पाठकीय
बाल-विशेषांक अनुपम, अद्वितीय और अनूठा अंक: शिवम यादव ‘खेरवार’
सर्वप्रथम पत्रिका की संस्थापक व महोदया प्रीति ‘अज्ञात’ जी, प्रधान संपादक के. पी. अनमोल जी और अतिथि संपादक आ. पवन चौहान जी को पत्रिका के नवम्बर अंक (बाल विशेषांक) के इस अनुपम, अद्वितीय और अनूठे अंक को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए बधाई देता हूँl और उन सभी रचनाकारों का हार्दिक आभारी हूँ, जिन्होंने इस विशेषांक के लिए लिए अपनी रचनाओं का योगदान दिया और इसे अमूल्य अंक बनायाl साथ ही अतिथि संपादक महोदय पवन चौहान जी और समस्त संपादन मंडल का आभारी हूँ, जिन्होंने मेरे बाल गीत ‘मदारी’ को इस अमूल्य अंक में स्थान दियाl
बाल विशेषांक का आवरण देखते ही मन लुभा लेने वाला हैl बच्चों की मुस्कान कितनी प्यारी होती है नl सारे छल-कपट, दोषों से रहितl आज भी अपने बचपन की यादों के पन्ने जब भी पलटता हूँ तो चेहरे पर मुस्कान आ ही जाती हैl संपादकीय के अंतर्गत प्रीति ‘अज्ञात’ जी के लेख मैं बिलकुल भी पढना नहीं भूलताl प्रीति दीदी के लेख अत्यंत गहराई और यथार्थता के साथ लिखे हुए होते हैं, जिनसे हर माह कुछ अच्छा और नया सीखने को मिलता हैl इस बार भी प्रीति दीदी ने ‘खोते हुए बचपन’ को पाठकों के सामने प्रस्तुत किया हैl बात सही भी है, इस भाग-दौड़ भरी जिंदगी की ऊहा-पोह में आज माता-पिता को क्या इतना भी वक्त नहीं है कि अपने बच्चों के साथ बैठकर उनके मन की बात को जानें, समझें और अपने मन की बात को उन्हें बताएंl
अगर समय के अनुरूप यही रवैया रहा तो बच्चा अपनी व्यथा को लेकर ‘चिंतित’ और ‘विचारों से घिरा हुआ’ तो रहेगा ही, साथ ही माँ-बाप और अभिभावक भी मन की व्यथाओं और चिंताओं से घिरे रहेंगेl
बचपन हर इंसान की जिंदगी की पहली सीढ़ी होता हैl और अगर पहली सीढ़ी ही मजबूत नहीं बनी हो तो आगे की सीढियां कैसे मजबूत बन पाएंगी? इसलिए बचपन को सशक्तता प्रदान करना आज 21 वीं सदी के ‘टेक्निकल युग’ में बहुत आवश्यक हो गया हैl
आज यदि बचपन खोता हुआ नज़र आ रहा है तो उसके सिर्फ दो कारण हैंl पहला- ‘अभाव’ और दूसरा- ‘आज के युग में टेक्निकल संसाधन और गैजेट्स की प्रचुरता और सहज उपलब्धताl’ एक तरफ कहीं बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा का अभाव है, पहनने के लिए वस्त्रों का अभाव है, दो वक़्त की रोटी का अभाव है वहीं दूसरी तरफ कहीं बच्चों के लिए संसाधनों की प्रचुरता है और सहज ही उपलब्ध हो जा रहे हैंl अब बात आती है कि वे बच्चे जिन्हें गैजेट्स आदि की आदत पड़ी है, क्या वे व्यवहारकुशल हो पाएँगे? क्या उनमें जिंदगी से जुड़े तथ्यों को सीखने की जिज्ञासा व रोचकता रहेगी? बिलकुल नहींl
