ख़ास-मुलाक़ात
बाल साहित्य द्वारा बच्चों का ज्ञानवर्धन करें: परशुराम शुक्ल
‘हस्ताक्षर’ के बाल-साहित्य विशेषांक के अतिथि संपादक पवन चौहान जी ने बाल-दिवस के मौक़े पर वरिष्ठ बाल साहित्यकार परशुराम शुक्ल जी से बात की, जो ‘हस्ताक्षर’ के पाठकों के लिए प्रस्तुत है-
पवन चौहान- शुक्ल जी आपका जन्म कहाॅं और कब हुआ था?
श्री शुक्ल- मेरा जन्म 6 जून, 1947 को कानपुर ज़िला के सैबसू गाॅंव में हुआ था।
पवन चौहान- शुक्ल जी, अपने माता-पिता जी के बारे में कुछ बताएँ।
श्री शुक्ल- मेरे पिता जी का जन्म इटावा जिले के एक संपन्न ज़मींदार परिवार में हुआ था। कुछ समय बाद उन्होंने कानपुर में आकर इलैक्ट्रिक गुड्स का व्यापार शुरु कर दिया। वे आधुनिक विचारों के थे। माता जी कानपुर ज़िला के गाॅंव सैबसू की रहने वाली थीं। वे धार्मिक विचारों वाली महिला थीं। वे अधिक पढ़ी-लिखी तो नहीं थीं लेकिन रामायण व अन्य धार्मिक ग्रंथ पढ़ लेती थीं।
पवन चौहान- आपकी शिक्षा कहाॅं और कैसे परिवेश में हुई?
श्री शुक्ल- मेरी आरंभिक शिक्षा गरड़िया मुहाल (जिसका नया नाम सदर बाजार है) के जूनियर हाई स्कूल में हुई। इसके बाद मारवाड़ी इंटर काॅलेज से 1962 में हाई स्कूल उतीर्ण किया। उसके बाद क्राइस्ट चर्च काॅलेज आ गए और वहाॅं से 1969 में स्नातक और 1971 में स्नातकोत्तर (समाज शास्त्र) की शिक्षा पूर्ण की। 1971 में मैं उसी काॅलेज में लैक्चरर हो गया। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि मेरी पूरी शिक्षा कानपुर में ही हुई।
पवन चौहान- अपने परिवार के बारे में कुछ बताएँ।
श्री शुक्ल- हमारा छोटा-सा परिवार है, जिसमें पत्नी डाॅ. विभा शुक्ला के अलावा एक बेटा अभिनंदन और बेटी अंशु है।
पवन चौहान- शुक्ल जी बाल साहित्य लेखन के साथ आपका जुड़ाव कैसे हुआ?
श्री शुक्ल- पवन जी, लेखन में मेरी रुचि छोटी उम्र से थी। मैंने कई प्रौढ़ कहानियाॅं और तीस-चालीस श्रृंगारित कविताएं लिखी थीं। दरअसल, जब मैं कानपुर में था, उसी समय अपराधी जनजातियों कबूतरा, नट, कंजर, हबूड़ा आदि के संपर्क में आ गया था। मैंने प्राध्यापक की नौकरी के मध्य इन जनजातियों का समाज शास्त्रीय अध्ययन किया, जिसमें इनके पारिवारिक जीवन, वैवाहिक जीवन, सामाजिक जीवन, जादू-टोना, धर्म, पूजा-पाठ, राजनैतिक, न्यायिक व्यवस्था आदि पर शोध शामिल था। मैंने देखा कि इन जनजातियों की पंचायत में चोर को सीधे चोर नहीं कहा जा सकता। आरोप लगाने, सफाई देने व सुझाव आदि का सारा कार्य लोककथाओं के माध्यम से ही होता है। इनकी लोककथाएं पंचतंत्र की कहानियों के समकक्ष हैं। इनमें अत्यंत व्यावहारिक और उच्च स्तरीय नैतिक मूल्य हैं। मैंने इनकी 46 लोककथाएं इकट्ठी की। उस समय भारत सरकार के समाज कल्याण मंत्रालय ने इनके प्रकाशन हेतु 18 हज़ार की अनुदान राशि भी दी थी। यह किताब 1990 में प्रकाशित हुई थी। बस, इन्हीं लोककथाओं ने मुझे बाल साहित्य की ओर मोड़ा।
पवन चौहान- क्या ये लोककथाएं प्रकाशित हुईं?
