अगस्त का महीना बारिश का, त्यौहारों का, उल्लास का महीना है। मित्रता-दिवस, रक्षाबंधन, जन्माष्टमी, स्वतंत्रता दिवस की तिथियाँ भी इसी माह से जुड़ी हुई हैं। बारिश की प्रतीक्षा सभी को रहती है। बादलों की गड़गड़ाहट के बीच कौंधती बिजली, आसमान को कुछ और ही नया रंग-रूप प्रदान करती है। अचानक हुई तेज़ बारिश और उस पर सरसराती ठंडी पवन, मन में असंख्य उमंगें भर देती है! वर्षा ऋतु प्रेमियों के लिए रोमांस, सहायकों के लिए छुट्टी का सामान, बच्चों के लिए मस्ती, बड़ों के लिए गीला अख़बार, गृहिणियों के लिए सीले कपड़ों की दुर्गन्ध बनकर आती है। आम आदमी की अंतरात्मा भी इसी मौसम में गरमा-गरम पकौड़े और चटकारेदार चटनी का मधुर आह्वान करती है। यह वस्तुत: आकाश से गिरे उन मोतियों का प्रभाव है, जो माटी को स्पर्श करते ही सारे वातावरण को अपनी सौंधी सुगंध से सराबोर कर देते हैं।
किसान भाइयों को फसल की चिंता सताती है क्योंकि उनके लिए बरसात कभी प्रकोप तो कभी राहत की आँख-मिचौली का खेल सदैव ही खेलती आई है। इधर सरकार के माथे पर इसकी बूँदें पसीना बन छलछलाती रहीं हैं क्योंकि यही वो माह है जब सड़कों पर बनती दरारें और गड्ढे तमाम वायदों की पोल की तरह खुलते चले जाते हैं और बस इतना अनुमान भर शेष रह जाता है कि इन गड्ढों में कभी एक सड़क भी हुआ करती थी। कुल मिलाकर ‘आदमी त्रस्त और सरकार पस्त’ वाली निराशाजनक स्थिति से जूझते रहना ही नियति बनती जा रही है।
लेकिन सारी समस्याओं और उलझनों के मध्य जीते हुए भी, उस बच्चे की मुस्कान सबसे मासूम और निर्दोष होती है, जो बार-बार खिड़की से झाँककर यह तसल्ली करता है कि कहीं बारिश रुक तो नहीं गई! उसे तो अपनी रेनी-डे की छुट्टी से मतलब, बाकी दुनिया की सोचने की उम्र ही कहाँ हुई है उसकी! काग़ज़ की नाव चलाने और लकड़ी के सहारे उसे आगे तक ले जाने का दौर भले ही बीत चुका हो लेकिन इन बारिशों में भीगने और इसे उल्लासपूर्वक मनाने का समय अभी गया नहीं!
ऐसे में स्वास्थ्य मंत्री का यह बयान कि “अगस्त में तो……..”, अत्यंत निर्ममता से तमाम खुशियों का गला रेतकर रख देता है।
एक वृद्ध महिला का शव, उन्हीं के घर से उनके बेटे को एक वर्ष बाद मिलता है, जब वह अपनी माँ से मिलने आया था।….यह कोई सनसनीखेज़ समाचार नहीं बल्कि पूरे समाज के गाल पर एक सन्नाटेदार तमाचा है। आख़िर हमारी संवेदनशीलता को हुआ क्या है? समाज से इतनी विरक्ति? इतनी आत्म-केन्द्रीयता? जब हम अपने कर्त्तव्य ही नहीं निभा पाते तो किस मुँह से अधिकारों की बात करते हैं?
बड़े-बड़े उद्योगपतियों की पारिवारिक कलह भी हमेशा से ही सुर्ख़ियाँ बटोरती आई है पर कितना अविश्वसनीय और दुःखद है कि जिसने दिन-रात एक कर अपने सपनों का महल साकार किया, आज वही पाई-पाई को विवश है! क्या यही दिन देखने के लिए माता-पिता अपने बच्चों की परवरिश करते हैं!