और एक तरफ वे बच्चे हैं जिनका बचपन अभावों में बीता जा रहा हैl इन बच्चों को आप कई जगह बाल श्रमिक के तौर पर भी देख सकते हैंl अभी कुछ दिनों पहले मैं अपनी साइकिल सही कराने एक दुकान पर पहुंचाl गलन और ठिठुरन भरी ठण्ड में उस बच्चे के पास तन पर सिर्फ एक शर्ट और एक पतलून थीl मैंने उससे पूछा कि- बेटा, ठण्ड नहीं लग रही? जवाब मिला- “भैया ठण्ड तो लग रही है पर कपड़े नहीं हैंl” मुझे दुःख हुआ और खुद पर खेद भी कि अभावों के चलते मैं उस बच्चे की कोई मदद नहीं कर पायाl
अभावों में बचपन की ज़रूरत के मुताबिक़ संसाधन उपलब्ध भले ही नहीं हो पाते, परन्तु इन बच्चों से एक बात जो हमें सीखने को मिलती है, वह है व्यवहारकुशलताl जो जीवन को सार्थक करने के लिए हर इंसान के व्यक्तित्व में होनी चाहिएl क्योंकि समाज के प्रति हमारा व्यवहार ही हमें ज़मीन से शिखर तक या फिर शिखर से ज़मीन तक ले जाएगाl
अतिथि संपादक महोदय आ. पवन चौहान जी ने भी इसी बात पर ज़ोर डाला है कि एक समय वह था, जब बच्चे अपने दादा-दादी, नाना-नानी, मम्मी-पापा के साथ बैठकर कुछ मज़ेदार किस्से, प्रेरणादायी कहानियों से बहुत कुछ सीखते थेl जिसका सबसे बड़ा फायदा यह होता था कि बचपन में ही बच्चों में अच्छे-बुरे, सही-गलत की समझ विकसित हो जाती थी और सामजिक स्तर पर भी व्यवहार कुशल हो जाते थेl साथ ही बच्चे अपने मन के भावों, विचारों को परिवारीजनों के समक्ष रखने में सक्षम थेl संयुक्त और एकल परिवार के फायदे और नुकसान की पृष्ठभूमि को भी बखूबी उकेरा है उन्होंनेl तब के और आज के समय में बहुत बदलाव आया हैl शायद यही ‘जनरेशन गैप’ हैl
हर माता-पिता अपने बच्चे को एक अच्छा बचपन देना चाहते हैं, अच्छे संस्कार देना चाहते हैं पर क्या वे ऐसा कर पाए हैं? अगर नहीं, तो ये सबसे बड़ा प्रश्न है जिसका उत्तर उन्हें खुद से पूछने पर ही प्राप्त होगाl
मेरे सुनने में आता था कि बाल-साहित्य पढने वालों की संख्या बहुत कम हैl पर प्रीति दीदी से जब पता चला कि हस्ताक्षर के बाल-विशेषांक के लिए पिछले सभी अंकों से ज्यादा रचनाएँ प्राप्त हुई हैं तो यह मिथक भी टूट गयाl बाल-साहित्य बच्चों के आधार और उसकी परिपाटी को मजबूत बनाने में अत्यंत सहायक हैl मैंने कई जगह अपनी आँखों से देखा है की यदि बच्चे चम्पक, नंदन जैसी बाल-पत्रिकाओं को पढ़ते हैं तो माता-पिता उन्हें डांटते हैं और उनके कोर्स की पुस्तकों को पढने के लिए कहते हैंl और यदि बच्चे किसी तरह की सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों में भाग लेते हैं तो हम उन्हें रोकते हैंl आखिर क्यों?