श्री शुक्ल- पवन जी, अधिकांश लोकथाएं नंदन, पराग, चंपक, बाल भारती आदि बाल पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। मैंने इन लोककथाओं को साहित्यिक रुप देकर बाल कहानियों में बदलने का प्रयास किया है।
पवन चौहान- आपकी पहली बाल कहानी कब प्रकाशित हुई थी?
श्री शुक्ल- मेरी पहली बाल कहानी ‘सागर और हंस’ 1986 में नंदन में प्रकाशित हुई थी। उस समय नंदन के संपादक जयप्रकाश भारती जी थे। भारती जी ने इस कहानी का शीर्षक बदलकर ‘बड़ा कौन’ कर दिया था।
पवन चौहान- आपने प्रौढ़ साहित्य भी खूब लिखा है। फिर आपने अपने लेखन के लिए बाल साहित्य को ही क्यों चुना?
श्री शुक्ल- मैंने लेखन के शुरुआती दौर में प्रौढ़ कविता, कहानी, आलेख, शोध पत्र आदि बहुत कुछ लिखा लेकिन मेरे लिए यह एक भटकाव की स्थिति थी। मैंने बहुत सोचने-विचारने के उपरांत अंत में बाल साहित्य को ही अपने लेखन के लिए चुना। मुझे अपने लेखन के लिए बाल साहित्य सही लगा। इसको चुनने के पीछे पूर्व-अपराधी जनजातियों की लोककथाओं का बहुत बड़ा योगदान रहा है।
पवन चौहान- चिल्ड्रन बुक आॅफ ट्रस्ट से आपको लेखन के शुरुआती दौर में काफी प्रोत्साहन मिला। इस बात से आप कहाॅं तक सहमत हैं?
श्री शुक्ल- चिल्ड्रन बुक आॅफ ट्रस्ट अखिल भारतीय बाल साहित्य लेखक प्रतियोगिताएं करवाता था। इसमें सर्वप्रथम 1988 में मेरी कहानी ‘चंपा का बलिदान’ पुरस्कृत हुई। 1990 में बाल एकांकी ‘तीन मूर्ख’ और फिर 1992 में दूसरी कहानी ‘शेर के बच्चे’, कविताएं ‘हाथी और आॅंखें’ तथा विज्ञान पर आलेख भी पुरस्कृत हुए। मेरी पहली रंगीन किताब ‘बीसवीं सदी का विलक्षण आविष्कार-लेसर’ भी चिल्ड्रन बुक आॅफ ट्रस्ट ने ही प्रकाशित की थी। चिल्ड्रन बुक आॅफ ट्रस्ट की इन गतिविधियों के कारण मेरे बाल साहित्य लेखन को काफी प्रोत्साहन मिला।
पवन चौहान- बाल साहित्य को आप कैसे देखते हैं?
श्री शुक्ल- बाल साहित्य को ऐसे साहित्य के रुप में परिभाषित किया जा सकता है जिसके केन्द्र में बच्चा हो या बच्चे की रुचि का विषय हो। बाल साहित्य को मैं दो तरह से देखता हूॅं। एक सामान्य बाल साहित्य और दूसरा तथ्य प्रधान बाल साहित्य। बाल साहित्य लेखन में कुछ विशेषताएं होती हैं। इसकी भाषा सरल व सहज हो। इसमें प्रचलित शब्दों का इस्तेमाल होना चाहिए। इसके वाक्य बड़े-बड़े या जटिल न होकर छोटे व सरल होने चाहिए। यदि बाल कविता है तो उसमें गेयता होनी चाहिए, जिससे बच्चा उसे आसानी से याद कर सके, गा सके। चाहे कविता हो या कहानी, यह बहुत बड़ी नहीं होनी चाहिए।
पवन चौहान- शुक्ल जी आपकी नजर में बाल साहित्य का क्या उद्देश्य है?
