जो दिल कहे
‘बाल-दिवस’ पर अभिभावकों से एक संवाद-
उड़ने दो परिंदों को अभी शोख हवाओं में
फिर लौट कर बचपन के जमाने नहीं आते।
……………@बशीर बद्र
यह ठीक है कि माता-पिता ही संतान को जन्म देते हैं; पर संतान क्या उनकी ऐसी व्यक्तिगत संपत्ति है, जिसे वे लोग जब चाहे नष्ट कर दें? यह जीवन किसकी संपत्ति है? कौन इसे उत्पन्न करता है और किसे इसको नष्ट करने का अधिकार है? क्या संतति का जन्म प्रकृति का विधान नहीं है? क्या स्त्री पुरुष उस विधान के उपकरण मात्र नहीं हैं? प्रकृति स्त्री-पुरुष के माध्यम से अपनी सृष्टि को आगे चलाती है; तो जीवन किसी स्त्री अथवा पुरुष की संपत्ति कैसे हैं।
बच्चा केवल मां बाप की ही संपत्ति नहीं होता, बल्कि वह पूरे समाज का होता है, क्योंकि एक संतुष्ट और खुशहाल दुनियां के निर्माण में वह भी एक ही इकाई के रूप में अपना योगदान देता है। इसलिए बच्चे की सही परवरिश वस्तुतः दुनिया की बेहतरी के लिए उठाया गया कदम है।
खलील जिब्रान ने कहा है ‘तुम्हारे बच्चे तुम्हारे बच्चे नहीं है। वे स्वयं में जीवन की लालसा के पुत्र और पुत्रियां हैं। वे तुम्हारे माध्यम से आए हैं, तुमसे नहीं और भी तुम्हारे साथ रहते हैं, फिर भी तुम्हारे नहीं है। तुम उन्हें अपनी मोहब्बत दे सकते हो, लेकिन अपनी सोच नहीं दे सकते, क्योंकि उनके पास अपनी सोच है। तुम उन्हें रहने का ठिकाना दे सकते हो, पर उनकी आत्मा को पनाह नहीं दे सकते, न हीं तुम उनके सपनों को चारदीवारी में घेर सकते हो। तुम उनकी तरह बन जाओ, पर कभी यह मत कहो कि वह तुम्हारी तरह बनें।‘
पाठशाला में जाकर बच्चे सदाचरण सीखेंगे, ऐसी आशा करना व्यर्थ है। बच्चा जिस क्षण जन्म लेता है, उसी क्षण से उसकी शिक्षा शुरू हो जाती है और उसी समय से उसे शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक या धार्मिक शिक्षा मिलने लगती है। यदि माता-पिता अपने बच्चों के प्रति अपने कर्तव्यों का ठीक तरह से पालन करें, तो वे कितने ऊँचे उठ सकते हैं, इसका अनुमान लगाना भी संभव नही है। पर यदि बच्चों को अपनों की तरह रखकर उन पर नाहक प्रेम की वर्षा की जाये, अनुचित प्रेम के वशीभूत हो उन्हें मिठाई, सुंदर सुहावने वस्त्र आदि द्वारा बचपन से ही बिगाड़ते चलें, मिथ्या स्नेह के कारण उन्हें जैसा चाहे करने दें, स्वयं धन के लालच में पड़े रहें और बच्चों में भी पैसे की लालसा जगाएं, विषयों में लिप्त रहकर बच्चों के सम्मुख भी वैसा ही उदाहरण पेश करें, आलसी रहकर उन्हें भी आलसी बनाएं, गंदे रहकर उन्हें भी गंदगी सिखायें, झूठ बोलकर उन्हें भी झूठ बोलना सिखायें तो फिर हमारी संतान निर्बल, अनैतिक, झूठी, विषयी, स्वार्थी और लालची बन जाये तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है? इस बातों पर विचारवान माता-पिता को बहुत कुछ सोच-विचार करना चाहिये। भारत वर्ष का आधा भविष्य माता-पिता के हाथ में है।
