फिल्म समीक्षा
बिन्ते दिल अलाउद्दीन खिलजी में- पद्मावत
निर्देशक/लेखक एवं संगीत – संजय लीला भंसाली
दीपिका पादुकोण (महारानी पद्मावती), रणवीर सिंह (अलाउद्दीन खिलजी) , शाहिद कपूर (राजा रतन सेन) , अदिति राव हैदरी (मेहरुन्निसा) , रजा मुराद (अलाउद्दीन वंश का संस्थापक) जिम सरभ उर्फ़ मलिक काफुर (अलाउद्दीन खिलजी का सेनापति और प्रेमी) अनुप्रिय गोएंका – रानी नागमती (रतन सिंह की पहली पत्नी और मुख्य महारानी)
IDBM रैंकिंग 7.5
भारतीय सिनेमा के 100 सालों के सफर में अब तक की सबसे अधिक विवादित फ़िल्म रही है हालिया रिलीज पद्मावत। किसी फ़िल्म के लिए नाक काट लाने, सिर काट लाने की धमकियां शायद ही इससे पहले आपने या हममें से किसी ने सुनी होंगी। ऐसा नहीं है कि पद्मावत से पहले किसी फ़िल्म पर विवाद नहीं हुआ हो किन्तु उसमें से कुछ आज भी रिलीज नहीं हो पाई और ठन्डे बस्ते में पड़ी रही। उसकी भी एक लम्बी फेरहिस्त तैयार की जा सकती है जिसमें कुछ रिलीज हुई और कुछ नहीं जिनका नाम क्रमशः- राम तेरी गंगा मैली, वाटर, कामसूत्र अ टेल ऑफ़ लव, सिंस, गांडू (बंगाली फ़िल्म), द पिंक मिरर, अनफ्रीडम, फ़िराक, फायर, पांच, परजानिया, बैंडिट क्वीन आदि हैं। एक तरफ जहाँ हमारा संविधान अभिव्यक्ति की आजादी देता है वहीं दूसरी और सिनेमा पर इस तरह प्रतिबंध लगाना भी अभिव्यक्ति की आजादी का हनन करना है। खैर कई सारे राजनीतिक दुश्चक्रों के बाद हार कर सुप्रीम कोर्ट की दखलंदाजी के के कारण पद्मावत का रिलीज होना सम्भव हो पाया है। सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बावजूद भी तकरीबन 6-7 राज्यों में पूर्णतया प्रतिबंध झेलने के बाद भी फ़िल्म ने कमाई के मामले में अच्छी खासी ओपनिंग की और रिलीज के पांच दिन बाद तक केवल बॉक्स ऑफिस से ही तकरीबन 130 करोड़ रुपए का अप्रत्याशित कारोबार किया है। अभी फ़िल्म का पाकिस्तान आदि में रिलीज किया जाना तथा राइट्स आदि बेचने की कमाई को इसमें जोड़ा जाना शेष है। पद्मावत अपने आप में विशेष अपने डिस्क्लेमर को लेकर भी है इस तरह का डिस्क्लेमर किसी फ़िल्म में पहली बार देखने को मिला है। फिल्म शुरू होने से पहले ही ये डिस्कलेमर आता है कि कहानी पूरी तरह से काल्पनिक है और ये फिल्म कहीं से भी सती प्रथा को बढ़ावा नहीं देती है। लेकिन फिल्म में ‘जौहर’ को जितना महिमामंडित करके दिखाया गया है वो दिमाग पर बहुत ही गहरी छाप छोड़ता है।