श्री शुक्ल- पवन जी, बाल साहित्य के मुख्यत: तीन उद्देश्य हैं, पहला- बाल मनोरंजन, दूसरा- नैतिक शिक्षा और तीसरा- बच्चों का ज्ञानवर्धन।
बाल साहित्यकारों ने बाल साहित्य में नैतिक उपदेश भर दिया है। बाल-मनोविज्ञान के अनुसार बच्चे मनोरंजन अधिक पसंद करते हैं न कि नैतिक शिक्षा। बच्चे प्रत्यक्ष नैतिक शिक्षा पसंद नहीं करते इसलिए बच्चों को अप्रत्यक्ष रुप से नैतिक शिक्षा देनी चाहिए। जैसा कि पंचतंत्र की अधिकांश कहानियों में देखने को मिलता है। इसके साथ ही बच्चों को बाल साहित्य के माध्यम से विभिन्न प्रकार की सूचनाएं व जानकारियां भी दी जा सकती हैं। इससे बच्चों का ज्ञानवर्धन होता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि बाल साहित्य के तीन उद्देश्य होते हैं, मनोरंजन, नैतिक शिक्षा और बच्चों का ज्ञानवर्धन।
पवन चौहान- बाल साहित्य में नैतिक शिक्षा का क्या महत्व है? कृपया विस्तार से समझाएं।
श्री शुक्ल- नैतिक शिक्षा महत्वपूर्ण है। यह चरित्र निर्माण का कार्य करती है। लेकिन नैतिक शिक्षा प्रत्यक्ष रुप से न देकर अप्रत्यक्ष रुप से दी जानी चाहिए। जैसे कुनैन की गोली कड़वी होती है, उसे शुगर कोटिंग करके दिया जाता है। पंचतंत्र, हितोपदेश की कहानियाॅं इसका बहुत अच्छा उदाहरण है। इसमें सभी नैतिक शिक्षाएं अप्रत्यक्ष रुप से दी गई हैं।
पवन चौहान- आज सूचनात्मक बाल साहित्य पर काफी ध्यान दिया जा रहा है। आप इस पर कुछ कहेंगें?
श्री शुक्ल- बिल्कुल, आज सूचनात्मक बाल साहित्य की बहुत ज़रुरत है। सिर्फ मनोरंजन और नैतिक शिक्षा से काम नहीं चलेगा। यहाॅं आपको हम एक बात बता दें कि सूचनात्मक बाल साहित्य की शुरुआत बहुत पहले हो गई थी। श्रीधर पाठक ने भूगोल पढ़ाने के लिए सबसे पहली सूचनात्मक बाल कविता लिखी थी। आज सूचनात्मक बाल साहित्य बहुत प्रचलित हो रहा है। और हम आपको यह भी बता दें कि यह नया नहीं है। सूचनात्मक बाल साहित्य पहले से ही विद्यमान है। जितनी भी ऐतिहासिक कहानियाॅं, आत्मकथाएं, यात्रा वृतांत आदि साहित्य की विधाएं हैं, इन सबमें सूचनात्मक बाल साहित्य होता है। साहित्य में दो चीजें रहती हैं कल्पना और यथार्थ। सूचनात्मक साहित्य में यथार्थ अधिक होता है, कल्पना बहुत कम।
पवन चौहान- सूचनात्मक बाल साहित्य और सामान्य बाल साहित्य को आप कैसे देखते हैं?