आज की शिक्षा सुविधापूर्ण जीवन-यापन के लिए दी जा रही है। शिक्षा देने-लेने की प्रक्रिया में भी खास ध्यान रखा जाता है। वे ही शैक्षणिक संस्थाये सबसे अधिक चलती हैं, जिनके पास सबसे अधिक सुविधा होती हैं। क्योंकि आज मॉं-बाप भी बच्चों से शारीरिक परिश्रम का काम नहीं लेते हैं जिसके कारण वे शारीरिक रूप से सबल नहीं हो पाते है। कोर्इ काम करना पड़ जाए, तो बहुत जल्दी ही उनका दम फूलने लगता है। वे बहुत जल्दी थक जाते हैं। प्रधानमंत्री पं. नेहरु ने कहा था कि ‘आराम हराम है’। किन्तु आज हम उसी “हराम” के पीछ भागते दिखार्इ दे रहे हैं, हमारे समाज में आज सबसे बड़ा आदमी वही माना जाता है, जो सबसे ज्यादा सुख से रहता है।
शिक्षा जीवन जीने की कला है। किन्तु हम कला के नाम पर कुछ नहीं सीखते हैं। जो लोग पढ़ार्इ न सीख कर कोर्इ हुनर सीख लेते हैं, वे हर मामले में काफी आगे देखे जाते हैं। आजकल व्यवसाय में जो लोग आगे हैं, वे इसी प्रकार की कला में पारंगत लोग हैं। आजकल जिस प्रकार की शिक्षा विद्यालयों में दी जा रही है, उसका व्यावहारिक जीवन से साथ कोर्इ सीधा सरोकार नहीं दिखता है। इस कारण थोड़ी सी विपरीत परिस्थिति आने पर क्या किया जाये, समझ नहीं आता है। इस प्रकार के ज्ञान की क्या उपयोगिता है। भारतीयता से दूर, पाश्चात्य तौर-तरीके ही आधुनिक होने के मापदंड बनते जा रहे हैं।
आज पढ़ने-लिखने का मतलब कुर्सी पर बैठ कर हुक्म चलाना हो गया है। पढ़े-लिखे लोगों को काम करने में लज्जा का अनुभव होता है। इसलिए समाज की हालत दिनों-दिन खराब होती जा रही हैI बुद्धि और हाथ का उपयोग सम्यक रूप से नहीं हो पा रहा है। इसे भारत का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आज ज्ञान और कर्म के बीच तारतम्य समाप्त हो गया है। काम करने वाले के पास ज्ञान नही पहुँचता और ज्ञानी काम करना नहीं चाहता है। आजकल विद्यार्थी, विद्यार्थी न रहे, परीक्षार्थी हो गये हैं।
मनुष्य का विकास और उन्नति बिल्कुल ही कृत्रिम है, स्वाभाविक नहीं। जन्म लेने के पश्चात बोलने, चलने आदि की क्रियाओं से लेकर बड़े होने तक सभी प्रकार का ज्ञान प्राप्त करने हेतु उसे दूसरों पर ही आश्रित रहना पड़ता है, दूसरे ही उसके मार्गदर्शक होते हैं। आज जितना बुद्धि-वैभव और भौतिक उन्नति हमें नजर आती है, वह पूर्वजों की शिक्षाओं का प्रतिफल है। उसके लिए हम उन के ऋणी हैं। वे ही हमारे परोक्ष शिक्षक हैं। यह परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है। अतः सामान्यतः कहा जा सकता है कि मानव की उन्नति की साधिका शिक्षा है अतः सृष्टि के आदि, वेदों के आविर्भाव से लेकर आज तक मानव को जैसा वातावरण, समाज व शिक्षा मिलती रही वह वैसा ही बनता चला गया, क्योंकि ये ही वे माध्यम हैं, जिनसे एक बच्चा कृत्रिम उन्नति करता है और बाद में अपने ज्ञान तथा तपोबल के आधार पर विशेष विचार-मन्थन और अनुसन्धान द्वारा उत्तरोत्तर ऊँचाइयों को छूता चला जाता है। यदि शिक्षा समाज में रहकर दी जा रही है तो उसका प्रभाव शिक्षार्थी पर पड़ना अवश्यम्भावी है। वह वैसा ही बनता है जैसा समाज है।