बस यहीं पर माँ-बाप सबसे बड़ी गलती करते हैंl बच्चे को जब बचपन की परिभाषा और उसका मतलब ही नहीं पता होगा तो वह अपने बचपन को कैसे अच्छा बना पाएगा? कैसे समझेगा कि पाठ्यक्रम की दुनिया के बाहर भी एक दुनिया है, जिसमें आगे चलकर उसे अपनी जड़ें जमानी हैं? नतीजे ये निकलते हैं कि बच्चा हमसे दूर होने लगता है और वो ज्यादा से ज्यादा हमसे दूर रहने की, बचने की कोशिश करता हैl और उसे वो माहौल नहीं मिल पाता, जो उसके लिए आवश्यक हैl जबकि होना ये चाहिए कि यदि बच्चा इस तरह की गतिविधियों में शामिल होता है या पत्रिका पढता है तो हमें भी जिज्ञासा के साथ उसकी इस रूचि का प्रोत्साहन करना चाहिएl इससे बच्चे हमें भी समझ सकेंगे और हमसे खुलकर अपने विचार भी साझा कर पाएंगेl
इस बात को हम ‘ज़रा सोचिये’ स्तम्भ के अंतर्गत आ. दीनदयाल शर्मा और ऊषा छाबड़ा जी के आलेखों को पढ़कर समझ सकते हैंl
डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा जी ने अपनी लघुकथा ‘कथनी-करनी’ में बहुत ही अच्छे विषय को दर्शाया हैl दो बच्चे जिनसे पूरा गाँव एक सीख लेता है और पूरा गाँव स्वच्छता की ओर एक ऐतिहासिक कदम बढ़ाता हैl ठीक इसी तरह आदरणीया वंदना सही ने भी ‘माँ की सीख’ कथा में बच्चों के लिए एक नयी सीख दी है कि माता-पिता की बात न मानने से भी कितना बड़ा भुगतान करना पड़ सकता हैl रावेन्द्र कुमार ‘रवि’ जी ने भी चिड़िया और बच्चे को प्रतीक रूप में लेकर ख़ुशी का बखान किया हैl दोनों पक्षियों को बच्चे की हंसी, उसके वस्त्र और उसकी हरकतों से ख़ुशी मिलती है और बच्चे को चिड़ियों के खुले आकाश में घूमने से ख़ुशी मिलती हैl हमें भी अपने जीवन में हर किसी को ख़ुशी, हँसी बाँटते हुए चलना चाहिएl अगर हमारी वजह से किसी को ख़ुशी मिलती है और उसके चेहरे पर मुस्कान आती है तो हमें ये पुण्य अवश्य करना चाहिएl अंकिता जी ने अपनी कहानी ‘क्रिस्टी समझ गई’ में जल के महत्व को रेखांकित किया हैl
आ. प्रभुदयाल श्रीवास्तव ने अपनी कविता ‘कम्प्यूटर पर चिड़िया’ में चिड़िया को प्रतीक बनाकर बच्चों के साथ-साथ बड़ों को भी बहुत अच्छी सीख दी हैl देखिये बहुत सुन्दर पंक्तियों में आदरणीय ने इसका बखान किया है-
कम्प्यूटर पर बहुत देर तक,
बैठी चिड़िया रानी।
जोर पड़ा गर्दन पर इससे,
आई तेज सुनामी।।
कम्प्यूटर पर बहुत देर मत,
बैठो मेरे भाई।
बहुत अधिक जो बैठा उसको,
यह बीमारी आई।।
आजकल बच्चों और बड़ों को अक्सर कंप्यूटर पर कई घंटे बिताते देखा जाता है, जिससे उनमें, तनाव, चिड़चिड़ापन, आँखों की रौशनी आदि से जुड़ी हुई समस्याएं देखने को मिलती हैंl इन समस्याओं का समाधान भी प्रभुदयाल जी ने इस सारगर्भित कविता में बखूबी बता दिया हैl
एक और कविता ‘बस्ता’ जो मुझे बहुत पसंद आई, जिसे परशुराम शुक्ल जी ने सुन्दर शब्दों में ढाल दिया है-
मम्मी कैसे इसे उठाएं,
बस्ता मेरा भारी।
रोज लादना पड़ता इसको,
यह मेरी लाचारी।