अब बात करते हैं फ़िल्म कि तो फ़िल्म की कहानी कुछ इस तरह है कि फ़िल्म मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा सन 1540 में लिखी गई पद्यात्मक रचना पद्मावत पर आधारित है, जो राजपूत महारानी रानी पद्मावती के अथाह शौर्य और वीरता की कहानी कहती है। पद्मावती मेवाड़ के राजा रावल रतन सिंह की दूसरी पत्नी हैं और बेहद खूबसूरत होने के अलावा बुद्धिमान, साहसी और बहुत अच्छी धनुर्धर भी है। 1303 में अलाउद्दीन खिलजी पद्मावती की इन्हीं खूबियों के चलते उनसे इस कदर प्रभावित होता है कि चित्तौड़ के किले पर हमला बोल देता है। फिल्म के अंत में महाराज रावल रतन सिंह और अलाउद्दीन खिलजी के बीच तलवारबाजी के सीन में रतन सिंह अपने उसूलों, आदर्शों और युद्ध के कुछ राजपूती नियमों का पालन करते हुए खिलजी को निहत्था कर देते हैं, लेकिन पद्मावती को पाने की चाहत में खिलजी धोखे से रतन सिंह को यह कहकर मार डालता है कि जंग का एक ही उसूल होता है, जीत। अपनी आन-बान-शान की खातिर इसके बाद पद्मावती किस तरह जौहर के लिए निकलती हुए खिलजी की ख्वाहिशों को ध्वस्त कर देती है यही फिल्म की बानगी है। हालांकि जायसी के पद्मावत को देखें तो हम पाते हैं कि फ़िल्म इतिहास के आईने में जरा फिट नहीं बैठती। नागमती का वियोग वर्णन हो या फिर चित्तौड़ के मशहूर सूरमा गोरा और बादल की शहादत हो या अलाउद्दीन का पद्मावती को शीशे में देख पाने का प्रकरण हो या फिर राजा रतन सेन को खिलजी के चंगुल से दिल्ली से छुडा लाने वाला बहादुरी का किस्सा। जिस पर आज भी मेवाड़ की धरती तथा राजपूत लोग गर्व से फूले नहीं समाते उन सभी को फिल्म में इतिहास के जानकार दर्शक पूरी तरह नदारद पाते हैं। हालांकि भंसाली की यह फ़िल्म करीब 200 करोड़ की लागत से बनी अब तक की सबसे महंगी फिल्मों में से एक मानी जा रही है।
पद्मावत का इतिहास जान लेने के बाद यह आवश्यक हो जाता है कि उस इतिहास को भंसाली ने फ़िल्म में किस तरह दर्शाया है? फ़िल्म शुरू होती है, अलाउद्दीन के चचा जलालुद्दीन खिलजी (रजा मुराद) के दिल्ली फतह करने के दृश्य से। अलाउद्दीन अपने चचा की सजी उस महफिल में एक शतुरमुर्ग को लिए दाखिल होता है, क्योंकि उसके एक पंख की मांग उसकी चचेरी बहन और जलालुद्दीन की बेटी मल्लिका मेहरुन्निसा (अदिति राव हैदरी) ने की थी। जबकि अलाउद्दीन बहादुरी का परिचय देते हुए पूरा शतुरमुर्ग ही लेकर आ जाता है। खिलजी इस तोहफे के एवज में मेहरुन्निसा का हाथ मांग लेता है। अलाउद्दीन खिलजी आक्रमक और खूंखार रवैये के कारण अन्य खिलजियों से कहीं अधिक ठहरता है। उधर सिंहल द्वीप की राजकुमारी तथा अभूतपूर्व सौन्दर्य की मल्लिका पद्मावती (दीपिका पादुकोण) हिरण का शिकार करते हुए दिखती है और गलती से शिकार के समय एक तीर मेवाड़ के महारावल राजा रतन सिंह यानी शाहिद कपूर को लग जाता है। कुछ प्रेम प्रसंग के बाद वे पद्मावती को अपनी दूसरी पत्नी बनाकर चित्तौड़ ले आते हैं। राजगुरु स्वयं भी पद्मावती के सौन्दर्य से अभिभूत रह जाते हैं।