वारा अनेक वर्षों तक बहन के साथ बलात्कार और उस बहन की व्यथित कर देनेवाली मनोदशा का चित्रण जिस साहसिकता और अकुंठ भाव से किया गया है, वह उपन्यास की एक उपलब्धि है और आगे के महिला कथा – लेखन के लिए एक दिशा – निर्धारक पहल है । पीली आँधी कलकत्ता के उस मारवाड़ी समाज का प्रामाणिक अंकन है, जो राजस्थान के बीहड़ क्षेत्रों में अकाल, राजे- रजवाड़ों के शोषण से त्रस्त अपनी धरती से उखड़ कलकत्ते में आकर व्यवसाय लिए आ जुटा। उपन्यास बड़े रोचक और प्रामाणिक रूप में कलकत्ता के बड़े-बड़े धनपतियों- ‘रुंग्टाज’ ‘कानोडियाज’ , ‘बडजात्याज’ आदि की संघर्षशील जिंदगी, जिसे लेखिका ने परिवार के बड़े-बूढ़ों, पुरखों के स्मृति वनों से खंगाल कर प्रस्तुत किया है, जीवंत इतिहास के रूप में प्रस्तुत कर उनके लगभग पौने दो सौ सालों को पुनर्जीवित कर दिया है। रेत की ‘पीली आँधी’ के डर से राजस्थान के छोटे-छोटे गाँवों-कस्बों से दिसावरी के लिए निकले जीवट वाले ये मारवाड़ी किस प्रकार बड़ा बाजार की अंधेरी गलियों और कोठियों-कोठरियों से निकल अलीपुर जैसी संभ्रांत, पॉश कॉलोनियों की अपनी आलीशान कोठियों में आ स्थापित हुए, यह सब वर्णन मारवाड़ी समाज के बनने का ही इतिहास नहीं, अपितु कलकत्ता के भी शानदार रूप में बसने का, औपन्यासिक शिल्प में, संपूर्ण विवरण है।
राजेन्द्र यादव प्रभा खेतान को स्त्री-विमर्श की महत्त्वपूर्ण लेखिका स्वीकार करते हैं। वे आर्थिक आत्मनिर्भरता सम्पन्न व्यक्तित्वों में ‘छिन्नमस्ता’ का प्रिया के समकक्ष सुरेन्द्र वर्मा की वर्षा वशिष्ठ (मुझ चाँद चाहिए) को पाते हैं। समय और समाज विचारों में जो बदलाव लाया है, वह एक चुनौती, जिसे सुरेन्द्र वर्मा और प्रभा खेतान ने अपने उपन्यासों में कुशलता के साथ उभारा है।
– नीरज कृष्ण