सही ही तो कहा है, छोटे-छोटे कन्धों पर इतना वजन! बच्चे स्वाभाविक और निश्चित तौर पर परेशान हो ही जाएंगेl जब बच्चे स्कूल से आते-आते थक ही जाएँगे तो खेलने में कहाँ से मन लगेगा? बेचारा बच्चा बस्ते में रखी हुई कई कॉपी-किताबों को देखकर ही दुविधा में पड़ जाता है कि क्या पढूं और क्या न पढूं? ऐसे में बच्चे का मन पढाई में कैसे लगेगा? जबकि सही मायने में विद्यालय का पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए कि बच्चे को कम से कम पढने में तकलीफ तो न होl
‘ग़ज़ल गाँव’ स्तम्भ के अंतर्गत मुझे एक बार फिर लक्ष्मी खन्ना ‘सुमन’ जी की ग़ज़लें पढने का मौका मिलाl ये गज़लें मुझे ताउम्र याद रहेंगी, क्योंकि जो सवाल बचपन में मैं खुद से करता था, उन विचारों को ‘सुमन’ दादा ने कह दियाl उनकी ग़ज़ल ‘मच्छर’ के दो शेर देखिये-
शाम घिरे तो आते मच्छर
कानों में कुछ गाते मच्छर
कितना ही हम ढँक लें खुद को
पर हमला कर जाते मच्छर
‘सुमन’ जी ने बच्चे के द्वारा मासूमियत के साथ किये गए सवालों और जवाबों को सुन्दर, सारगर्भित ग़ज़ल में पिरो दिया, यही इनकी गज़लों की खासियत हैl
प्रधान सम्पादक महोदय और बड़े भाई के. पी. ‘अनमोल’ जी ने अपनी ग़ज़ल में हम सभी से एक सरल किन्तु बहुत बड़ा सवाल कर दिया है, जिसका जवाब शायद हम सभी जानते हैं, पर देना नहीं चाहतेl ‘अनमोल’ जी की ग़ज़ल के तीन शेर कुछ इस प्रकार हैं-
बताओ न पापा ये क्या हो गया है
कि बचपन कहाँ गुमशुदा हो गया है
पढ़ाई पढ़ाई पढ़ाई पढ़ाई
हरिक पल मेरा बोझ-सा हो गया है
न ही माँ की लोरी, न कोई कहानी
मज़ा नींद का बे-मज़ा हो गया है
कहीं हम ही तो अपने बच्चे का बचपन नहीं छीन रहे? कहीं हम ही तो उनके ‘खोते हुए बचपन’ के जिम्मेदार नहीं हैं? हम अच्छी तरह से समझते हैं कि हमारा बच्चा क्या चाहता है और वह किस क्षेत्र में अपना अच्छा प्रदर्शन कर सकता हैl किन्तु हम फिर भी अपनी इच्छाओं को उन पर थोप देते हैं और यदि उनके प्रदर्शन का स्तर अच्छा नहीं रहता तो हम सारा ठीकरा बच्चों के माथे फोड़ देते हैंl क्या ये हम सही करते हैं? क्या हम अपने विवेक से कोई कदम उठाते हैं? अगर नहीं तो ये चिंतन का विषय हैl हमें बच्चों की पढाई के साथ-साथ उनकी आकांक्षाओं और अभिलाषाओं को भी ध्यान में रखना चाहिएl
‘धरोहर’ स्तम्भ के अंतर्गत श्रीधर पाठक जी, मुंशी प्रेमचंद जी, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ जी की रचनाओं को सम्मिलित किया हैl बचपन में अक्सर जब मैं देर तक सोता रहता था तो माँ मुझे अयोध्या सिंह जी की इन पंक्तियों के साथ जगाया करतीं थीं-
उठो लाल अब आँखें खोलो,
पानी लायी हूँ मुँह धो लो,
बीती रात कमल दल फूले,
उनके ऊपर भौंरे झूलेl
जब मैंने पत्रिका में यह रचना पढ़ी, तब जाकर मुझे पता चला कि यह कविता ‘हरिऔध’ जी के द्वारा कही गई हैl जिसमें ‘हरिऔध’ जी ने भोर के साथ प्रकृति का अत्यंत सुन्दर सौन्दर्यीकरण किया हैl
‘उभरते स्वर’ स्तम्भ के अंतर्गत चार नन्हे रचनाकारों की रचनाओं को शामिल किया गया है, जिनसे इस विशेषांक को और भी ज्यादा खूबसूरती मिली हैl सुहानी, नूरेनिशाँ, सृष्टि, और अमीषा ने सुन्दर कविताएँ लिखकर एक नया कीर्तिमान रच दिया हैl ये बच्चे इतनी छोटी उम्र में इतना अच्छा, सुसज्जित और भावनात्मक लिख रहे हैं और यदि इसी प्रकार निरंतर लिखते रहे तो निश्चित ही जगत के लिए ये एक धरोहर बनेंगेl
