रचना-समीक्षा
बालमन की कोमल भावनाओं की खूबसूरत अभिव्यक्ति ‘दादी जी के पास’: के. पी. अनमोल
कुछ दिनों से अपने एक साथी रचनाकार की रचनाएँ पढ़कर बड़ा प्रभावित हूँ। यह रचनाकार अधिकतर बाल रचनाएँ लिखता है। सहज, सरल शब्दावली के साथ इसकी रचनाओं की एक ख़ासियत उनकी लयात्मकता भी है। प्रभावी गेयता के साथ बचपन से जुड़े अहसासों को यह रचनाकार इतना डूब कर लिखता है कि आप इन्हें पढ़कर झूमने को मजबूर हो जायेंगे।
नोएडा में रहने वाले भाई शादाब आलम की रचनाओं की उत्कृष्टता का आलम यह है कि उनमें शब्द-शब्द जैसे जड़ा हुआ सा रहता है। शब्दों की कसावट कुछ इस तरह की होती है जैसे बड़े क़रीने से किसी प्लेट में मिठाई के ‘पीसेज’ सजा रखे हों और न चाहते हुए भी प्लेट की सुंदरता देख आप मिठाई उठाकर खाने के लिए मजबूर हो जाएँ। लेकिन इनकी रचनाओं की बात सिर्फ शब्दों की सजावट पर ही ख़त्म नहीं होती, बल्कि जब आप इनकी रचनाओं का रसास्वादन करेंगे तो निस्संदेह उनसे मिठाई का ही स्वाद पायेंगे।
अभी तक मैंने शादाब भाई की जितनी भी बाल रचनाएँ पढ़ी हैं, उनमें गीत विधा की रचनाओं की संख्या अधिक रही। गीत तो वैसे ही सदियों से हमारे लिए गाने, गुनगुनाने और झूमने का साधन रहे हैं और फिर वो बचपन के अहसासों में पगे हों तो कहना ही क्या!
अभी कुछ दिनों पहले भोपाल से प्रकाशित होने वाली एक साहित्यिक पत्रिका ‘साहित्य समीर’ ने बाल-विशेषांक निकाला है, उसी में शादाब भाई का एक बालगीत ‘दादी जी के पास’ पढ़ने का अवसर मिला। गीत में रचनाकार ने एक बच्ची के मन में पैठ उसकी कोमल भावनाओं को बेहद खूबसूरत ढंग से अभिव्यक्ति दी है। गीत के माध्यम से शादाब भाई ने जीवन के कई महत्त्वपूर्ण पहलुओं को छुआ है। बच्चों की शैतानियों से तंग आकर एक माँ का उसे डांट देना, बच्चे द्वारा उस अनायास डांट से दुखी हो माँ से चिढ़ जाना और फिर खीज के मारे फ्रस्टेशन के साथ मन की बात कह जाना, एक दादी माँ और बच्चे का प्यार भरा संबंध और फिर दिनभर की भागदौड़, धमाचौकड़ी आदि को परे रख दादी की गोद में दुनिया को भूलकर मज़े से कहानी सुनते-सुनते सो जाना जैसे विभिन्न पहलुओं को समेटता यह गीत आज के प्रोग्रेसिव लेकिन तनहा जीवन के लिए एक नुस्खे के रूप में भी दीखता है।
आज के भौतिकतावादी दौर में जहाँ बचपन दादा-दादी, नाना-नानी, बुआ-चाचा जैसे क़रीबी रिश्तों से भी बेख़बर होता जा रहा है और निरंतर उपकरणों की नज़र से दुनिया को समझने की कोशिश कर रहा है, वहां हमें ये चाहिए कि हम बचपन की इन महत्त्वपूर्ण ‘संस्थाओं’ को हर संभव प्रयास कर अपने बच्चों को उपलब्ध कराएँ। क्यूंकि बचपन के लिए जितना ज़रूरी किताबों और दुनिया को समझना है, उतना ही ज़रूरी है इंसानियत को समझना और इंसानियत की समझ अपने बुज़ुर्गों से बेहतर किसी इंस्टिट्यूट में नहीं मिल सकती।
प्रस्तुत गीत में शिल्प का सौन्दर्य जितनी परिपक्वता से मिलता है, भावनाओं का चित्रण भी उतनी ही सुंदरता के साथ देखने को मिलता है। एक बच्ची की यह चाहत कि वह हरदम अपनी दादी माँ के पास रहना चाहती है, सुनकर अनायास ‘आमीन’ कहने को मन करता है।
पत्रिका साहित्य समीर व बाल विशेषांक के संपादक राजकुमार जैन ‘राजन’ को एक सरोकार युक्त गीत के प्रकाशन के लिए साधुवाद और शादाब भाई को एक उत्कृष्ट रचना के सृजन के लिए बधाई। ख़ुदा से दुआ है कि आप यूँ ही दिन प्रतिदिन छपते रहें और साहित्य व समाज को लाभान्वित करते रहें।
समीक्ष्य बाल गीत- दादी जी के पास
– के. पी. अनमोल