मेरी प्यारी बिटिया
सस्नेह प्यार!
बिटिया, हमारी जीवन तश्तरी में पत्थर परोसे हुए हैं जिसे हमने अपनी अंदरूनी देह में घिसड़ते, हमारी आंतों को काटते निरंतर महसूस किया है। हो सकता है कि तुम्हारा परिवार, मेरा परिवार, मुंबई में बसे अपने रिश्तेदारों का परिवार और गांव वालों का परिवार एक ही वृक्ष का हिस्सा हैं। हम सभी परिवार इस एक वृक्ष की अलग – अलग शाखाएं हैं। तुमने जीवन का सेक शायद इसलिए नहीं महसूसा कि इस वृक्ष की शाखाओं में तुम्हारे परिवार की कौंपल सबसे अधिक हरियायी है। बिटिया, गांव के कंकड़-पत्थर हमारे चरण स्पर्श करते प्रतीत होते हैं किन्तु शहर की धूल ऐसा भ्रम तक उपजने नहीं देती। शहर की धूल व्यस्तता की उपजी होती है और व्यस्तता हमें अकेला कर देती है: नितांत शून्य – सा अकेला। अकेला सफर गुमराह खाईयों के मार्फत गुज़रता है। ये खाईयां कई बार अंधकार से सराबोर न होकर अकूत चकाकौंध से सराबोर रहती हैं। यह खाईयां इतनी प्रभावी होती हैं कि इसमें वस्तु की नीयत आकृति उभर नहीं पाती। काला, पीला, नीला सभी इन गहराईयों में उतर आकृतिविहीन सफ़ेद हो उठता है। उज्ज्वलता का धोखा हमें इन्ही राहों पर होता है। बिटिया, रौशनी अच्छी होती है किंतु मत भूलो किसी की अनावश्यक अधिकता अच्छी नहीं रहती। ठीक उसी प्रकार जैसे कमरे में आवश्यकता से अधिक रौशनी आँखों को अखरती है। निश्तित मात्रा में प्रकाश हमें वस्तुओं का अर्थ देता है। अनिश्तितता की स्थिति में यह सत्य को लील जाता है।
लेकिन बिटिया अर्थहीनता भी अच्छी नहीं रहती। काले का कालापन नहीं समझोगी तो इससे कैसे बचोगी? सफ़ेद को स्वयं में आत्मसात कैसै करोगी? जीवन के कोण में अच्छे, मीठे, उजड़े, भद्दे अनेक अर्थ छिपे हैं; आवश्यकता बस इन्हें समझने भर की है और मुझे विश्वास है तुम्हारी समझ के भीतर छिपा विवेक तुम्हे निराश नहीं करेगा। जीवन के ताने – बाने से अवगत होना जटिल नहीं। एक बात कहूँ? पहली मर्तबा तो नहीं कह रहा हूँ। कितनी बार तुम्हे कहा पर तुम सुनती कहां हो? तुम लिखती क्यों नहीं? यदि मेरे कहे लिखा होता, तो अबतक कुछ हद तक मंझ जाती। ये गुण भगवान थोड़े ही देता है। इनकी तो पौध लगानी पड़ती है अपने भीतर। निरंतर अपनी लेखनी की खाद और उर्वरक देने पर ही यह गुण फलता है हममें। मेरे लिए लिखना केवल आत्मतृप्ति नहीं बल्कि अपने अधिकारो की मांग करने का एक ज़रिया है। तुमने कहां पढ़ा होगा। हाशिये पर ठेले लोगों में एक मैं भी हूँ। तुम रौंदे होने के गूढ़ अहसास को कहां समझ पायी हो। जब किसी व्यक्ति अभवा समुदाय के अधिकार नुचते हैं ना तब अंदर की अंतड़ियां खिंच जाती है, भीतर की पीर ठेलों से पूछो। उनकी निशब्द करूणा तुम्हारी आँखें जब पीने लगेगी, तुम्हारा मन उनकी पीड़ा से जब गीला होने लगेगा; तभी समझ पाओगी। तुम्हारे रोम छिद्र तब रोष का धुआं उगलने लगेंगे। भोजन के बघार में तुम स्वयं की भावनाओं के अवयव भुनते हुए महसूस करोगी। तुम्हारे शरीर के अंग इस ज्वलन को महसूस करने लगेंगे। आह! सन्तुष्टि! अभी तक यह तुम्हारी नियति नहीं। कागज़ – पत्तर[1] के साथ मनुष्य पढ़ना सीखो। कितना कुछ लिये घूमते हैं लोग अपनी आँखों में।
मनुष्य पढ़ना सीख लिया न तो जीवन में ठुड्डा खाकर कभी नहीं गिरोगी। अपने माता – पिता से समझो, सीखो। माता – पिता के लिए यदि अपने हृदय के द्वार बंद रखोगी तो डर और परेशानी से स्वयं को सदैव आक्रांत पाओगी। खोल दो, अपने हृदय के इन बंद किवाड़ों को अपने माता – पिता के लिए ताकि वे तुम्हारा उचित मार्गदर्शन कर सके। ताकि तुम ग्रेविटी के भंवर में ना फंस जाओ। जैसे कि मैं। धूम हो गया हूँ। अधजला हूँ। धुआं उगलता हूँ। यह ग्रेविटी मुझे खींच रही है। स्वर्ग की तरफ या दोज़ख की तरफ, इसका अर्थ तक नहीं गढ़ पाया हूँ मैं।
तुम्हारे उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ।
तुम्हारा मामा
रोनी
[1] पत्र
– रोनी ईनोफाइल