‘आलेख-विमर्श’ और ‘ज़रा सोचिये’ स्तम्भ हर किसी पाठक को जरूर पढने चाहिए और इनसे मिले तथ्यों को अमल में भी लाना चाहिएl
‘आलेख-विमर्श’ के अंतर्गत डॉ. सुधा गुप्ता जी ने बच्चों के लिए कविता के महत्त्व को बताया हैl डॉ. शशांक शुक्ला जी ने बाल-साहित्य की उपेक्षा जैसे विषय का बखान किया हैl बाल-साहित्य भी पूरे विश्वास के साथ अपनी बात सभी के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है, इसे शशांक जी के लेख से समझा जा सकता हैl
हिंदी की नाट्य विधा ‘नाटक’ को भी इस बार के अंक में शामिल किया गया हैl आ. बलराम अग्रवाल जी ने अपने नाटक ‘पेड़ बचेंगे तभी बचेंगे जीव’ में हमारे जीवन में पेड़ों की महत्ता को बताया हैl पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से हमें क्या नतीजे भुगतने को मिलेंगे, लेखक महोदय ने इसका बहुत ही सटीक, और गंभीर चित्रण किया हैl
हमारा धरती पर जन्म किसलिए हुआ है? मानव का कार्य क्या होना चाहिए? मानवता की परिभाषा को घमंडी लाल अग्रवाल जी ने अपने इस संक्षिप्त मुक्तक में कह दिया है-
किसी के वास्ते उड़ान बनो,
किसी के वास्ते ढलान बनो।
बनो खुशबू किसी की खातिर तुम
किसी के वास्ते जहान बनो।।
‘गीत गंगा’ में आ.संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी, शिवानन्द सहयोगी जी, सौरभ पाण्डेय जी के गीतों ने भी मन लुभा लियाl डॉ. आरती कुमारी जी का गीत ‘नवयुग का निर्माण करो’ हम सभी को सोचने पर बाध्य करता हैl साथ ही हमसे कई प्रश्न भी करता है कि क्या हम केवल जाति, धर्म, सम्प्रदाय पर ही बातें, झगड़ा कर अपने जीवन को व्यर्थ कर देंगे? क्या हम दुखियारों के चेहरे से शिकन की एक लकीर भी नहीं मिटा सकते? क्या हम संसार में खुशियाँ नहीं लुटा सकते? क्या हम अपने देश, संस्कृति और सभ्यता की रक्षा नहीं कर सकते? अगर नहीं, तो हमारा मानव होना ही निरर्थक हैl और अगर हाँ, तो हमें आज ही अपने हृदय में एक ‘नवयुग के निर्माण’ के लिए एक चिंगारी पैदा करनी होगीl तभी हमारे समाज का उत्थान होगा, तभी हमारा मानव समुदाय सफलता के नए आयाम गढ़ेगाl
जयप्रकाश मानस जी, दिविक रमेश जी, अनुप्रिया जी, अनुपमा तिवारी जी, अजय श्री जी, सागर दत्त जी, असमा सुबहानी जी, प्रत्युष गुलेरी जी, रमेश राज जी, ज्योतिकृष्ण वर्मा जी, रमेश राज जी, लव कुमार जी ने अपनी कविताओं में बहुत ही खूबसूरती के साथ समझने योग्य बातों पर जोर डाला हैl साथ ही, गोविन्द शर्मा जी, विभा रश्मि जी, डॉ. मंजरी शुक्ला जी, प्रकाश मनु जी, पवित्र अग्रवाल जी, कृष्णचन्द्र महादेविया जी, सुधा विजय जी, उपासना बेहार जी ने भी अपनी कथाओं को बहुत अच्छी तरह से शब्दों में सुन्दर आकार दिया हैl सभी रचनाकारों की रचनाएँ कहीं न कहीं हमसे एक गंभीर सवाल भी करती हैं और हमसे उस सवाल का जवाब भी मांगती हैं l आशा करता हूँ कि हम इन प्रश्नों का उत्तर देने में सक्षम हो सकेंगेl
– शिवम खेरवार