बाल-वाटिका
बालकथा: श्राद्ध
बच्चों, आज हम चर्चा करेंगे ‘श्राद्ध कर्म’ क्यों किया जाता है? क्या आप में से कोई बताएंगे, ‘किन के घरों में यह आयोजन होता है? क्या कभी किसी ने अपने बड़ों से इसका प्रयोजन जानने का प्रयास किया है?”
लगभग सभी बच्चों की आँखें अनुपम की ओर उठ गईं क्योंकि केवल उसका ही हाथ उठा था।इस प्रयोजन को जानने का प्रयास केवल अनुपम ने किया था। चाचा जी ने प्रोत्साहित कर उसे खड़ा किया और कहा कि वह सब को बताए।
अनुपम बोला,”चाचाजी,मैंने माँ से पूछा था, “यह सब आयोजन किसलिए? क्या आपको सचमुच लगता है, यह जो हम पूर्वजों का श्राद्व करते हैं, वह उन तक पहुँचता है? उन्हें खुशी देता है?”
माँ का जवाब था,”अपने पूर्वजों का पूर्णतः विधि-विधान, श्रद्धा और सामर्थ्यानुसार किया गया श्राद्धकर्म एक अलौकिक अनुभूति, अनोखा और अद्भुत संतोष देता है। जब हम उस संतोष को अनुभव करते हैं, तो हमारे पुरखे क्यों नहीं करते होंगे?’ उन्होंने आगे कहा, “मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह सब उनके आशीर्वाद का ही फल है कि हम सब सुखी हैं।”
“पिताजी ने भी मुझे समझाने की कोशिश करते हुए इस विषय में कुछ कहा था, किंतु मुझे ठीक से याद नहीं।” शरमाते हुए आदित्य ने कहा।
“कोई बात नहीं बच्चों, मैं बताता हूँ। हिंदू धर्म की मान्यता के अनुसार जो श्रद्धा से किया जाए, वह श्राद्व है और तुम्हें जानना चाहिए कि श्राद्ध में श्रृद्धापूर्वक तीन पिंडदान करने चाहिए; एक ज्ञात- अज्ञात पूर्वजों का, दूसरा ननिहाल पक्ष का और तीसरा ससुराल पक्ष का।”
“चाचाजी, ज्ञात-अज्ञात का क्या प्रयोजन है? यह क्यों किया जाता है?” बाँसुरी ने पूछा।
“बच्चों,ज्ञात-अज्ञात पितरों का तर्पण करने से हमारे सभी पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह हमारे ऋषि-मुनियों के काल से प्रारंभ हुआ कर्म है और हमें इससे आत्मिक सुख की प्राप्ति होती है।”
“किंतु चाचाजी, मुझे हमेशा एक संदेह रहता है कि ब्राह्मणों को और कौवों को खिलाने से हमारे पितृ कैसे तृप्त होते हैं?” कुशाग्र ने असमंजस में सर हिलाते हुए पूछा।
“तुम्हारी जैसी नई पीढ़ी पूछती है, हम श्राद्ध क्यों करें, पंडितों को और कौवे को खाना देने से वह हमारे पूर्वजों तक कैसे पहुंचेगा? तो तुम्हारी शंका के समाधान के लिए तुम्हें बताता हूँ कि ब्राह्मण हमेशा से हमारे लिए पूज्य रहे हैं और कौवे पर्यावरण बचाने में अहम भूमिका निभाते हैं।”
“वह किस प्रकार, चाचाजी?” कलिका ने पूछा।
“कहते हैं, कौवे भादों मास में अंडे देते हैं। इनके बच्चों को खाना आसानी से मिल जाए, उसके लिए श्राद्ध में काग भोजन की प्रथा का प्रचलन हुआ, जिससे कौवों की प्रजाति में वृद्धि हो ,क्योंकि पीपल और बरगद कौवों की वजह से ही उगते हैं।है न विस्मय की बात? प्रकृति ने इन उपयोगी वृक्षों को उगाने की अलग रीति बनाई है। इन दोनों वृक्षों के फलों को कौवे खाते हैं। जब यह बीज उनके शरीर में प्रवेश करते हैं, उनका कड़ा आवरण हटता है। वहाँ एक विशेष प्रक्रिया होती है। इस प्रक्रिया के बाद कौवा जहाँ- जहाँ बीट करता है वहाँ पेड़ उगने की संभावना बनती है। आप सब बखूबी जानते हैं कि बरगद अकाल के समय भी जीवित रहने वाला वृक्ष है। यह औषधीय गुणों की खान है। सूजाक, सिफलिस तक का इलाज इससे संभव है।”
सुमित्रा जो अब तक बहुत ध्यान से सुन रही थी, उसने कहा, “अगर हमें इन वृक्षों का संवर्धन करना है तो हमे कौवों को बचाना और बढ़ाना होगा। फिर श्राद्ध कर्म तो हमें हमारे निकटतम प्रिय जनों को प्रतिवर्ष याद करने का एक माध्यम है। हम अपने पूर्वजों की स्मृतियों को उनके न रहने के बाद भी ताजा करते रहें और उनके लिए श्रद्धा अर्पित करते रहें, उससे अच्छी क्या बात हो सकती है?”
“दान-पुण्य करना भी अच्छी बात है। तो यदि ब्राह्मण देवता को इस अवसर पर कुछ दान कर दिया जाए, तो कोई बुराई नहीं है।” गोवर्धन ने समझदारी दिखाते हुए जोड़ा।
उमा हँसते हुए बोली,”अब हमें अच्छी तरह समझ में आ गया कि श्राद्ध क्यों करते हैं।”
“उत्सुकता और तर्क बहुत अच्छी बात है ,किंतु अपनी परंपराओं को ग़ैर जरूरी मान लेना या मूर्खता समझना अच्छी बात नहीं है।”
“पर्यावरण की सुरक्षा की बात मेरी समझ में आ गई है और फिर पकवानों पर भी तो हाथ साफ करने को मिलता है।” हँसते हुए रमन ने कहा।
– गीता परिहार