श्री शुक्ल- सूचनात्मक बाल साहित्य और सामान्य बाल साहित्य में कोई विरोध नहीं है। बल्कि वे एक-दूसरे के पूरक हैं। आज भी हमारे बहुत से साहित्यकार जानकारी के अभाव में लिख रहे हैं, जैसे कि कोयल मीठा गाती है या चंदन के वृक्ष में सांप लिपटे रहते हैं। ये सब भ्रामक तथ्य हैं। आप बाल साहित्य की कोई भी विधा लें। मैं यही कहूंगा कि लिखते समय हमारी यही कोशिश रहे कि हम भ्रामक तथ्यों को बच्चों के समक्ष पेश न करें। बच्चों में यदि भ्रामक जानकारी एक बार चली गई तो उसे दूर करना कठिन कार्य हो जाता है।
पवन चौहान- शुक्ल जी आपने सूचनात्मक साहित्य पर काफी काम किया है। आप इसके बारें में हमें और बताएं।
श्री शुक्ल- मैंने अपने बाल साहित्य में सूचनात्मक साहित्य रचने का पूरा प्रयास किया है। ताकि बच्चों तक सही जानकारियां पहुॅंच पाएं। बाल साहित्य पर मेरी 100 से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
पवन चौहान- वर्तमान बाल साहित्य के बारे में आपके क्या विचार है?
श्री शुक्ल- वर्तमान बाल साहित्य में जो नए साहित्यकार आए हैं, वे बहुत अच्छा लिख रहे हैं। उनकी दृष्टि वैज्ञानिक है और उन्होंने बच्चों को ज्यादा निकट से देखा है, समझा है, वे अच्छा काम कर रहे हैं।
पवन चौहान- शुक्ल जी बाल साहित्य में शोध की क्या स्थिति है तथा आगे इसकी क्या संभावना है?
श्री शुक्ल- बाल साहित्य में आज बहुत शोध कार्य हो रहे हैं। बहुत से विश्वविद्यालय बाल साहित्य में शोध करवा रहे हैं और शोधार्थियों की संख्या बढ़ रही है। एम फिल, पी एच डी के साथ डी लिट तक का कार्य शुरु हो चुका है। आज बाल साहित्य को बहुत से विद्यार्थी अपने शोध का विषय चुन रहे हैं। अब तक 200 से ज्यादा शोध कार्य बाल साहित्य पर हो चुके हैं और लगभग 50 से अधिक शोध कार्य वर्तमान में हो रहे हैं। यदि एम फिल को भी इसमें जोड़ दिया जाए तो यह संख्या बहुत आगे तक चली जाती है। उपरोक्त तथ्य इस बात का प्रमाण है कि आज बाल साहित्य विकास के पथ पर अग्रसर है। बाल साहित्य में एक कमी अवश्य है। इसमें समीक्षात्मक किताबों का अभाव-सा है, लेकिन पिछले 5-6 वर्षों में इसमें भी प्रगति हुई है और 100 से अधिक समीक्षात्मक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं।
पवन चौहान- शुक्ल जी आपकी भविष्य में क्या योजनाएं हैं?
श्री शुक्ल- पवन जी, मेरा बहुत-सा साहित्य बिखरा पड़ा है। प्रकाशित होने के साथ अप्रकाशित भी है। मैं अब अपना समग्र तैयार करने का प्रयास कर रहा हूॅं। बाल कहानियों का समग्र तो आ चुका है लेकिन मैं एक ऐसा समग्र चाहता हूॅं, जिसमें मेरा समग्र लेखन एक ही स्थान पर हो।
पवन चौहान- आपने राजकीय पुष्पों, राजकीय पशुओं, राजकीय पक्षियों, राजकीय वृक्षों, राजकीय मछलियों तथा अन्य जीव-जन्तुओं आदि बहुत से विषयों पर लिखा है, इन पर आपकी किताबें प्रकाशित हुई हैं। आप इन सबका बाल साहित्य में योगदान कहाँ तक पाते हैं?
श्री शुक्ल- इन किताबों को आप सूचनात्मक बाल साहित्य के दायरे में रख सकते हैं। जो बच्चों के लिए बहुत ही लाभदायक हैं। बच्चे और बड़े इन्हें पढ़कर कई भ्रामक तथ्यों से बाहर निकलेंगे, ऐसा मेरा मानना है। इसके साथ ही उन्हें बहुत-सी रोचक जानकारियां भी मिलेंगी।
पवन चौहान- शुक्ल जी, आपकी नज़र में सूचनात्मक बाल साहित्य और फैंटेसी में क्या संबंध है?