इसकी सजा उन्हें देश निकाला के रूप में मिलती है। चित्तौड़ को तबाह करने का शाप देकर राजगुरु दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के पास पहुंचते हैं। खिलजी अपने ताऊ की हत्या कर राजपाट पर अपना हक जमा लेता है और ताऊ की बदौलत एक गुलाम मलिक काफूर यानी जिम सरभ को हासिल करता है, जो उसके एक इशारे पर खून बहाने को तैयार है। मलिक काफूर का राजा रतन सिंह के दरबार में खिलजी की बेगम कहकर मजाक उड़ाया जाता है। राजगुरु खिलजी को चुनौती देता है कि जब उसे दुनिया की सबसे बेहतरीन चीजें हासिल करने का शौक है तो दुनिया की सबसे खूबसूरत स्त्री के रूप में रानी पद्मावती क्यों नहीं? अलाउद्दीन खिलजी अपने लश्कर सहित चित्तौड़ पर आक्रमण करने पहुँच जाता है। एक लम्बे इन्तजार के बाद खिलजी दोस्ती के पैगाम के बहाने पद्मावती को शीशे में देखता है। उसके रूप से मोहित हो रतन सिंह को अपने पास मेहमान बनने के लिए कह कर उसे कैद कर लेता है और शर्त रखता है रानी उसे छुड़ाने दिल्ली आए। उधर पद्मावती की भी सभी शर्ते स्वीकार कर ली जाती हैं इस तरह पद्मावती खिलजी के चंगुल से राजा को छुडा लाती है उधर गुस्से की बौखलाहट में खिलजी चित्तौड़ पर आक्रमण कर देता है। इसके बाद राजा रतन सिंह की धोखे से हत्या और पद्मावती का महल की अन्य तमाम 16 हज़ार औरतों के साथ जौहर का फिल्मांकन किया गया है।
भंसाली का अधिक ध्यान जौहर तथा खिलजी की दास्तां को ही बढ़ाचढा कर प्रस्तुत करना रहा है। अलाउद्दीन का पागलपन सत्ता के लिए, एक स्त्री को हासिल करने के लिए तथा उसकी आवारगी, क्रूरता तथा छल-कपट का भी फिल्मांकन बेहतर हुआ है किन्तु सिनेमेटोग्राफी तथा भव्य सेट को छोड़ दिया जाए तो दर्शक अपने को ठगा हुआ सा ही महसूस करता है। हालांकि घूमर गाने को छोड़ दिया जाए तो फ़िल्म के अधिकाँश हिस्से में पद्मावती की कमर आसानी से देखी जा सकती है। हालांकि फ़िल्म के बीच में कहीं कहीं ऐसे संवाद भी देखने को मिलते हैं कि जहां राजपूत प्रण लेते दीखते हैं कि वे ऐसा कोई काम नहीं करेंगे जिससे इतिहास में उनका नाम गलत तरीके से लिया जाए। भंसाली की इस फ़िल्म की तुलना यदि सन 1964 में जसवंत झावेरी के निर्देशन में बनी तथा अनिता गुहा, हेलेन, पंडित जसराज आदि अभिनीत फ़िल्म महारानी पद्मिनी से की जाए तो उससे भी यह फ़िल्म कोसो दूर है। क्योंकि जसवंत झावेरी ने उस फ़िल्म में राजा रतन सेन का नाम कर्नल टॉड के इतिहास ग्रंथानुसार राजा भीम सिंह रखा था तथा कहानी को भी उसी हिसाब से फिल्माया गया था।