इस संसार में विद्या दो कारणों के लिए प्राप्त की जाती है। पहला कारण जो सबसे प्रमुख है, वह है धन। धन का अर्थ मात्र पैसा नहीं है, उसमें नाम, सम्मान, यश आदि भी हैं। दूसरा कारण है जो बहुत ही कम लोग आपनाते हैं, वह है ‘स्वाध्याय- स्टडी फॉर सेल्फ’। अर्थात ऐसे लोग जिनके लिए अध्ययन करना रसयुक्त है। यदि हम अपने अतीत को ध्यान से परखे तो पायेंगें कि कई विषयों पर हमें इतना अधिक ज्ञान होता है कि यदि इस विषय से सम्बंधित कार्य हम करते, तो जीवन में बहुत सफल होते। वह विषय हमें इसलिए रुचिकर लगता है, क्यूंकि उसे पढने में हमें आनंद की अनुभूति होती है। जो विषय हम नंबर के लिए पढ़ते हैं, उसका अध्ययन हमें सजा जैसी लगती है।
हमें अपने बच्चों के टेलेंट/गुणों पहचान कर अपने बच्चों को उस तरफ अग्रसित करने में सहयोग देनी चाहिए। इस धारणा को हमें मन से मिटाना ही होगा कि लोग क्या कहेंगें। यदि पुत्र को भोजन बनाने में ही रूचि है तो हमें उसे कुकिंग की ही तरफ बेहतर से बेहतर उच्च-शिक्षा दिलाने की कोशिश करनी चाहिए, बिना इस बात की चिंता करने के, कि लोग हँसेंगे। आज हमारे समक्ष उदाहरण के तौर पर जहाँ संजीव कपूर, विकास खन्ना, कुणाल……जैसे बेहतरीन शैफ हैं तो वहीँ अवनि, मोहना और भावना जैसी लड़ाकू विमान उड़ाने वाली महिला पायलट अपनी सेवा और लगन से इस मिथक को तोड़ने में सफल हुए हैं। ध्यान रखिये कि ‘अंतिम ठहाका वही लगता है जिसपे दुनिया हँसती है’। बच्चों से संवाद करें। उसके दिल की बात को समझने की चेष्टा करें……तब ही बाल दिवस मनाने की सार्थकता पूरी होगी।
‘सा विद्या या विमुक्तये’ का अर्थ ही है ज्ञान वही है जो हमें मुक्त करे। हमारे मस्तिष्क को खाली करे, पर हमारी पुरी वर्तमान शिक्षा-पद्यति बच्चों के कोरे-मन में सब कुछ भर देने की प्रक्रिया में लगाई जाती है। हमें अब इस सोच को अब बदलना ही होगा। इस संसार में सब को किसी न किसी जगह अपना सबसे बेहतर प्रदर्शन करने का मौका मिलता है। ध्यान रहे कि माँ-बाप अपने बच्चों के लिए रॉकेट के उस ‘लौन्चिंग-पैड’ की भूमिका में होते हैं जो अपने बच्चे को अंतरिक्ष की ऊँचाई तक पहुंचाने में सबसे प्रमुख सहयोगी बनते हैं। अतः आज आपके-हमारे बच्चों को प्रकृति ने जहां भी विराजमान किया है, वही उसके जीवन रूपी रॉकेट का लौन्चिंग पैड बनने में हमें अपना पूर्ण सहयोग एवं समर्थन देना होगा ताकि वे अपने-अपने हिस्से के आसमान को खोज सकें। क्योंकि आज तक ऐसा कोई पैमाना नहीं बना है, जो बच्चों की योग्यता को माप सके।
– नीरज कृष्ण