बाल-वाटिका
बाल कविता- मेला
गुनगुन, मुनमुन और गुड़िया
संग में सृष्टि रानी।
चले देखने मेला सब मिल
साथ थी उनकी नानी।।
रंग-बिरंगे गुब्बारों की
एक सजी थी टोली।
बिकने आए बम पटाखे,
बन्दूकों की गोली।।
पानी-पापड़, रसभरी मिठाई
रसगुल्ले और जलेबी।
रंग-बिरंगी सजी थीं गुड़ियाँ
लगतीं जैसे देवी।।
रानी ने तलवार खरीदी
गुड़िया ने बिछौना।
गुनगुन ने बिच्छु-सांप
मुनमुन खेल-खिलौना।।
नानी बोली सृष्टि आओ
बात सुनो मेरे मन की।
इन गुब्बारों ने याद दिला दी
मुझे मेरे बचपन की।।
लोगों की भीड़ भरी है
और समानों का रेला।
शोर सुहाने सुंदर लगते
ये है अपना मेला।।
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बाल कविता- रेल
आओ मुनमुन गुनगुन आओ
हम सब मिल खेलें खेल।
मैं इंजन तुम रेल के डिब्बे
पूरी हो जाये अपनी मेल।।
छुक-छुक छुक-छुक बढ़ते जाओ
प्यास लगे तो पानी पी लो।
भूख लगे तो खाना खाओ
चलते जाओ चलते जाओ।।
कभी बलिया कभी बनारस
कभी दिल्ली कभी देहरादून।
मेरे संग तुम भी भ्रमण करो
पूरा भारत दोनो जून।।
– सुशील कुमार शुक्ल