भंसाली की फ़िल्म के किरदारों की बात की जाए तो खिलजी तथा कहीं कहीं पद्मावती को छोड़ कहीं भी पात्र अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब नहीं हो पाए हैं। मुख्य किरदारों के बनिस्पत सहायक किरदारों ने अच्छा खासा ध्यान आकर्षित किया है। राजा रतन सेन के रूप में शाहिद कपूर खिलजी तो क्या महारानी पद्मावती के सामने भी बौने दिखाई देते हैं। हालांकि फ़िल्म का बैकग्राउंड स्कोर काफी लाजवाब है तथा एक-दो गाने भी अपना प्रभाव छोड़ते दिखाई देते हैं जिसमें अरिजीत की आवाज में गाया गाना ‘बिन्ते दिल’ अच्छा लगता है किन्तु दूसरी और नीति मोहन की मधुर आवाज में ‘नैनों वाले ने’ गाने पर भी छुरी चलाई गई है। लगातार गानों का क्रम फ़िल्म को बांधे तो रखता है किन्तु इसी चक्कर में फ़िल्म खिंची खिंची सी भी लगने लगती है।
फिल्म के हर सीन में सिर से पांव तक तथा लगभग 30 किलों के खूबसूरत लहंगे, भारी गहनों में सजी-धजी दीपिका की मौजूदगी को पूरे स्क्रीन पर खूबसूरती से दिखाने का प्रयास तो किया गया है किन्तु यह प्रयास भंसाली ने हमेशा की तरह ड्रेस डिजाइन में ही किया जबकि उसके पात्र पर बुनियादी काम करने में वे असफ़ल रहे हैं। इसके अलावा फ़िल्म के एक अन्य पात्र शाहिद कपूर ने महाराजा रावल रतन सिंह के किरदार के साथ घोर अन्याय किया है। वे शुरू से अंत तक शालीन नजर आए जबकि उनमें एक राजपूती राजा की आन-बान और शान का गहन मिलन होना चाहिए था। ऐसा इसलिए भी हुआ है क्योंकि भंसाली का पूरा ध्यान फ़िल्म में खल पात्र अलाउद्दीन खिलजी यानी रणवीर सिंह पर अधिक रहा है। रणवीर असल जिंदगी में भी जिस कदर एनर्जी से भरपूर हैं। शुरू से अंत तक एक सनकी, विलासी, व्यभिचारी और कुंठित मानसिकता जैसे लक्षणों को जीवंत करने में रणवीर सिंह ने कड़ी मेहनत अवश्य की है जो कि पर्दे पर भी स्पष्ट लक्षित होती है किन्तु यहाँ भंसाली उसकी आवाज पर काम न कर पाने के कारण फिसड्डी साबित हुए हैं। हालांकि रणवीर सिंह खली-बली गाने में काफी हद तक उस एनर्जी को समेटने में कामयाब हुए हैं। किन्तु एक गाने के दम पर पूरी फ़िल्म निर्भर नहीं किया करती। भंसाली ने सबसे अधिक काम खिलजी पर किया है जो फ़िल्म में लगभग सभी जगह सफलतापूर्वक दिखाई देता है किन्तु जब यह फ़िल्म राजपूत और करणी सेना के दवाब में बनी तो इसमें नायक-नायिका यानी पद्मावती और राजा रतन सेन को अधिक मजबूत किरदार के रूप में पेश किया जाना था।
ये फिल्म बहुत लंबी है लेकिन जो चीज इसे देखने लायक बनाती है उनमें से एक हैं इसके दमदार संवाद। करीब पौने तीन घंटे की इस फिल्म के हर सीन में एक ऐसा डायलॉग है जिसे सुनकर मजा आता है और कई डायलॉग्स सिनेमा हॉल से बाहर निकलते हुए याद रह जाते हैं। मसलन –
खिलजी की क्रूरता दिखाता एक डायलॉग- सीन में उनकी पत्नी उनसे कहती हैं, “कुछ तो खौफ खाइए।” इस पर वह पलटकर पूछते हैं “आज खाने में क्या-क्या है?” जब उन्हें बताया जाता है कि “खाने में ढेर सारे पकवान हैं” तो खिलजी का जवाब होता है, “जब खाने में इतना कुछ है तो खौफ क्यों खाऊं?”