आई ए एस अधिकारी द्वारा की गई आत्महत्या का मामला भी कई प्रश्न खड़े करता है। लेकिन इन प्रश्नों से भी कहीं ज्यादा यह इस बात की पुष्टि करता है कि पुरुषों को भी मानसिक कष्ट होता है। हमारी सामाजिक-व्यवस्था का ढाँचा ही कुछ ऐसा है कि पुरुष के हिस्से मौन और स्त्रियों के हिस्से आँसू ज्यादा आये हैं। संदर्भित केस का विषय जो भी रहा हो पर स्थितियाँ केवल यही नहीं हैं। न तो पुरुष सदैव अपराधी रहा है और न ही स्त्रियाँ पीड़िता…..कई बार वस्तुस्थिति इससे ठीक उलट भी होती है।
अगस्त माह का उल्लास अब कुछ खोया हुआ-सा है। समाचार किसी ‘क़ब्रिस्तानी चैनल’ से प्रसारित हो रहे हों जैसे! घर के एक कोने में निढाल, बेसुध पिता और आँसुओं की नदी में डूबती माँ….जिनके लिए अब भी इस सत्य को स्वीकारना संभव नहीं लगता। एक पल को भी साँस अटकती है तो कितनी घबराहट होती है, बुरी तरह छटपटाने लगता है इंसान, हाथ-पैर पटकता है। उन मासूमों पर न जाने क्या बीती होगी, सोचकर भी रूह काँप जाती है।
तमाम चीखों- चिल्लाहटों, माथा पटकते, छाती पीटते आक्रोश के बदले, इस बार भी वही कोरे आश्वासन और उच्च स्तरीय जाँच के वायदों की बंधी-बंधाई पोटली उछाल दी गई है।
पर वो सपने जो किसी परिवार की आँखों में कब से झूल रहे थे…..कभी न सच होंगे। हवाएँ अब बिकाऊ हो चलीं हैं, प्राणवायु का किराया लगने लगा है।
उम्मीदों का बेबस आसमां…..आज भी सिर झुकाए, मौन, नि:शब्द मायूस खड़ा है।
वही जानी-पहचानी तस्वीर….कुछ भी तो नहीं बदला… राजनीति भी हर बार की तरह बेधड़क एवं उसी निर्लज्जता के साथ जारी है।
दोषारोपण का ठीकरा एक-दूसरे पर फेंकने का खेल भी वही वर्षों पुराना…. करते रहिए, पर जो अपने आँगन की किलकारी ही खो बैठा, उसे इन सब तमाशों से अब क्या मिलेगा?
किसानों की मौत, बच्चों की मौत, वृद्धों की मौत, पिता के विश्वास की मौत और ऐसे तमाम अनकहे, अनसुने हादसों के बीच सहमी हुई उम्मीद इन दिनों संशय में है।
विचारणीय होगा, विकास की अंधी दौड़ में हम कहीं कुछ पीछे तो नहीं छोड़ते जा रहे?
कहने को तो सात दशक बीत चुके पर जब हम धर्म, जाति, प्रान्तीयता, स्वार्थ, राजनीति, परस्पर ईर्ष्या-द्वेष की मानसिकता से ऊपर उठकर सोचना प्रारम्भ करेंगे…..दूसरों की तरफ उंगली उठाने से पहले आत्म -विश्लेषण करेंगे……स्व को भूल देशहित की बात करेंगे… सच्ची स्वतंत्रता तभी प्राप्त होगी।
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ मात्र क़िताबी जुमला ही नहीं, एक नैतिक जिम्मेदारी भी है, हमें इसे आत्मसात करना और निभाना सीखना ही होगा।
जय हिन्द!
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चलते-चलते : ‘संस्कृत’ को भारतीय भाषाओं की जननी कहा जाता है। अतएव इस भाषा के प्रचार-प्रसार और महत्त्व को पाठकों तक पहुँचाने के उद्देश्य से इस अंक से ‘जयतु संस्कृतम्’ स्तम्भ प्रारम्भ हो रहा है। इसके लिए संस्कृत भाषा में लिखी रचनाएँ स्वीकार की जाएँगी। हस्ताक्षर पत्रिका का स्वरुप तथा अन्य सभी स्तम्भ पूर्ववत हिन्दी में ही रहेंगे। हमारे इस नए प्रयास पर आपके सुझावों एवं प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी।
– प्रीति अज्ञात