श्री शुक्ल- पवन जी, ज्यादातर लोग यही समझते हैं कि सूचनात्मक बाल साहित्य और फैंटेसी एक-दूसरे के विरोधी हैं। लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है। आज रोबोट को सब जानते हैं। लेकिन रोबोट किसी समय मात्र एक फैंटेसी थी। चेकोस्लोवाकिया के एक साहित्यकार कौरेल चैपेक ने एक नाटक लिखा था, जिसमें रोबोट पात्र थे। लोगों को यह नाटक बहुत पसंद आया। इसके बाद रोबोट पर फिल्में बनी। अब रोबोट वास्तविक रुप में हमारे सामने आ गया है। वह एक फैंटेसी थी और आज यह विज्ञान है। फैंटेसी के कारण ही इसने हकीकत का रुप लिया है। सूचनात्मक साहित्य के संबंध में ऐसे बहुत से उदाहरण दिए जा सकते हैं।
पवन चौहान- आपकी दृष्टि में बाल साहित्य का भविष्य क्या है?
श्री शुक्ल- पवन जी, बंगाल को छोडकर पूरे देश में बाल साहित्य को दोयम दर्जे का समझा जाता है। जिसके कारण बाल साहित्य को साहित्य में वह स्थान नहीं मिला है, जो इसे मिलना चाहिए। बंगाल में यह स्थिति विपरीत है। वहाॅं जो साहित्यकार बाल साहित्य न रचे तो उसे साहित्यकार नहीं माना जाता है। परंतु खुशी की बात यह है कि वर्तमान में इसमें बहुत सुधार हुआ है। लोगों ने अब बाल साहित्य के महत्व को स्वीकार करना आरंभ किया है। आप अब यह मानकर चल सकते हैं कि बाल साहित्य का भविष्य उज्ज्वल है। बाल साहित्य का महत्व बढ़ेगा इसकी मुझे पूरी उम्मीद है क्योंकि लोगों ने अब समझना शुरु कर दिया है कि बच्चों के चरित्र निर्माण में बाल साहित्य बहुत आवश्यक है। बाल साहित्य के महत्व का एक उदाहरण है भोपाल में हाल ही में हुआ ‘10वाॅं विश्व हिन्दी सम्मेलन’, जिसमें हिन्दी साहित्य पर एक भी सत्र नहीं था। केवल बाल साहित्य पर ही कुछ सत्र हुए। यह बाल साहित्य के बढ़ते हुए महत्व का प्रमाण है।
पवन चौहान- शुक्ल जी, बाल साहित्य को हम बच्चों तक कैसे पहुॅंचा सकते हैं?
श्री शुक्ल- इसके लिए हमें बच्चों के माता-पिता तक पहुॅंच बनानी होगी और अध्यापकों का सहयोग लेना पड़ेगा। हमें पत्रिकाओं को बच्चों तक पहुॅंचाने के लिए माता-पिता के साथ अध्यापकों को भी जागृत करना होगा क्योंकि पत्रिकाएं बिल्कुल ताजा सामग्री लेकर आती हैं। जबकि पाठयक्रम में उसका इतिहास ही हमें मिलता है, उसकी वर्तमान जानकारी नहीं मिल पाती।
पवन चौहान- शुक्ल जी, आप बाल साहित्कारों को कोई संदेश देना चाहेंगे?
श्री शुक्ल- मैं सभी बाल साहित्यकारों से बस यही कहना चाहूॅंगा कि आप जो भी लिखें, बच्चों के हित-अहित को ध्यान में रखते हुए लिखें। भ्रामक बातें न लिखकर उन्हें हक़ीक़त से रुबरु करवाने की कोशिश करें। आप ऐसे बाल साहित्य का सृजन करें, जिसमें बच्चों के मनोरंजन के साथ ही उनका नैतिक विकास और ज्ञानवर्धन हो।
पवन चौहान- धन्यवाद शुक्ल जी ‘हस्ताक्षर’ समय देने के लिए। मुझे पूरी उम्मीद है कि आपसे साक्षात्कार करना, हस्ताक्षर के पाठकों के लिए उपयोगी और ज्ञानवर्धक होगा।
श्री शुक्ल- पवन जी आपका भी धन्यवाद।
– पवन चौहान