इसके अलावा “कह दीजिए अपने सुल्तान से कि उनकी तलवार से ज्यादा लोहा हम सुर्यवंशी मेवाड़ियों के सीने में है”- राजा रतन सिंह
“अल्लाह की बनाई हर नायाब चीज पर पहला हक़ खिलजी का है”- खिलजी
“पहले तीर से घायल किया और अब तेवर से”- राजा रतन सिंह
“जिस इतिहास में मेरा नाम नहीं उसे सजा दे रहा हूं”- खिलजी
“सुल्तान बनने के लिए गर्दन और इरादे दोनों मजबूत होने चाहिए”- खिलजी
“तुमने हमारा सबसे बड़ा ख्वाब छीन लिया हम तुमसे तुम्हारा वजूद छिन लेंगे”- खिलजी
“चित्तौड़ के आंगन में एक और लड़ाई होगी जिसे आजतक न किसी ने देखी होगी न किसी ने सुनी होगी और यही अलाउद्दीन खिलजी की सबसे बड़ी हार होगी”- पद्मावती
“राजपूती कंगन में उतनी ही ताकत है जितनी राजपूती तलवार में”- पद्मावती
“चिंता को तलवार की नोक पे रखे, वो राजपूत…रेत की नाव लेकर समुंदर से शर्त लगाए, वो राजपूत…और जिसका सर कटे फिर भी धड़ दुश्मन से लड़ता रहे, वो राजपूत”- राजा रतन सिंह
वर्जनाओं के संसार को आईना दिखाती फ़िल्म:- पैडमैन
फिल्म :- पैडमैन
निर्देशक :- आर बाल्की
स्टार कास्ट :- अक्षय कुमार, राधिका आप्टे, सोनम कपूर, अमिताभ बच्चन (स्पेशल अपीयरेंस)
फ़िल्म का आधार :- बायोग्राफी, कॉमेडी, ड्रामा
जब कोई सिनेमा हम सभी का हो जाता है, तो वह साधारण नहीं रह जाता इसी की बानगी है हालिया रिलीज फ़िल्म पैडमैन। एक जमाना था जब मनोज कुमार राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत फ़िल्में बना रहे थे उपकार फ़िल्म इसका बेहतरीन उदाहरण कही जा सकती है। उनकी इन फिल्मों से ही हो न हो अक्षय कुमार प्रभावित होकर टॉयलेट एक प्रेम कथा, पैडमैन और उसके बाद गोल्ड जैसी देशभक्ति तथा सामाजिक जागरूकता से ओतप्रोत फ़िल्में बना रहे हैं। हालांकि आज के दौर में उन्हें वर्तमान सत्ता, राजनीति के पक्ष तथा उस पलड़े की नजर से भले ही देखा जा रहा हो किन्तु एक दौर वह भी होगा, जब अक्षय कुमार इन फिल्मों के लिए याद किए जायेंगे। खैर फिलहाल ये सब बातें भविष्य के गर्भ में है। अक्षय कुमार, राधिका आप्टे तथा गेस्ट अपियरिंग के साथ अमिताभ बच्चन अभिनीत इस फ़िल्म का नाम है पैडमैन। फ़िल्म तमिलनाडू में सन 1962 में जन्में एक साधारण से मनुष्य अरुणाचलम मुरुगनाथम की जीवन कथा पर आधारित है। हाल ही में पीछे मुड़कर देखा जाए तो बॉलीवुड में 2-4 सालों में किसी साधारण मनुष्य की असाधारण कहानी को आधार बनाकर फ़िल्में बनाना आम चलन हो गया है। मांझी द माउन्टेन मैन, महेंद्र सिंह धोनी अनटोल्ड स्टोरी, मैरिकॉम ये सभी इसका सशक्त उदाहरण है। अब बात करें पैडमैन कि तो यह जैसा की पहले कहा गया अरुणाचलम के वास्तविक जीवन पर आधारित फ़िल्म है। हालांकि फ़िल्म में उनका नाम नहीं है किन्तु फ़िल्म पूरी तरह उन्हीं पर आधारित है। वैसे भी फिल्मांकन के लिए यह आवश्यक नहीं होता कि उसका नाम फ़िल्म में हुबहू रखा ही जाए। फ़िल्म में अक्षय कुमार ने अरुणाचलम मुरुगनाथम की भूमिका निभाई है और पत्नी के रूप में राधिका आप्टे उनके साथ रही।
फ़िल्म की कहानी कुछ इस तरह है कि लक्ष्मीकांत चौहान एक सीधा-सादा, लेकिन होनहार आदमी है। जो कि एक वेल्डिंग वर्कशॉप में काम करता है। अपनी बीवी गायत्री (राधिका आप्टे) से वह बहुत प्यार करता है, लिहाजा वह उसकी जिंदगी को और अधिक सरल और बेहतर बनाने की हर संभव कोशिशें पूरी फ़िल्म में करता हुआ दिखाई देता है। लक्ष्मीकांत की बीवी माहवारी यानी पीरियड्स (जो हर महिला के जीवन का एक अभिन्न अंग है) के दिनों में कपड़ा इस्तेमाल करती है। लोक-लाज के कारण वह उस गंदे कपड़े को साड़ी के नीचे छुपाकर भी रखती है। लक्ष्मी को महीने के उन पांच दिनों में गायत्री की स्वच्छता की चिंता है। वह उसे सैनिटरी पैड लाकर देता है, लेकिन महंगा होने के कारण गायत्री कपड़े के इस्तेमाल पर ही अधिक जोर देती है। गायत्री (राधिका आप्टे) के ऐसा करते देख लक्ष्मी (अक्षय कुमार) को अब इस ‘लेडीज प्रॉब्लम’ की चिंता सताने लगती है। उसकी चिंता पत्नी से आगे बढ़कर समाज की दूसरी औरतों के लिए भी साफ़ नजर आती है। सस्ता पैड बनाना अब उसकी लगन नहीं जिद बन जाता है। लिहाजा अरुणाचलम के रास्ते में आई मुश्किलें जैसे बहनें छूट गई, घर छूट गया, गांव छूट गया, बीवी छूट गई, सम्मान चला गया। किन्तु इस सब के बावजूद भी उन्होंने संघर्ष जारी रखा और उनके इसी संघर्ष ने उन्हें भारत का पैडमैन बना दिया। फ़िल्म के अंत में अरुणाचलम मुरुग्नाथम की तस्वीर देखना भी सुखद अहसासात से भर जाता है, जो कि असल जीवन का लक्ष्मी चौहान है। फ़िल्म भले ही मध्यप्रदेश की ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनी हो किन्तु यह समस्त भारत के पिछड़े इलाकों की महिलाओं की समस्या को जगजाहिर करती है कि कोई भी महिला यहां तक कि उसकी पत्नी भी इस विषय पर खुलकर बात करने से कतराती है और माहवारी को लेकर एक दकियानूसी सोच भी उसकी जिद के आड़े आती है। लक्ष्मी का यह जूनून उसे अंततः अपनी मंजिल और मुकाम पर पहुंचाकर ही दम लेता है।
‘पैडमैन’ के जरिए आर. बाल्की ने असल जिंदगी में अरुणाचलम मुरुगनाथम की कहानी को पर्दे पर उतारा है, जो सचमुच प्रेरणादायक है। कोयंबटूर के अरुणाचलम ने भारत में सस्ते सैनिटरी पैड का आविष्कार किया। इस महान कार्य के लिए उन्हें समाज का भले ही विरोध सहना पड़ा, घोर शर्मिंदगी उठानी पड़ी, घर-परिवार भी छोड़ना पड़ा। किन्तु उसने हार नहीं मानी। यही वजह है कि उन्हें 2016 में भारत सरकार द्वारा पद्म श्री भी दिया गया और अमेरिका जहाँ से अधिकतर पैड बनकर आया करते थे। वहां और आई आई टी जैसे बड़े संस्थानों में अरुणाचलम को बोलने तथा अपने इस सकारात्मक आविष्कार को प्रस्तुत करने के लिए भी बुलाया गया। सही कहा गया है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। आर० बाल्की की इस फ़िल्म की एक खासियत यह भी कही जा सकती है कि उन्होंने फिल्म के निमार्ण के लिए कोयंबटूर की बजाय मध्य प्रदेश के महेश्वर तथा उसके आस-पास के प्रान्त को चुना। नि:संदेह फिल्म सोशल मैसेज तथा जागरूकता पर आधारित है। अक्षय कुमार की पिछली फिल्म ‘टॉयलेट: एक प्रेम कथा’ भी ऐसी ही प्रेरणादायक फिल्मों में से एक थी। हालांकि इस बार फिल्म में आंकड़ों का कई बार जिक्र हुआ है। यही वजह है कि आप फिल्म देखकर निकलते हैं तो आपको यह बात याद हो जाती है कि भारत में 12-18 फीसदी महिलाएं ही सैनिटरी पैड का इस्तेमाल करती हैं। इसके अलावा भी कई जगहों पर ‘पैडमैन’ फिल्म के रूप में जनसेवा को लेकर किया जा रहा सरकारी विज्ञापन मात्र लगता है।
भारत जैसे प्रगतिशील देश में टॉयलेट, सस्ता सैनिटरी पैड आदि उसके समाज की जरूरत है और यह जरूरत अब जब हमारी प्रगतिशीलता में आड़े आने लगा है। तो जरूरत है हमें खुले दिमाग से इन छोटी-छोटी बातों पर ध्यान देने की। वैसे भी माहवारी कोई आज की बात नहीं है। यह महिलाओं के लिए एक प्राकृतिक चक्र मात्र है। किन्तु इसे भी इस सामाजिक बुराई और कुरीतियों के रूप में गिना जाता रहा है। फ़िल्म में अगर अभिनय की बात की जाए तो सभी पात्र अपना अभिनय सहजता से करते दिखाई देते हैं। किन्तु उसी सहजता और भावनाओं के समन्दर में ‘चीनी कम’, ‘पा’, ‘शमिताभ’ और ‘की ऐंड का’ जैसी लीक से हटकर फिल्में परोसने वाले निर्देशक आर. बाल्की इतना डूब गए हैं कि कई मोर्चों पर ख़ास करके फ़िल्म के दूसरे हाफ़ में दर्शकों को एक बारगी घोर उपदेशात्मक कहानी की और ले जाते हुए दिखाई देते हैं, किन्तु उसके बाद वे जल्दी ही संभल भी जाते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि मासिक धर्म को लेकर समाज में जितने भी टैबू हैं। उनसे पार पाने के लिए यह आज के दौर की सबसे जरूरी फिल्म है।
अक्षय कुमार फिल्म के ‘सुपरहीरो’ के रूप में बनकर उभरे हैं इस बात में कोई दोराय नहीं। किन्तु कहीं-कहीं राधिका आप्टे और उनके बीच उम्र का एक फासला साफ़ झलकने लगता है। किन्तु फिर भी उन्हें कमतर नहीं आंका जा सकता और वे अपनी उम्र को अपनी बॉडी लैंग्वेज से भी छुपाने का सफ़ल प्रयास करते दिखाई देते हैं। मसलन उनका फ़िल्म में लड़कियों वाली पिंक अंडरवीयर पहनना खास करके यह दर्शाता है कि वे फ़िल्म किसी भी कैरेक्टर के हदों को पार कर सकते हैं। सोनम कपूर की एंट्री फिल्म को फ्रेशनेस लुक देती है तथा कहानी की रफ्तार को भी आगे बढाती है। इसके अलावा आर बाल्की के लिए सौभाग्यशाली बनकर अमिताभ बच्चन का अतिथि भूमिका में आना प्रभावित करता हैं।
तकनीकी पक्षों की बात करें तो फिल्म पैडमैन का बैकग्राउंड म्यूजिक और फिल्मांकन दोनों ही खूबसूरत हैं। गानों को भी अच्छे तरीके से इस्तेमाल किया गया, जो फिल्म के माहौल को रंगीन बनाते हैं। किन्तु पहले से दर्शकों की जुबान पर अरिजीत सिंह की आवाज में और ढोलकी की थाप के साथ गाया गया गाना तथा पहले से अपना रंग जमा चुका- “आज से मेरी सारी गलियाँ तेरी हो गई” और मीका की आवाज में “ द पैडमैन सांग” ही फ़िल्म देखने के बाद याद रह पाते हैं। यह याद रह पाना भी अमित त्रिवेदी के संगीत का ही कमाल है, जो फिल्म को मजबूती भी प्रदान करता है। कुल मिलाकर एक अलग हटकर विषय पर कहानी कहना अपने आप ही चुनौती है। इस चुनौती को पार करते हुए फिल्म जिस तरह का मैसेज देती है, उसके हिसाब से इसे औसत से थोड़ा ऊपर कहा जा सकता है।
– तेजस पूनिया